Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.
BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री
Bihar Board Class 11 Sociology भारतीय समाजशास्त्री Additional Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
गोत्र बहिर्विवाह से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
गोत्र का ब्राह्मणों तथा बाद में गैर-ब्राह्मणों द्वारा पूर्णतया बहिर्विवाह इकाई समझा गया। मूल धारणा यह है कि गोत्र के सभी सदस्य एक-दूसरे से संबंधित होते हैं। उनमें रक्त संबंध होता है अर्थात कोई ऋषि या संत उनका सामान्य पूर्वज होता है। इसी कारण, एक ही गोत्र के सदस्यों के बीच विवाह को अनुचित समझा जाता है।
प्रश्न 2.
भारत में ब्रिटिश शासन से कौन-से तीन प्रकार के परिवर्तन हुए?
उत्तर:
भारत में ब्रिटिश शासन से निम्नलिखित तीन प्रकार के परिवर्तन हुए –
- कानूनी तथा संस्थागत परिवर्तन, जिनसे सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता के अधिकार प्रदान किए गए।
- प्रौद्योगिकीय परिवर्तन
- व्यावसायिक परिवर्तन
प्रश्न 3.
कुछ मानवशास्त्रियों तथा ब्रिटिश प्रशासकों ने जनजातियों को अलग कर देने की नीति की वकालत क्यों की?
उत्तर:
कुछ मानवशास्त्रियों तथा ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा जनजातियों को अलग कर देने की नीति की वकालत निम्नलिखित कारणों से की गई –
- जनजातियों के लोग गैर-जनजातियों व हिंदुओं से भिन्न हैं।
- जनजातियों के लोग हिंदुओं के विपरित जीवनवादी हैं।
- जनजाति के लोग हिंदुओं के विपरीत जीवनवाद हैं।
- जनजातीय लोगों के हिन्दुओं से संपर्क होने के कारण उनकी संस्कृति तथा अर्थव्यवस्था को हानि हुई। गैर-जनजातियों के लोगों ने चालाकी तथा शोषण से उनकी (जनजाति के लोगों की) भूमि तथा अन्य स्रोतों पर कब्जा कर लिया।
प्रश्न 4.
घुर्ये का भारतीय जनजातियों के हिंदूकरण की प्रक्रिया का विवरण दीजिए।
उत्तर:
घुर्ये ने भारत के जनजातियों के हिंदूकरण में निम्नलिखित तथ्यों का विवरण दिया है –
- कुछ जनजातियों का हिंदू समाज में एकीकरण हो चुका है।
- कुछ जनजातियाँ एकीकरण की दिशा में अग्रसर हो रही हैं।
प्रश्न 5.
घुर्ये ने जनजातियों के किस भाग को ‘हिंदू समाज का अपूर्ण एकीकृत वर्ग’ कहा है?
उत्तर:
भारत की कुछ जनजातियाँ जो पहाड़ों अथवा घने जंगलों में रह रही है, अभी तक हिंदू समाज के संपर्क में नहीं आयी हैं। जी.एस.घुर्ये ने इन जनजातियों हिन्दू समाज को ‘अपूर्ण एकीकृत वर्ग’ कहा है।
प्रश्न 6.
जनजातियों के द्वारा हिंदू सामजिक व्यवस्था को क्यों अपनाया गया?
उत्तर:
जनजातियों ने हिंदू सामाजिक व्यवस्था को आर्थिक उद्देश्यों के कारण अपनाया हिंदू धर्म को अपनाने के पश्चात् जनजाति के लोग अल्पविकसित हस्तशिल्प की संकीर्ण सीमाओं से बाहर आ सके। इसके पश्चात् उन्होंने विशेषीकृत व्यवसायों को अपनाया। इन व्यवसायों की समाज में अत्यधिक मांग थी। जनजातियों ने हिंदू सामाजिक व्यवस्था अपनाने का दूसरा कारण जनजातीय निवासों तथा रीतियों के हेतु जाति व्यवस्था की उदारता था।
प्रश्न 7.
इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी की नींव किसने और कब डाली?
उत्तर:
गोविंद सदाशिव घुयें ने 1952 में इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी की नींव डाली।
प्रश्न 8.
घुर्ये ने जाति तथा नातेदारी के तुलनात्मक अध्ययन में किन दो बिंदुओं को महत्त्वपूर्ण बताया है?
उत्तर:
भारत में पायी जाने वाली नातेदारी व जातीय संजाल की व्यवस्था अन्य समाजों में भी पायी जाती है। जाति तथा नातेदारी ने भूतकाल में एकीकरण का कार्य किया है। भारतीय समाज का उद्विकास विभिन्न प्रजातीय तथा नृजातीय समूहों के एकीकरण पर आधारित था।
प्रश्न 9.
घुर्ये ने जाति व्यवस्था में पाए जाने वाले किन छः संरचनात्मक लक्षणों का उल्लेख किया है?
उत्तर:
जी.एन.घुर्ये ने जाति व्यवस्था में पाए जाने वाले निम्नलिखित छः संरचनात्मक लक्षणों का उल्लेख किया है –
- खंडात्मक विभाजन
- अनुक्रम या संस्तरण अथवा पदानुक्रम
- शुद्धता तथा अशुद्धता के सिद्धांत
- नागरिक तथा धार्मिक निर्योग्यताएँ तथा विभिन्न विभागों के विशेषाधिकार
- व्यवसाय चुनने संबंधी प्रतिबंध
- वैवाहिक प्रतिबंध
प्रश्न 10.
अंनतकृष्ण अययर एवं शरतचंद्र रॉय ने सामजिक मानवविज्ञान के अध्ययन का अभ्यास कैसे किया?
उत्तर:
अंनतकृष्ण अययर प्रारंभ में केवल एक लिपिक थे। बाद में आप अध्यापक हो गए। सन् 1902 में कोचीन राज्य में एक नृजातीय सर्वे कर कार्य अपकों सौंपा गया और आप मानवशास्त्री हो गए। इसी प्रकार ही शरत्चंद्र रॉय कानूनविद् थे। अपने ‘उरावं’ जनजाति पर कुछ शोध किया और आप मानवशास्त्री हो गए।
प्रश्न 11.
जाति-व्यवस्था में विवाह बंधन पर चार पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर:
- जाति व्यवस्था में अंतजार्तीय विवाहों पर प्रतिबंध था।
- जातियों में अंतः विवाह का प्रचलन था।
- प्रत्येक जाति छोटे-छोटे उपसमूहों अथवा उपजातियों में विभाजित थी।
- घूर्ये अंतः विवाह को जाति प्रथा में प्रमुख कारक मानते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों के बारे में घुर्ये के विचार लिखिए?
उत्तर:
ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों के बारे में घुर्य के विचार का अध्ययन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) घुर्ये ने नगरों तथा महानगरों के विकास के बारे में निराशवादी दृष्टिकोण नहीं अपनाया है। नगरों से पुरुषों तथा स्त्रियों की चारित्रिक विशेषताओं को समाप्त नहीं किया है।
(ii) घूर्य के अनुसार विशाल नगर उच्च शिक्षा, शोध, न्यायपालिका, स्वास्थ सेवाएँ तथा प्रिंट मीडिया व मनोरंजन आदि अंततोगत्वा सांस्कृतक वृद्धि करते हैं। नगर का प्रमुख कार्य सांस्कृतिक एकरात्मकता की भूमिका का निर्वाह करना है।
(iii) घूर्ये नगरीकरण के पक्के समर्थक थे। घुर्य के अनुसार नगर नियोजन को निम्नलिखित समस्याओं के समाधान की ओर ध्यान देना चाहिए –
- पीने की पानी की समस्या
- मानवीय भीड़-भाड़
- वाहनों की भीड़-भाड़
- सार्वजनिक वाहनों के नियम
- मुम्बई जैसे महानगरों में रेल परिवहन की कमी
- मृदा का अपरदन
- ध्वनि प्रदूषण
- अंधाधुंध पेड़ों की कटाई तथा
- पैदल यात्रियों की दुर्दशा
(iv) घूर्ये जीवनपर्यत ग्रामीण – नगरीयता के विचारों का समथन करते रहे। उनका मत था कि नगरीय जीवन के लाभों के साथ-साथ प्राकृति की हरीतिमा का भी लाभ उठाना चाहिए। भारत में नगरीकरण केवल औद्योगीकरण के कारण नहीं है। नगर तथा महानगर अपने नजदीकी स्थानों के लिए सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में भी कार्य करते हैं।
(v) घूर्य के अनुसार ब्रिटीश शासन के दौरान ग्रामों तथा नगरीय केन्द्रों के बीच पाए जाने वाले संबंधों की उपेक्षा की गई।
प्रश्न 2.
जाति तथा नातेदारी के विषय में गोविंद सदाशिव धूर्ये के विचार लिखिए?
उत्तर:
जाति तथा नातेदारी के बारे में जी.एस.घूर्य के विचारों का अध्ययन निम्नलिखित बिंदओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) घुर्ये ने अपनी पुस्तक Caste and Race in India 1932 में ऐतिहासिक मानवशास्त्रीय तथा समाजशास्त्रीय उपागमों को कुशलतापूर्वक संयुक्त किया है घूर्य जाति की ऐतिहासिक उत्पति तथा उसके भौगोलिक प्रसार से संबंधित थे। उन्होंने जाति के तत्कालीन लक्षणों पर ब्रिटिश शासन के प्रभावों को प्रभावों को भी समझने का प्रयास किया है।
(ii) घूर्ये ने अपनी पुस्तक में बाद के संस्करण में भारत की आजादी के बाद जाति व्यवस्था में आने वाले परिवर्तनों का उल्लेख किया है। .
(iii) एक तार्किक विचारक के रूप में वे जाति व्यवस्था का घोर विरोध करते थे। उनका ‘अनुमान था कि नगरीय पर्यावरण तथा आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों से जाति बंधन कमजोर हो जाएँगे। लेकिन उन्होंने पाया कि जातिनिष्ठा तथा जातिय चेतना का रूपांतरण नृजातिय समूहों मं हो रहा है।
(iv) घूर्ये का मत है कि जाति अंत: विवाह तथा बहिर्विवाह के माध्यम से नातेदारी से संबंधित है।
प्रश्न 3.
घूर्य के अनुसार धर्म के महत्व को समझाइए?
उत्तर:
जी.एस.घूर्ये न धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों के अध्ययन में मौलिक योगदान प्रदान किया है। समाज में धर्म की भूमिका का विशद् वर्णन उन्होंने निम्नलिखित पुस्तकों में किया है –
- Indian Sadhus (1953)
- Gods and Men (1962)
- Religious Consciousnes (1965)
- Indian Accultrtion (1977)
- Vedic India (1979)
- The legacy of Ramayana (1979)
घुर्ये ने संस्कृति के पाँच आधार बताए हैं –
- धार्मिक चेतना
- अंत: करण
- न्याय
- ज्ञान प्राप्ति हेतु निर्बाध अनुसरण
- सहनशीलता।
घूर्ये ने अपनी पुस्तक Indian sadhus में महान वेंदातिंक दार्शनिक शंकराचार्य तथा दूसरे धार्मिक आचार्य द्वारा चलाए गए अनेक धार्मिक पंथों तथा केंद्रों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया है। घूर्ये ने भारत में त्याग की विरोधाभासी प्रकृति को प्रस्तुत किया है। शंकराचार्य के समय से ही हिंदू समाज का कम या अधिक रूप में साधुओं द्वारा मार्गदर्शन किया गया है। ये साधु-एकांतवासी नहीं हैं। उनमें से ज्यादातर साधुमठासी होते हैं। भारत में। मठों का संगठन हिन्दूवाद तथा बोद्धवाद के कारण है।
भारत में साधुओं द्वारा धार्मिक विवादों में मध्यस्थता भी की जाती है। उनके द्वारा धार्मिक ग्रंथों तथा पवित्र ज्ञान को संरक्षण दिय गया है। इसके अतिरिक्त, साधुओं द्वारा विदेशी आक्रमणों के समय धर्म की रक्षा की गई है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
जाति व राजनीति पर घूर्य के विचार लिखिए?
उत्तर:
जाति तथा राजनीति के संबंध में जी.एस.घूर्य के विचारों का अध्ययन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) प्रसिद्ध समाजशास्त्री जी.एस.घूर्ये ने जातिनिष्ठा अथवा जातीय लगाव के प्रति सावधानी बरतने की बात कही है। जातिनिष्ठा तथा जातीय लगाव दोनों ही भारत की एकता के लिए संभावित खतरे हैं।
(ii) यद्यपि ब्रिटिश शासन के दौरान किए गए परिवर्तनों से जाति-व्यस्था के कार्य कुछ सीमा तक प्रभावित तो हुए तथापि उनका पूर्णरूपेण उन्मूलन नहीं हो सक। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान निम्नलिखित तीन प्रकार के परिवर्तन आए –
- कानूनी तथा संस्थागत परिवर्तन
- प्रौद्योगिकी परिवर्तन तथा
- व्यावसायिक परिवर्तन
(iii) घूर्ये का यह स्पष्ट मत है कि भारत में ब्रिटिश शासक जाति व्यवस्था के समाजिक तथा आर्थिक आधारों को समाप्त करने में कभी भी गम्भीर नहीं रहे। उनके द्वारा छुआछूत को समाप्त करने का भी प्रयत्न नहीं किया गया।
(iv) परतंत्र भारत में निम्नलिखित समीकरण पाए गए हैं –
- जातिय समितियों को अधिकता
- जातिय पत्रिकाओं की संख्या में वृद्धि
- जाति पर आधारित न्यासों में वृद्धि
- नातेदारी ने जातिय चेतना के विचारों को प्रोत्साहित किया।
उपरोक्त वर्णित चारों कारक वास्तविक सामुदायिक तथा राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधा उतपन्न करते हैं।
(vi) जी.एस.घूर्ये को इस बात की चिंता थी कि राजनैतिक नेता प्राप्त करने तथा उस काम रखने के लिए जातीय संवेदना का शोषण करेंगे। इस संदर्भ में धूर्य की चिंता निरर्थक नहीं थी। घूर्य ने राजनीति क्षेत्र तथा नौकरियो में वंचित वर्ग के आरक्षण के आंदोलन की भावना की प्रशंसा की। उन्होंने इस बात पर विशेष जोर दिया कि अछूत जातियों को विशेष शैक्षिक सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। उनका मत था कि शिक्षा ही उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर बना सकती है।
प्रश्न 2.
जनजातियों पर घूर्ये के विचार दीजिए।
उत्तर:
जनजातियों के विषय में घूर्य के विचार का निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत अध्ययन, किया जा सकता है। भारत की जनसंख्या में जनजातियाँ एक महत्त्वपूर्ण भाग है। घूर्ये ने इस बात पर चिंता प्रकट की थी कि कुछ मानवशास्त्री तथा ब्रिटिश प्रशासक जनजातियों को पृथक् कर देने की नीति के हिमायती थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि हर कीमत पर जनजातियों की विशष्टि पहचान बनायी रखी जानी चाहिए। उन्होंने इस संबंध मे निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए
- जनजातिय गैर-जनजाति या हिंदुओं से पृथक् है।
- जनजातिय लोग देश के मूल निवासी हैं।
- जनजातिय लोग हिंदुओं के विपरीत जीववादी हैं।
- जनजातियं लोग भाषा के आधार पर भी हिंदुओं से अलग हैं।
- गैर-जनजातिय लोगों के संपर्क में आने से जनजातीय लोगों की संस्कृति तथा अर्थव्यवस्था का नुकसान हुआ है।
- गैर-जनजातियों लोगों की चालाकी तथा शोषण के कारण जनजातिय लोगो की जमीन तथा अन्य संसाधन समाप्त हो गए।
जी.एस.घूर्य ने उपरोक्त बिंदुओं का ऐतिहासिक आंकड़ों तथा उदाहरणों द्वारा तत्कालीन स्थिति के संदर्भ में विरोधी किया है। जी.एस.घूर्य ने भरतीय जनजातियों के हिंदूकरण की प्रक्रिया का उल्लेख किया है। उनका मत है कि कुछ जनजातियों का हिंदू समाज में एकीकरण हो चुका है तथा कुछ जनजातियाँ एकीकरण की दशा में अग्रसर हो रही है। घूर्ये का मत है कि कुछ जनजातियाँ पहाड़ों तथा जंगलों में रह रही हैं। ये जनजातियाँ हिंदू समाज से अभी तक अप्रभावित हैं। ऐसी जनजातियों को हिंदू समजा का अपूर्ण एकीकृत वर्ग कहा जाता है।
जी.एस.पूर्वे के अनुसार जनजातियों द्वारा हिंदू सामाजिक व्यवस्था को निम्नलिखित दो करणों से अपनाया गया है प्रथम आर्थिक उद्देश्य था। जनजातियों द्वारा हिंदू धर्म की अपनया गया था अंत: उन्हें अपने अल्पविकसित जनजातिय हस्तशिल्प की सीमाओं से बाहर आने का मार्ग मिल गया। इसके पश्चात् जनजातिय लोगों ने बिशिष्ट प्रकार के उन व्यवसायों को अपनाया जिनकी समाज में मांग थी। द्वितीय कारण जनजातिय विश्वासों तथा रीतियों के संदर्भ में जाति व्यवस्था की उदारता थी।
जी.एस.घूर्ये ने इस बात को स्वीकार किया कि भोले जनजातिय लोग गैर-जनजातियों, हिंदू महाजानों तथा भू-माफियाओं द्वारा शोषित किए गए। घूर्ये का मत है कि इसका मूल कारण ब्रिटीश शाशन को दोषपूर्ण राज्स्व तथा न्याय व नीतियाँ थी। ब्रिटिश सरकार की वन संबंधी नीतियों से जनजातिय लोगों के जीवन को और अधिक कठोर बना दिया। इन दोषपूर्ण नीतियों के कारण न केवल जनजातिय लोगों को कष्ट हुआ वरन् गैर-जनजातिय लोगों को भी अनेक कठिनाइयों का समाना कारना पड़ा। वस्तुतः समाज में प्रखलत व्यवस्था ने जनजातिय लोगों तथा गैर-जनजातिय लोगों को समान रूप से कष्ट पहुँचाया।
प्रश्न 3.
घूर्ये के अनुसार जाति के संरचनात्मक लक्षणों का वर्णन कीजिए?
उत्तर:
घूर्य ने जाति के निम्नलिखित छः संरचनात्मक लक्षणों का उल्लेख किया है –
(i) खंडात्मक विभाजन-जी.एस.घूर्य ने जाति को सामजिक समूहों अथवा खंडो के रूप में समझा है। इनकी सदस्यता का निर्धारण जन्म से होता है। सामाज के खंड विभाजन का अभिप्राय जाति के अनेक खंड में विभाजन है। प्रत्येक खंड का अपना जीवन होता है। प्रत्येक जाति के नियम, विनियम, नैतिकता तथा न्याय के मानदंड होते हैं।
(ii) अनुक्रम अथवा संस्मरण अथवा पदानुक्रम-जाति अथवा इसके खंडों में संस्तरण पाया जाता है। संस्तरण की व्यवस्था में जातियाँ एक-दूसरे के संदर्भ में उच्च अथवा निम्न स्थिति में होती है। सभी जगह संस्तरण की व्यवस्था में ब्राह्मणों की स्थिति उच्च तथा अछूतों की निम्न होती है।
(iii) शुद्धता एवं अशुद्धता के सिद्धांत-जातियों तथा खंडों के बीच पृथकता, शुद्धि तथा अशुद्धि के सिद्धांत पर आधारित है। शुद्ध तथा अशुद्ध के सिद्धांत के अंतर्गत दूसरी जीतियों के . संदर्भ में खान-पान संबंधी नियमों का पालन किया जाता है। आमतौर पर ज्यादातर जातियों को ब्राह्मणों द्वारा पकाए गए कच्चे भोजन को ग्रहण करने पर कोई आपत्ति नहीं होती है। दूसरी और, ऊँची जातियों द्वारा निम्न जातियों द्वारा पकाया गया पक्का खाना, जैसे कचौड़ी आदि ग्रहण किया जाता है।
(iv) नागरिक तथा धार्मिक निर्योग्यताएँ तथा विभिन्न भागों में विशेषाधिकार-समाज में संस्तरण के विभाजन के कारण विभिन्न समूहों को प्रदान किए गए विशेषाधिकारों तथा दायित्वों में असमानता पायी जाती है। व्यवसायों का निर्धारण जाति की प्रकृति के अनुसार होता है। ब्राह्मणों की उच्च स्थिति इन्हीं आधारों पर होती है। निम्न जाति के लोग उच्च जाति के लोगों के रीति-रिवाजों तथा वस्त्र धारण करने आदि की नकल नहीं कर सकते थे। उनके द्वारा ऐसा किया जाना समाज के नियमों के विरुद्ध कार्य समझा जाता था।
(v) व्यवसायों के संबंध में प्रतिबंध-प्रत्येक जाति अथवा जाति समूहों किसी न किसी वंशानुगत व्यवसाय से संबंध होते थे। व्यवसायों का वर्गकरण भी शुद्धता तथा अशुद्धता के सिद्धांत के आधार पर किया जाता था। वर्तमान समय में इस स्थिति में परिवर्तन आया है। लेकिन पुरोहित के कार्य पर अभी भी ब्राह्मणों का अधिकार कायम है।
(vi) वैवाहिक प्रतिबंध-जाति व्यवस्था में अंतर्जातीय विवाहों पर प्रतिबंध था। जातियों में अंतः विवाह का प्रचलन था। घूर्ये अंतः विवाह को जाति प्रथा का प्रमुख कारक मानते हैं।
प्रश्न 4.
‘जनजातिय समुदायों को कैसे जोड़ा जाय’ इस विवाद के दोनों पक्षों के क्या तर्क थे?
उत्तर:
जानजातिय समुदायों से कैसे संबंध स्थापित हो? यह एक गंभीर प्रश्न है। जी.एस. घूर्य ने अपनी पुस्तक ‘द शिड्यूल्ड टाइब्स’ में लिखा है। “अनुसूचित जनजातियों को न तो अदिम कहा जाता है और न आदिवासी न ही उन्हें अपने आप में एक कोटि माना जाता है” यानि पहचान की समस्या गंभीर हैं। जनजातिय समुदायों के साथ संबंध स्थापित करने में निम्न तथ्व भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं
- भूमि हस्तांतरण तथा शोषण के बिंदुओं को रोका जाए।
- आर्थिक विकास के अवरोधों को दूर किया जाए।
- उनके सांस्कृतिक स्वरूप और मूल संस्कृत में कोई परिवर्तन न किया जाए।
- अशिक्षा की समस्या से दूर किया जाए।
- ऋणग्रस्तता को समाप्त करने का प्रयास किया जाए।
- जनजातियों के समग्र विकास के लिए कदम उठाए जाएँ।
इन सभी कार्यों को पूर्ण करने पर निश्चित हो जनजातियों समुदायों से समर्क की समस्या समाम्त हो जाएगी।
प्रश्न 5.
घूर्ये ने भारतीय सामाज की व्याख्या कैसे की?
उत्तर:
घूर्ये ने भारतीय समाज की व्याख्या निम्नलिखित रूप में किये जाते हैं –
- जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था भारतीय समाज की एक विशिष्टता है। उन्होंने भारतीय समाज में जातियों के उपजातियों के रूप में विभाजन को स्वीकार किया है।
- घूर्ये ने भारतीय जनसंख्या को उनकी शारीरिक विशेषताओं के आधार पर प्रायः छः प्रकार के वर्गों में विभाजित किया है- इंडी आर्यन, पूर्वी द्रविड़, पश्चिमी मुण्डा और मंगोलियन।
- इनके अनुसार हिंदू, जैन, बौद्ध धर्म के कालात्मक स्मारकों में कई समान तत्वों का समावेश है।
- उनका मत था कि मुस्लिम भवनों में हिंदू कला का केवल अलंकरण के रूप में प्रयोग हुआ है।
- घूर्य का विचार था कि बहुलवादी प्रकृतियों ने राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया में बाधा डाली है और यह भारतीय समाज को टुकड़ों में बाँटे जाने को प्रोत्साहन देती है।
प्रश्न 6.
भारत में प्रजाति तथा जाति के संबंधों पर हर्बर्ट रिजले तथा जी.एस.घूर्ये की स्थिति की रूपरेखा दें?
उत्तर:
वास्तव में जाति व्यवस्था भारतीय समाज की अपने एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। जो व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, उसे उसी बना रहना पड़ता है। जाति की सदस्यता जन्म से होती है। जाति-‘कास्ट’ एक अंग्रेजी शब्द है जिसकी उत्पति पुर्तगाली भाषा के –
- जाति की सदस्यता उन व्यक्तियों तक ही सीमित होती है जो उस जाति के सदस्यों से उत्पन्न हुए हों और इस प्रकार उत्पन्न होने वाले
- सभी व्यक्ति जाति में आते हैं।
जिसके सदस्य एक अविच्छिन्न सामाजिक नियम के द्वारा समूह के बाहर विवाह करने से रोक दिए जाते हैं।
प्रो.एच.रिजले के अनुसार, “जाति परिवारों के समूह का एक संकलन है जिसका एक सामान्य नाम है, जो काल्पनिक पुरुष अथवा देवताओं से उत्पन्न होने का दावा करती है। एक वंशानुकूल व्यवसाय करने का दावा करती है और उन लोगों की दृष्टि से सजातीय समुदाय बनाती है जो अपना मत देने योग्य हैं।” प्रो.जी.एस.घूर्ये-प्रो.घूर्य ने जाति की परिभाषा देते हुए कहा है, ‘जाति एक जटिल अवधारणा है।’ इस प्रकार रिजले और घूर्ये दोनों जाति के संबंध में अलग-अलग विचार रखते हैं। प्रजाति से आशय यहाँ नस्ल से है : भारत में आर्य ही इस तथ्य पर एक मत हैं कि प्रजातिय विभिन्नता होते हुए भी भारत में जातिय एकता बनी हुई है।
ध्रुजटी प्रसाद मुखर्जी
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
डी.पी. की ‘पुरुष’ की अवधारणा बताइए?
उत्तर:
डी.पी. मुखर्जी ने अपनी ‘परुष’ की अवधारणा में उसे (पुरुष को) समाज तथा व्यक्ति से पृथक् नहीं किया है और न ही वह पुरुष समूह मस्तिष्क के नियंत्रण में है। मुखर्जी के अनुसार ‘पुरुष’ सक्रिय कर्ता के रूप दूसरे व्यक्त्यिों के साथ संबंध स्थापित करता है तथा अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना है। मुखर्जी का मत है कि पुरुष का विकास दूसरे व्यक्तियों के साथ संपर्क से होता है। इस प्रकार, उसका मानव समूहों में अपेक्षाकृत अच्छा स्थान होता है।
प्रश्न 2.
कर्ता की स्थिति स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार कर्ता की स्थिति के अंतर्गत व्यक्ति एक कर्ता के रूप में कार्य करता है। एक स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में जो कि व्यक्ति के अपने लक्ष्यों तथा हितों को प्राप्त करने की मौलिक विशेषताएँ रखता है।
प्रश्न 3.
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार परंपरा के अर्थ को स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार परंपरा का मूल ‘वाहक’ है जिसका तात्पर्य संप्रेषण करना है। संस्कृत भाषा में इसका समानार्थक परंपरा है, जिसका तात्पर्य है उत्तराधिकारी अथवा ऐतिहासिक जिसका आधार अथवा जुड़े इतिहास में हैं। मुखर्जी के अनुसार परंपराओं का कोई न कोई स्रोत अवश्य होता है। धार्मिक ग्रंथ अथवा महर्षियों के कथन अथवा ज्ञात या अज्ञात पौराणिक नायक परंपराओं के स्रोत हो सकते हैं।
पंरपराओं के स्रोत कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन इनकी एतिहासिकता को समाज के सभी सदस्यों द्वारा मान्यता प्रदान की जाति है। परंपराओं को उद्धत किया जाता है। उन्हें पुन: याद किया जाता है तथा उनका सम्मान किया जाता है। वस्तुतः परंपराओं की दीर्घकालीन संप्रेषणता से सामजिक संबद्धता तथा सामाजिक एकता कायम रखती है।
प्रश्न 4.
भारत में अंग्रजों द्वारा प्रारंभ की गई नगरीय, आद्योगिक व्यवस्था का प्रभाव बताइए।
उत्तर:
भारत में अंग्रजों द्वारा प्रारंभ की गई नगरीय औद्यौगिक व्यवस्था ने प्राचीन संस्थाओं के ताने-बाने को समाप्त कर दिया। इसके द्वारा अनेक परंपरागत जाजियों एवं वर्गों का विघटन हो गया। इन परिवर्तनों के काण एक नयी प्रकार का सामजिक अनुकूलन तथा समायोजन हुआ। इन नए परिवर्तनों के द्वारा भारत नगरीय केंद्रों में शिक्षित मध्यवर्ग समाज का मुख्य बिंदु बनकर सामने आया।
प्रश्न 5.
डी.पी.मुकर्जी के अनुसार भारत आधुनिकता के मार्ग पर किस प्रकार अग्रसर हो सकता है?
उत्तर:
डी.पी.मुकर्जी के अनुसार भारत अपनी परंपराओं से अनुकूलन तभी कर सकता है जब मध्यवर्गीय व्यक्ति अपना संपर्क आम जनता के पुनः स्थापित करें । मुखर्जी कहते हैं कि इस प्रक्रिया में उन्हें न तो अनावश्यक रूप से क्षमायाचना करनी चाहिए और न ही अपनी परंपराओं के विषय में बढ़-चढ़कर अथवा आत्मश्लाघा करनी चाहिए। उन्हें परंपराओं की जीवंतता को कायम रखना चहिए जिसमें आधुनिकता द्वारा आवश्यक परिवर्तनों के साथ समायोजन हो सके। इस प्रकार व्यक्तिवाद एवं समाजिकता के बीच संतुलन कायम रह सकेगा। इस नए अनुभव से भारत तथा विश्व दोनों ही लाभ प्राप्त कर सकेंगे।
प्रश्न 6.
सामजशास्त्र के क्षेत्र में डी.पी.मुकर्जी का महानतम योगदान बताइए?
उत्तर:
प्रसिद्ध भारतीय सामजशास्त्री डी.पी.मुकर्जी के विचार वर्तमान सामाजिक पररिस्थितियों में पूर्णत: उचित है। मुकर्जी का समाजशास्त्र के क्षेत्र में महानतम योगदान परंपराओं की भूमिकाओं का सैद्धांतिक निरूपण है। डी.पी.मुकर्जी का स्पष्ट मत था कि भारतीय सामाजिक यर्थाथता की समुचित समीक्षा इसकी संस्कृति तथा सामाजिक क्रियाओं, विशिष्ट परंपराओं, विशिष्ट प्रतीकों, विशिष्ट मानकों के संदर्भ में की जा सकती है।
प्रश्न 7.
जाति की सामाजिक मानवशास्त्रीय परिभाषा को सारांश में बताइए?
उत्तर:
जाति जन्म पर आधारित ऐसा समूह है जो अपने सदस्यों को खान-पान, विवाह, व्यवसाय और सामजिक संपर्क के संबंध में कुछ प्रतिबंध मानने को निर्देशित करता है।
प्रश्न 8.
‘जीवंत परंपरा’ से डी.पी.मुकर्जी का क्या तात्पर्य है? भारतीय समाज शास्त्रीयों ने अपनी परंपरा से जुड़े रहने पर बल क्यों दिया?
उत्तर:
प्रो.ए.आर. देसाई ने समाजशास्त्र में भारतीय समाज को लेकर अनेक अध्ययन किये। उन्होंने पाया कि स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिदृश्य में तेजी से रूपांतर की स्थिति उत्पन्न हुई है। भारत की जनता क रहन-सहन के परंपरागत स्तर में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दिया।
आधुनिकता के नाम पर कुछ लोगों ने परंपराओं को त्यागने का साहस तो किया पर वे भी कहीं न कहीं उसमें लिप्त रहे। भारतीय समाजशात्रियों के विषय में भी श्री देसाई के विचार यही हैं कि वे अपने अध्ययनों में भारतीय परंपराओं के प्रति जकड़े हुए हैं इससे ऊपर उठकर विचार श्रृंखला मीमांसा नही बन पाती है।
प्रश्न 9.
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रियों के मूलभूत उद्देश्य क्या होने चाहिए?
उत्तर:
डी.पी.मुखजी के अनुसार सामाजिक सामजशास्त्रियों को केवल सामजशास्त्री की सीमा तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। भारतीय सामजशास्त्रियों को लोकाचारों, जनरीतियों, रीति-रिवाजों तथा परंपराओं में भागदारी करने के साथ-साथ समाजिक व्यवस्था के अर्थ का समझन का भी प्रयास करना चाहिए।
प्रश्न 10.
डी.पी. मुखर्जी के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रियों को किन दो उपागमों के संश्लेषण का प्रयास करना होगा?
उत्तर:
डी.पी. मुखर्जी के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रियों को निम्नलिखित दो उपागमों के संश्लेषण का प्रयास करना होगा
(i) समाजशास्त्री के द्वारा तुलनात्मक उपागम को अपनाना होगा। एक यही तुलनात्मक उपागम उन विशेषताओं को प्रकाश में लाएगा जिनकी भरतीय समाज अन्य समाजों के साथ भागीदारी करता है। इस उद्देश्य को प्राप्ति हेतु समाजशास्त्री परंपरा का अर्थ समझने का लक्ष्य रखेगे। वे इसके मूल्यों तथ्य प्रतीकों का सावधानीपूवर्क परीक्षण भी करेंगे।
(ii) भारतीय समाजशास्त्री संघर्ष तथा परस्पर विरोधी शक्तियों के संश्लेषण को समझने के लिए द्वंद्वात्मक उपागम का अवलंबन करेंगे।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
भारतीय समाजशास्त्रियों का समजशास्त्री होना ही पूर्ण नहीं है, उन्हें पहले भारतीय होना चाहिए।” डी.पी. के इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
डी.पी.मुकर्जी ने भारतीय समाज के अपने सामजशास्त्रीय विश्लेषण में यह तथ्य पूर्णरूपेण स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय समाजशास्त्र के व्यापक अध्ययन हेतु विभिन्न उपागमों की आवश्यकता है। डी.पी. का स्पष्ट मत है कि भारतीय सामजिक व्यवस्था के अध्ययन हेतु एक पृथक उपागम की आवश्यकता है। यही कारण है कि डी.पी. मुकर्जी का मत है कि भारतीय समाजशास्त्रियों को केवल सामाजशास्त्री होना ही काफी नहीं है, उन्हें भारतीय भी होना चाहिए।
डी.पी. का मत है कि भारतीय समाजशास्त्रियों को भारतीय समाजशास्त्रियों को केवल सामाजशास्त्री होना ही काफी नहीं है, उन्हें भारतीय भी होना चाहिए। भारतीय समाजशास्त्रियों को निम्नलिखित दो उपगामों के संश्लेषण का प्रयास करना चहिए। प्रथम भारतीय समाजशास्त्री तुलनात्मक उमगम को अपनाएँगे। वास्तविक तुलनात्मक उपागम उन सभी विशेषताओं को स्पष्ट करेगी जो भारतीय समाज अन्य समाजों के साथ बाँटेगा। इसके साथ-साथ इसकी परंपराओं की विशेषताओं को भी बाँटेगी।
इसी दृष्टिकोण से, समाजशास्त्री परंपरा का अर्थ समझने का प्रयास करेंगे। उनके द्वारा प्रतीकों तथा मूल्यों का सावधानी पूवर्क परीक्षण किया जाएगा। द्वितीय भारतीय समाजशास्त्रीय विरोधी शक्तियों के संघर्ष तथा संश्लेषण के संरक्षण तथा परिवर्तन का समझने के लिए द्वंद्वात्मक उपागम का अवलंबन करेंगे।
प्रश्न 2.
पश्चिमी सामाजिक विज्ञान के संबंध में डी.पी.मुकर्जी के क्या विचार थे?
उत्तर:
पश्चिमी सामाजिक विज्ञान क विषय में डी.पी.मुकर्जी के विचारों का अध्ययन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) डी.पी.मुकर्ज पश्चिमी सामाजिक विज्ञानों के प्रत्यक्षवाद के पक्ष में नहीं थे। मुखर्जी का मत है कि पश्चिमी सामजिक विज्ञान ने व्यक्तियों का जैविकीय या मनोवैज्ञानिक इकाइयों तक सीमित कर दिया है. पश्चिमी देशों की औद्योगिकी संस्कृति ने व्यक्ति को आत्मकेंद्रित कर्ता बना दिया है।
(ii) डी.पी.का मत है कि व्यक्तिवाद अथवा व्यक्तियों की भूमिकाओं तथा अधिकारों को मान्यता प्रदान करके प्रत्यक्षवाद के मनुष्य को उसके सामाजिक आधार से पृथक् कर दिया है।
(iii) डी.पी. का मत है कि ‘हमारी मनुष्य की अवधारणा ‘पुरुष’ की है व्यक्ति की नहीं।’ मुखर्जी के अनुसार व्यक्ति शब्द हमारे धार्मिक ग्रंथो अथवा महर्षियों के कथनों में बहुत कम पाया जाता है। ‘पुरुष’ का विकास उसके अन्य व्यक्तियों के साथ सहयोग से तथा अपने समूह के सदस्यों के मूल्यों तथा भागीदरी से होता है।
(iv) डी.पी. क अनुसार भारत की समाजिक व्यवस्था मूलरूप स समूह, संप्रदा अथवा जाति कार्य का मानक अनुस्थापना है। यही कारण है कि आम भारतीय द्वारा नैराश्य का अनुभव नहीं किया जाता है। इस संदर्भ में डी.पी. हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों तथा बौद्धों में कोई विभेद नहीं है।
प्रश्न 3.
परंपराओं की गतिशीलता किसे कहते हैं?
उत्तर:
डी.पी.मुकर्जी के अनुसार परंपरा का तात्पर्य संप्रेषण से है प्रत्येक सामजिक परंपरा का कोई न कोई उद्गम अवश्य होता है। समाज के सभी सदस्यों द्वारा परंपराओं की ऐतिहासिकता को मान्यता प्रदान की जाती है। परंपरा के द्वारा प्रायः यथास्थिति को कायम रखा जाता है। परंपरा का रूढ़िवादी होना आवश्यक नहीं है। डी.पी. का मत है कि परंपरओं में परिवर्तन होता रहता है।
भारतीय परंपराओं में तीन सिद्धांतो को मान्यता प्रदान की गई है –
- श्रुती
- समृति तथा
- अनुभव
विभिन्न संप्रदायों या पंथो संत-संस्थापकों के व्यक्तिगत अनुभवों से सामूहिक अनुभव की उत्पत्ति होती है, जिससे प्रचलित सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था में परिवर्तन होता है। प्रेम या प्यार तथा सहजता का अनुभव या स्वतः स्फूर्त जो इन संतों तथा अनेक अनुयायिकों में पायी जाती है वह सूफी संतों में भी देखने को मिलती है। परंपरागत व्यवस्था द्वारा विरोधी आवाजों को भी सामायोजित किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप, सुविधाहीन विभिन्न समूहों की वर्ग चेतना ने जातिय व्यवस्था को जबर्दस्त चुनौती दी है।
प्रश्न 4.
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार सामाजिक वास्तविकता का अर्थ है?
उत्तर:
सामाजिक वास्तविकता के संबंध में डी.पी.मुकर्जी के विचारों का अध्ययन निम्नखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) सामाजिक वास्तविकता के अनेक तथा विभिन्न पहलू हैं तथा इसकी अपनी परंपरा तथा भविष्य है।
(ii) सामाजिक वास्तविकता को समझने के लिए विभिन्न पहलू की अंत:क्रियाओंक की प्रकृति को व्यापक तथा संक्षिप्त रूप में देखना होगा। इसके साथ-साथ परंपराओं तथा शक्तियों के अंत: संबंधों को भी भली भाँति समझना होगा। किसी विषय विशेष में संकुचित विशेषीकरण इस तथ्य का समझने में सहायक नहीं है।
(iii) डी.पी.मुखर्जी के अनुसार इस दिशा में सामजशास्त्र अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। उनका स्पष्ट मत है कि किसी अन्य सामाजिक विज्ञान की भाँति समाजशास्त्र का अपना फर्श तथा छत है। मुखर्जी का मत है कि समाजशास्त्र का फर्श अन्य सामाजिक विज्ञानों की भाँति धरातल में संबद्ध है तथा इसकी छत ऊपर से खुली हुई है।
(iv) डी.पी. मुखर्जी का. मत है कि समाजशास्त्र हमारी जीवन तथा सामाजिक वास्तविकता : का एकीकृतं दृष्टिकोण रखने में सहायता करता है। यही कारण है कि डी.पी.मुखर्जी ने सामाजिक जीवन के विस्तृत चित्र का संक्षिप्त दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि डी.पी. ने सामाजिक विज्ञनों के संश्लेषण पर निरंतर जोर दिया है। समाजशास्त्र एक समाजिक विज्ञान के रूप में विभिन्न विषयों के संश्लेषण में महत्त्वपूर्ण प्रयास कर सकता है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
भारतीय संस्कृति तथा समाज की क्या विशिष्टताएँ हैं तथा ये बदलाव के ढाँचे की कैसे प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में विषमताओं के होते हुए भी मौलिक एकता की भावना इसे संसार की अन्य संस्कृतियों से अलग रखती है। अर्थात् समुद्र के उत्तर में हिमालय के दक्षिण में जो देश है वह भारत नाम का खंड है। वहाँ के लोग भारत की संतान कहलाते हैं। भारत एक विशाल देश है। उत्तर में हिमालय पर्वत दक्षिण में तीन ओर समुंद्र हैं। इसकी भौगालिक विशेषता इसे संसार के अन्य देशों से अलग रखती है।
भारत की भौगोलिक एकता को खण्डित करने का सहास आज तक कोई शक्ति नहीं कर सकी। सांस्कृतिक एकता-भारत के विभिन्न वर्गों ने मिलकर एक ऐसी विशिष्ट और अनोखी संस्कृति को जन्म दिया है जो शेष संसार में सर्वथा भिन्न है। भारतीय संस्कृति संसार में उच्च। स्थान रखती है। भारतीय संस्कृति में एकता का आधार राजनीतिक या भौगोलिक न होकर सांस्कृतिक रहा है।
भाषागत एकता-भारत में प्रचीन काल से ही द्रविड़, आर्य, कोल, ईरानी, यूनानी हुण, शक, अरब, पठान, मंगोल, डच, फेंच, अंग्रेज आदि जातियाँ आती रही है। इन लोगों ने यहाँ की भाषा और संस्कृति को एक सीमा तक अपनाया। अधिकांश भरतीय भाषाओं पर संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। भारत में मुसलमानों के आगमन के पश्चात् उर्दू भाषा का जन्म हुआ। बंगला, तमिल, तेलगु भाषा पर भी संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता पड़ता है। भारत में प्राचीन काल से ही अनेक भाषाओं का जन्म हआ किंत उनमें किसी प्रकार का भी टकराव देखने का नही मिला।
धार्मिक एकता-भारत में विभिन्न धर्मों के मानने वाले निवास करते हैं। प्रत्येक धर्म के अपने विश्वास, रीति-रिवाज, उपासाना और पूजन विधियाँ हैं। हिंदू धर्म में ही आर्य समाजी, सनातन धर्मी, शैव, वैष्णव, नानक पंथी, कबीर पंथी आदि विभिन्न सम्प्रदान हैं, पंरतु विभिन्न मत-मतान्तरों के होते हुए भी भारत में धार्मिक एकता बनी हुई है। संविधान में भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया। सभी धर्मों क पवित्र ग्रंथो का आदर किया जाता हैं।
राजनीतिक एकता-भारत में समय-समय पर अनेक शासन प्रणालियों का प्रचलन रहा है। कि स्वतंत्रता के पश्चात् प्रजातंत्रिक शासन प्रणाली अस्तित्व में आई। अनेक राजनीतिक दल और विचारधाराओं का उदय हुआ किंतु सभी दल भारत की राजनीतिक एकता को सर्वोपरि समझते हैं। सामाजिक-आर्थिक एकता-भारत में विभिन्न धर्मों और विश्वासों को मानने वाले लोग रहते हैं। उनकी परम्पराओं और रीति-रिवाजों में अंतर है परंतु उनके परस्पर संबंधों में उदारता और भाईचारे की भावना वद्यमान है। मानव कल्याण और लोकहित की भावाना से प्ररेणा लेकर संस्कृति की एकता को सुरक्षित बनाए रखा गया है। आर्थिक विषमता के होते हुए भी आत्मसंतोष की भावना विद्यमान है।
उपयुक्त सभी विशेषताएँ भारतीय संस्कृति तथा समाज की है जबकि किसी भी समाज में परिवर्तन होता है तो उसके कुछ निर्धारित प्रारूप होते हैं यथा-समाज में हिंदी में हिंदी भाषा के स्थान पर अंग्रेजी का वर्चस्व यह प्रतिरूप समाज की भाषायी एकता को प्रभावित करता है। इसी प्रकार अन्य तत्व भी परिवर्तन के प्रारूप को प्रभावित करते हैं।
प्रश्न 2.
परंपरा तथा आधुनिकता के विषय में डी.पी.मुखर्जी के क्या विचार थे?
उत्तर:
परंपरा तथा आधुनिकता के विषय में डी.पी.मुखर्जी के विचार –
(i) परंपरा का अर्थ-प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्रीय डी.पी.मुखर्जी के अनुसार परंपरा का तात्पर्य संप्रेषण से है। प्रत्येक परंपरा का कोई न कोई उदगम स्रोत धार्मिक ग्रंथ तथा महर्षियों के कथन हो सकते हैं। परंपराओं के स्रोत कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन इनकी ऐतिहासिकता को प्राय: सभी व्यक्तियों द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है। परंपराओं को उद्धत, पुनःस्मरण किय जाता है तथा उनका सम्मान किया जाता है।
(ii) भारतीय परंपराओं की शक्ति-डी.पी.मुखर्जी के अनुसार भारतीय परंपराओं की वास्तविक शक्ति उसके मूल्यों का पारदर्शिता में पाई जाती है। इसकी उत्पति स्त्रियों तथा पुरुषों की अतीत की घटनाओं से संबद्ध जीवन पद्धतियों तथा भावनाओं से होती है, इनमें से कुछ मूल्य अच्छे तथा कुछ बुरे हैं। सोचने वाली बात यह है कि. तकनीक, प्रजातंत्र, नगरीकरण तथा नौकरशाही के नियम आदि विदेशी तत्वों मे उपयोगिता को भारतीय परंपरा में स्वीकार किया गया।
(iii) आधुनिक भारतीय संस्कृति एक आश्चर्यजनक सम्मिश्रण-डी.पी. का यह स्पष्ट मत है कि पश्चिमी संस्कृति तथा भारतीय परंपराओं में समायोजन निश्चित रूप से होगा। डी. पी.आगे कहते हैं कि भारतीय संस्कृति किसी भी दशा में समाप्त नहीं होगी। भारतीय संस्कृति की ननीयता, समायोजन तथा अनूकूलन इसके अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखेंगे। भारतीय संस्कृति ने जनजातिय संस्कृति को आत्मसात किया है, इसके साथ-साथ इसने अनेक आंतरिक विरोधों को भी अपने साथ मिलाया है। यही कारण है कि आधुनिक भारतीय संस्कृति एक आश्चर्य मिश्रण कहलाती है।
(iv) परंपरा व आधुनिकता मे द्वंद्व की स्थिति-डी.पी.का पूर्ण व्यक्ति या संतुलित व्यक्तित्व का अर्थ है –
- नैतिक उत्साह, सौंदर्यात्मक तथा बौद्धिक समझदारी का मिश्रण है।
- इतिहास एवं तार्किकता का ज्ञान। उपरोक्त कारणों से ही पंरपरा तथा आधुनिक में द्वंद्व की स्थिति बन जाती है।
(v) भारतीय परंपरा का पश्चात्य संस्कृति से सामना-डी.पी.का मत है कि भारतीय संस्कृति का पाश्चात्य संस्कृति से सामाना होने पर सांस्कृतिक अंत:विरोधों की शक्तियों को मुक्त किया जा सकता है। इस नए मध्य वर्ग को जन्म दिया है। डी.पी. के अनुसार संघर्ष तथा संशलेषण की प्रक्रिया को भारतीय समाज की वर्ग-संरचना को सुरक्षित रखने वाली शक्त्यिों को आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
प्रश्न 3.
डी.पी.मुखर्जी ने नए मध्यम वर्ग की अवधारणा की व्याख्या किस प्रकार की है?
उत्तर:
डी.पी.मुखर्जी ने नए मध्यम वर्ग को व्याख्या के संबंध में निम्नलिखित बिंदुओं पर बल दिया है –
(i) नगरीय-औद्योगिक व्यवस्था-डी.पी. मुखर्जी के अनुसार अंग्रेजों द्वारा भारत में प्रारंभ की गई नगरीय-औद्योगिक व्यवस्था न पुराने ताने-बाने को लगभग समाप्त कर दिया । नगरीय-सामज में नया सामाजिक अनुकूलन तथा समायोजन प्रारंभ हुआ। इस नए सामाजिक ताने-बाने में नगरों में शिक्षित मध्यम वर्ग समाज का मख्य बिंद बन गया।
(ii) शिक्षित मध्यम वर्ग आधुनिक सामाजिक शक्ति के ज्ञान को नियंत्रित करता है-शिक्षित मध्यम वर्ग द्वारा सामाजिक शक्ति के ज्ञान को नियंत्रित किया जाता है। इसका तात्पर्य है कि पश्चिमी देशों द्वारा प्रदत विज्ञान, तकनीक, प्रजातंत्र तथा ऐतिहासिक विकास की भावना भारत में नगरीय समाज में विज्ञान तथा तकनीकी से संबंधित समस्त विशेषताओं तथा मध्ययम वर्ग की सेवाओं के उपयोग की बात कही गई है। डी.पी. का मत है कि मुख्य समास्या इस मध्यम वर्ग के पश्चिमी विचारों तथा जीवनशैली का पूर्णरूपेण अनुकरण करना है।
यही कारण है कि इस तथ्य को प्रसन्नता अथवा तिरस्कार कहा जाए कि हमारे समाज का माध्यम वर्ग भारतीय . वास्तविकताओं तथा संस्कृति से पूर्णतया अनभिज्ञ बना रहता है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते है कि भारतीय मध्य वर्ग पश्चिमी सभयता से अधिक निकट है जबकि भारती संस्कृति तथा विचारों से उसका अलगाव जारी है।
यद्यपि मध्यम वर्ग भारतीय परंपराओं से संबंद्ध नहीं है तथापि परंपराओं मे प्रतिरोध तथा . सीखने की अत्यधिक शक्ति पायी जाती है। यह परंपराएँ मानव के भौगोलिक तथा जनकीय प्रतिमानों के आधार पर भौतिक समायोजन तथा जैविकीय आवेगा के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। इस संबंध में भारत के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यहाँ नगर-नियोजन तथा परिवार नियोजन के कार्यक्रमों परंपराओं से इतना अधिक संबंधित हैं कि नगर-नियोजन तथा समाज सुधारक इनकी अनदेखी नहीं कर सकते है।
यदि वे ऐसा करते हैं तो समस्त नियोजन तथा सुधार कार्य खतरे में पड़ जाएंगे। इस विश्लेषण के संदर्भ में कहा जा सकता है कि नगर-नियोजन भारत का मध्यम वर्ग आधुनिक भारत के निर्माण में आम जनता के नेतृत्व की स्थिति में नहीं है। मध्य वर्ग का विचार क्षेत्र परिश्मी सभयता से संबंधित रहने के कारण यह स्वदेशी परंपराओं से पृथक् हो गया है। यही कारण है कि मध्यम वर्ग का जनता से संपर्क टूट गया है।
(iii) भारत पंरपराओं से अनुकूलन करके आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है-डी.पी.मुखर्जी का मत है कि यदि मध्यम वर्ग आम-जनता से अपना संमक पुनः स्थापित करता है तो भारत परंपराओं से अनुकूलन करके आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। भारतीयों को अपनी परंपराओं के संदर्भ में न तो क्षमा याचना करने की आवश्यकता है और न ही आत्मश्यलाघा की आवश्यकता है।
उन्हें परंपराओं की जीवतंता को नियंत्रित करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए जिसे आधुनिकता द्वारा आवश्यक परिवर्तनों के साथ समायोजन कर सके। इस प्रकार व्यक्तिवाद तथा सामाजिकता में संतुलन कायम होगा। इस नूतन अनुभवों से भारत तथा विश्व लाभान्वित हो सकेंगे।
अक्षय रमनलाल देसाई – (1915-1994)
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
प्रो. देसाई के अनुसार ‘भूमि सुधारों’ में असफलता के कारण थे?
उत्तर:
प्रो. देसाई के अनुसार भूमि सुधार में असफलता के निम्न कारण थे –
- राजनीतिक संकल्प शक्ति का अभाव।
- प्रशासनिक संगठन : नीति निर्वाह के अपर्याप्त कारण।
- कानूनी बाधाएँ।
- सही एवं अद्यतन अभिलेखों का अभाव।
- भूमि सुधार को अब तक आर्थिक विकास की मुख्य धारा से अलग करके देखना।
प्रश्न 2.
प्रो. देसाई की दो प्रमुख कृतियों का उल्लेख किजिए?
उत्तर:
श्री देसाई की दो प्रमुख कृतियाँ हैं –
- Social Background of Indian Nationalism
- State and Society in Indian
प्रश्न 3.
कल्याणकारी राज्य किसे कहते हैं?
उत्तर:
प्रो.ए.आर. देसाई के अनुसार स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में कल्याणकारी राज्य की स्थापना की गई। कल्याणकारी राज्य में लोकतांत्रिक समाजवाद के चिंतन को प्रस्तुत किया गया। प्रो. देसाई के असार भारत में कल्याणकारी राज्य पूँजीवादी संरचना का मुखौटा है। कल्याणकारी राज्य में बुर्जआ वर्ग के हितों की रक्षा की जा रही है। इस प्रकार प्रो. देसाई ने कल्याणकारी राज्य को जन सामान्य के संघर्ष के क्षेत्र में एक सुनियाजित अवरोध के रूप में सामने रखा है।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
ए. आर. देसाई ने भारतीय समाजशास्त्रियों की आलोचना किस प्रकार की?
उत्तर:
प्रोफेसर ए. आर. देसाई ने संयुक्त राज्य अमेरिका तथा इंगलैंड से उधार ली गई अवधारणाओं तथा पद्धतियों के आधार पर भारतीय समाजशास्त्रियों के द्वारा सामाजिक-आर्थिक प्रघटनाओं के विशलेषण करने की प्रवृति की कड़ी आलोचना की थी। श्री देसाई के अनुसार भारत में सामाजशास्त्र मुख्यतया उधार ली हुई अवधारणाओं और पद्धतियों का अनुशासन है।
और यह उधार पश्चिमी देशों विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैंड के परम प्रतिष्ठत केंद्रों से लिया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि परम प्रतिष्ठित मॉडलों का पीछा करते हुए छद्म बुद्धि व्यापार के दलदल में आत्मलाप है। प्रो.ए.आर. देसाई ने बौद्धिक चेतना एवं विश्लेषण के एक नवीन क्षितिज का सृजन किया। समाजशास्त्रीय विचारों की श्रृंखला को एक नई उष्मा प्रदान की। स्पष्ट है कि जनसाधारण के संघर्ष से समाजशास्त्र के विकास में प्रो. देसाई का योगदान अतुलनीय है।
प्रश्न 2.
देसाई की सार्वजनिक क्षेत्र की अवधारणा क्या है?
उत्तर:
प्रो.ए.आर. देसाई ने सार्वजनिक क्षेत्र की अवधारणा को स्पष्ट किया है। वास्तव में अनेक देशों में पूँजीवादी संरचना क विकल्प के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र को प्राथमिकता दी जा रही है। जब सरकारी तथा अर्द्धसरकारी स्तर पर उत्पादन के विभिन्न साधनों एवं संगठनों पर नियंत्रण किया जाता है, उसका राष्ट्रीयकरण किया जाता है तो उसमें सार्वजनिक क्षेत्रों का एक स्वरूप निर्मित हा जाता है। जैसे भारत में 1970 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
प्रिवीपर्स को समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार देश में सार्वजनिक क्षेत्र को महत्त्व देने का प्रयास किया गया। प्रो.ए.आर. देसाई ने अपनी पुस्तक Indian’s path of Development Amarxist Apporach में सार्वजनिक क्षेत्रों का मूल्यांकन किया है। श्री देसाई के अनुसार भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का संतुलित विकास नहीं हुआ है। इस कारण पूंजीपतियों को निरंतर प्रश्रय प्राप्त होता रहता है।
प्रश्न 3.
ए. आर देसाई के समाजशास्त्रीय योगदानों को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
डॉ. योगेन्द्र सिंह ने तुलनात्मक विश्लेषणों के आधार पर प्रो.ए.आर देसाई के समाजशास्त्रीय योगदान का मूल्यांकन किया है। योगेन्द्र सिंह ने निम्न बिंदुओं के आधार पर प्रो. देसाई के महत्त्व को स्पष्ट किया है।
(i) प्रो. योगेन्द्र सिंह के अनुसार सामाजिक अध्ययनों के मार्क्सवादी प्रतिमानों का विकास विशेषकर युवा समाजशास्त्रियों में देखा जाता है। 1950 के दशक में यह दृष्टिकोण अस्तित्व में था लेकिन वह इतना नहीं था उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि डी.पी.मुखर्जी ने सामाजिक विश्लेषणों में मार्क्सवादी दृष्टिकोण के स्थान पर शास्त्रीय दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी थी इस दृष्टिकोण में भारतीय आदर्शों और परंपराओं के साथ द्वंद्वात्मक को तर्क संलग्न किया गया था।
(ii) अपने आरंभिक अध्ययनों में समाजशास्त्रीय रामकृष्ण मुखर्जी ने मार्क्सवादी परंपराओं की बहुत-सी श्रेणीयों और संचालनों का उपयोग किया। लेकिन कालान्तर में, समाजशास्त्र में मार्क्सवादी पद्धतियों को 1950 के दशक की पीढ़ी के समाजशास्त्रियों के मध्य अकेले ए.आर. देसाई ने ही सामजशास्त्र में समान रूप से प्रचारित और प्रयुक्त किया था।
(iii) भारतीय समाजशास्त्र के जिज्ञासात्मक विषय की जड़े व्यापक दृष्टिकोण से मुख्यतः संरचनात्मक, प्रकार्यात्मक अथवा कुछ अर्थों में संरचनात्मकता और ऐतिहासिक संरचनात्मक प्रतिमानों में पाई जाती थीं। यह भारतीय समाजशास्त्र पर ब्रिटिश और अमेरिकी समाजशास्त्री परंपराओं के प्रभाव को स्पष्ट करता है। 1970 और 1980 के दशक के मध्य ये परंपराएँ पाई जाती थीं। इस प्रकार प्रो, योगेन्द्र सिंह न ए.आर. देसाई की सामजशास्त्रीय दृष्टि का तुलनात्मक विश्लेषण किया है।
प्रश्न 4.
ए.आर. देसाई का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
भारतीय सामाजशास्त्रीय अक्षय रमनलाल देसाई का जन्म सन् 1915 में हुआ था। आपकी प्रारंभिक शिक्षा, बड़ौदा, सूरत तत्पश्चात् मुम्बई में संपन्न हुई। आप ऐसे पहले भारतीय समाजशास्त्री थे जो सीधे तौर पर किसी राजनीतिक दल के औपचारिक सदस्य थे। आप जीवन । भर मार्क्सवादी रहे। आप मार्क्सवादी राजनीति में भी सक्रिय रूप से भाग लेते रहे।
श्री देसाई के पिता मध्यवर्गी समाज का प्रतिनिधित्व करने वाल व्यक्ति थे और बड़ौदा राज्य के लोक सेवक थे। वे एक अच्छे उपन्यासकार भी थे। वे समाजवाद, भारतीय राष्ट्रवाद और गाँधी जी की विभिन्न गतिविधियों में रुचि रखते थे। श्री देसाई की माता का देहांत जल्दी हो गया था। श्री देसाई ने अपने पिता के साथ प्रवसन का जीवन अधिक व्यतीत किया, क्योंकि उनके पिता का स्थानांतरण निरंतर होता रहता था।
श्री देसाई का 1948 में पी. एच. डी. की उपाधि मिली। आपकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
- Social Background of Indian Nationalism
- Peasant Struggles in India
- Agraian Struggles in India
- State and Society In India
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
प्रो. ए. आर देसाई के समाजशास्त्रीय विचारों को संक्षेप मे लिखिए?
उत्तर:
प्रो. ए. आर देसाई अपने आप में एक विशिष्ट भारतीय समाजशास्त्री हैं जो सीधे तौर पर एक राजनैतिक पार्टी से जुड़े थे और उसके लिए कार्य करते थे। भारतीय समाजशास्त्र में प्रो. देसाई का अवदान अविस्मरणीय है। प्रो. देसाई ने जन-संघर्ष तथा विक्षोभ के वैचारिक आयाम को भारतीय समाजशास्त्र की चिंतन परिधि में एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया एक चेतना संपन्न विचारक के रूप में उन्होंने विश्व की प्रमुख घटनाओं तथा मुद्दों का गंभीर अध्ययन किया।
उन्होंने भारतीय सामजिक संरचना मं पाए जाने वाले शोषण तथा सामाजिक मतांतरों का सूक्ष्म विश्लेषण किया। सामाजिक-आर्थिक ऐसी राजनीतिक प्रघटनाओं के विश्लेषण में प्रोफेसर ए.आर. देसाई ने उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों एवं स्रोतों को प्रयुक्त किया। पूँजीवाद आर्थिक संरचना तथा श्वेत वसन राजनीतिक व्यवस्था के नकाब को उतारकर रख दिया। भारतीय समाजशास्त्र के विस्तृत आयाम पर प्रोफेसर देसाई ने अध्ययन एवं अनुसंधान को एक सर्वथा नवीन दिशा एवं दृष्टि प्रदान की। परिवार, नातेदारी, जाति, विवाह, धर्म तथा संघर्ष के समाजशास्त्र को मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर एक नवीन ऊर्जा तथा एक नवीन उष्मा प्रदान की। प्रोफेसर ए. आर. देसाई ने लिखा है।
“सामाजिक विज्ञान के अभ्यासियों को गंभीर बौद्धिक तथा नैतिक धर्म संकट का सामना करना पड़ेगा या तो वे देश के शासक के तरीकों को सही सिद्ध करते हए अपने लिए सुरक्षा और सम्मान का इंतजाम करें, या हिम्मत बाँधकर और नतीजों का सामना करने के लिए तैयार होकर ऐसा नजरिया अपनाएँ जो विकास के पूंजीवाद रास्ते को अपनानी वाली सरकार के नेतृत्व में काम करती शक्तियों के खिलाफ संघर्ष करते हुए दुख भोगते लोगों के लिए उपयोगी ज्ञान को प्रजनित करें तथा उसका प्रचार-प्रसार करें। उनका संघर्ष पूंजीवादी रास्ते के परिणामों के असर को दूर करने के लिए और उनके विपरित विकास के गैर-पूँजीवादी रास्ते के लिए स्थितियाँ तैयार करने के लिए होगा।
इससे भारत में काम काजी लोगों की विशाल संख्या की उत्पादत क्षमता मुक्त हो जाएगी और सम्मान वितरण संभव होगा।” प्रोफेसर ए.आर. देसाई ने पूँजीवादी आर्थिक संरचना, साम्राज्यवाद एवं दमनकारी शक्तियों के विरुद्ध सामजशास्त्रीय चिंतन परिधि के आधार पर विचार प्रकट किए। उन्होनें साभजशास्त्रीय अध्ययन तथा अनुसंधान को जनसंघर्ष के साथ जोड़ा तथा जन-विक्षोभ के विविध आयामों को वैज्ञानिक दृष्टि दी। उन्होनें स्वतंत्र भारत में परिवर्तन तथा विकास की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत की।
साथ ही पंचवर्षीय योजनाओं, कृषि समस्याओं, विकास कार्यक्रमों, ग्रामीण संरचनाओं एवं लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का गहन एवं गंभीर विश्लेषण किया उनके अनुसार स्वतंत्र भारत में रज्य की प्रकृति तथा समाज के प्रकार के विश्लेषण में बौद्धिक जगत से जुड़े लोग असफल रहे हैं तथा विद्वानों द्वारा निरंतर जन-संघर्ष के केन्द्रीय बिंदु की उपेक्षा की गई। उन्होंने जन-अहसमति, कल्याणकारी राज्य, भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व, भरतीय राष्ट्रवाद, संक्रमण स्थिति में भारतीय ग्रामीण समुदाय तथा महात्मा गाँधी के सत्य एवं अहिंसा के सिद्धांतों का आलोचनात्मक परीक्षण किया। उन्होंने अपने विचार तथा चिंतनों के आधार पर सत्ता एवं व्यवस्था का पोषण नहीं किया।
काल्याणकारी राजय के नाम पर पूंजीवादी आर्थिक संरचना के संपोषण की प्रवृति का उन्होंने खलासा किया। एक विद्रोही समाजशास्त्री के रूप में. एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी चिंतक के रूप में तथा जन-असहमति एवं जन संघर्ष के मुद्दों से जुड़े एक प्रखर समाजशास्त्री के रूप में प्रोफेसर ए.आर. देसाई का नाम विचारों की दुनिया में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। उन्होंने भारत में राजनीति तथा विकास के विविध आयामों के लिए सामजशास्त्रियों को उत्प्रेरित किया। उन्होंने कल्याणकारी राज्य, संसदीय लोकतंत्र, राजनीति तथा विकास के अध्ययन हेतु ऐतिहासिक भौतिकवाद के आधार पर भारत में राज्य तथा समाज का विश्लेषण किया। साथ ही, समाजशास्त्रीय नजरिये की एक नई उत्तेजना प्रदान की। सामजशास्त्रीय अध्ययन को बहस का विषय बनाया।
क्या मौजूदा समाजशास्त्रीय अध्ययन पिछड़ापन, गरीबी तथा असमानता के समाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है, क्या भरतीय समाज में तेजी से हो रहे रूपांतरणों की केन्द्रीय प्रवृति को रेखांकित करने में मौजूदा समाजशास्त्रीय अन्वेषण सक्षम है? क्या गरीबों के हक में हस्तक्षेप करने की ताकत सामज शास्त्र में पैदा की जा सकी है? प्रोफेसर देसाई ने स्पष्ट किया कि भारतीय परिदृश्य में समाजशास्त्रीय विश्लेषणों तथा उपागमों पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा सकता है।
प्रश्न 2.
कल्याणकारी राज्य क्या है? ए. आर देसाई इसके द्वारा किए गए दावों की आलोचना क्यों करते हैं?
उत्तर:
प्रो. देसाई अपनी कृति State and Society in India के कल्याणकारी राज्य की अवधारणा प्रस्तुत की है लोक-कल्याणकारी राज्य किसी अहस्तक्षेपी राज्य से भिन्न है। राज्य का अस्तक्षेपी रूप तो केवल एसे कार्य सम्पादित करता है जो पुलिस कार्य कहलाते हैं, जैस-सुरक्षा कानून व्यवस्था? सम्पत्ति का संरक्षण तथा अनुबंधों का प्रयर्तन । इसके अतिरिक्त अस्तक्षेपी राज्य व्यक्ति के अन्य कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता जबकि लोक-कल्याणकारी राज्य उपरोक्त कार्यों के साथ-साथ जन स्वास्थ का भी ध्यान रखता है। वे ऐसी बुनियादी सुविधाएँ भी सुलभ कराता है, जिससे लोगों में राज्य के मामलों का प्रभावी भागीदारी निभाने के लिए आवश्यक न्युनतम शिक्षा का लाभ अवश्य पहुँचे।
इसके अतिरिक्त लोक-कल्याणकारी राज्य तो अनिवार्यात: नागरिकों को काम का अधिकार, निश्चित निर्वाह आय का अधिकार तथा आश्रय पाने का अधिकार सुलभ कराना होता है। बेरोजगारों के निर्वाह भत्ता देना भी ऐसा ही राज्य का दायित्व है। सभी को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए लोक कल्याणकारी राज्य मानव अधिकारों में आस्था रखता है। वह आवश्यक रूप से मानव जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता लेकिन आर्थिकता, निर्धनता, बीमारी तथा अन्य सामाजिक बुराईयों को दूर करने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार अहस्तक्षेपी राज्य एक नकारात्मक राज्य हैं जो सुरक्षात्मक (पुलिस कार्य) करता है, जबकि लोक कल्याणकारी सकारात्मक राज्य हैं जो विकास कार्य करता है।
मैसूर नरसिहाचार श्रीनिवास – (1916 – 1999)
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
श्री.एम.एन. श्री निवास के समाजशास्त्रीय योगदान को दर्शाने वाले दो बिन्दु लिखिए।
उत्तर:
समाजशास्त्री पी.सी. जोशी ने लिखा है कि एम.एन.श्री निवास ने मनुवाद का विरोध किय तथा बड़ौदा विश्वविद्यालय क प्रमुख शिक्षाविद् प्रो.के.टी.शाह के इस प्रास्तव को ठुकरा दिया कि समाजशास्त्र मनु के धर्मशास्त्र का अध्ययन आवश्यक है। एम.एन.श्री निवास ने 1996 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘इंडियन सोसाइटी’ श्रू पर्सनल राइटिंग्स में यह स्पष्ट किया कि समाजशास्त्र के अंतर्गत सामाजिक प्रघटनाओं के विश्लेषण हेतु वैज्ञानिक पद्धति आवश्यक है।
एम.एन. श्रीनिवास ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय विद्याशास्त्र तथा समाजशास्त्र को पर्यायवाची शब्द के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। भारतीय विद्याशास्त्र तथा समाजशास्त्र में बहुत अंतर है। उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की कि समाजशास्त्रीय परिदृश्य में भारतीय विद्याशास्त्र को समाजशास्त्र के रूप में गहण करने की दोषपूर्ण प्रवृति रही है। एम.एन. श्री निवास ने यह भी स्पष्ट किया है कि सामजशास्त्रीय अध्ययन एवं अनुसंधान हेतु समाजशास्त्रियों को आम जनता के बीच जाना ही होगा। इस प्रकार उन्होंने क्षेत्रीय शोध कार्य के महत्व को रखांकित किया। पुस्तकों, अभिलेखों, पुरात्वों तथा अन्य संबंधित सामग्रियों का उपयोग द्वितीयक स्रोत के रूप में किया जा सकता है।
सामाजिक वास्तविक्ता एवं सामाजिक प्रघटनाओं के अध्ययन के लिए सुदूर नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अध्ययन के आधार पर ही प्रामाणीक तथ्यों का विश्लेषण वैज्ञानिक औचित्य एवं वस्तुनिष्ठ पद्धतियों के आधार पर संभव है । इस प्रकार उन्होंने पुस्तकीय परिपेक्ष्य को विशेष महत्त्व प्रदान नहीं किया।
प्रश्न 2.
एम. एन. श्रीनिवास की प्रमुख कृतियाँ कौन सी हैं?
उत्तर:
- ‘रिलीजन एंड सोसाइटी अमंग दि कुर्गस ऑफ साउथ इंडिया’ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, लंदन, 1952 ।
- ‘मेथड इन सोशल एंथ्रोपॉलोजी’ यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो प्रेस, शिकागो, संपादित, 19581 ।
- सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया’ लॉस एंजिलल्स कैलीफोर्निया, 1996 ।
- ‘कास्ट इन मॉडर्न इंडिया एंड अदर एशज’ मुम्बई एलाइड पब्लिशर्स, 1962 ।
- ‘द रिमेम्बर्ड विलेज’, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1976 ।
- ‘द डोमिनेण्ट कास्ट एंड अदर एशेज’ आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1987 ।
- द कोहेसिव रोड ऑफ.संस्कृताइजेशन’ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1989 ।
- ऑन लिविंग इन ए रिवोल्यूशन एंड अदर एशेज’, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1992 1
- इंडयन सोसाइटी श्रू पर्सलन राइटिंग्स’, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 19961 ।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
पाश्चात्यीकरण की अवधारणा की व्याख्या कीजिए?
उत्तर:
सामजशास्त्री डॉ. श्री निवास के पश्चिमीकरण की अवधारणा को लोकप्रिय बनाया है। पश्चिमीकरण के संदर्भ में उनका विचार है कि “पश्चिमीकरण शब्द अग्रेजों के शासन काल के 150 वर्षों से अधिक के परिणामस्वरूप भारतीय समाज व संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों को व्यक्त करता है और इस शब्द में प्रौद्योगिकी संस्थाओं, विचारधारा, मूल्यों आदि के विभिन्न स्तरों में घटित होने वाले परिवर्तनों का समावेश रहता है।”
पश्चिमीकरण का तात्पर्य देश में उस भौतिक सामाजिक जीवन का विकास होता है जिसके अंकुर पश्चिमी धरती पर प्रकट हुए और पश्चिमी व यूरोपीय शक्तियों के विस्तार के साथ-साथ विश्व के विभिन्न कोनों में अविराम गति से बढ़ता गया। पश्चिमीकरण को आधुनिकीकरण भी कहते हैं लेकिन अनेक समस्याएँ होते हुए भी पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण के निए पश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से संपर्क होना आवश्यक है। पश्चिमीकरण एक तटस्थ प्रक्रिया है।
इसमें किसी संस्कृति के अच्छे या बुरे होने का अभास नहीं होता। भारत में पश्चिमीकरण के फलस्वरूप जाति प्रथा में पाये जाने वाले ऊँच-निच के भेद समाप्त हो रहे हैं। नगरीकरण ने जाति प्रथा पर सिधा प्रहार किया हैं। यातायात के साधनों के विकसित होने से, अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से सभी जातियों का रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज आदि एक जैसे हो गये है। महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार आ रहा है। भारतीय महिलाओ पर पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ा है। विवाह की संस्था में अब लचीलापन देखने को मिलता है । विवाह पद्धति में परिवर्तन आ रहे हैं बाल विवाह का बहिष्कार बढ़ रहा है। अन्तर्जातीय विवाह नगरों में बढ़ रहे है। संयुक्त परिवार प्रथा का पालन भी देखने को मिल रहा है। रीति-रिवाजों और खान-पान भी पश्चिमीकरण से प्रभावित हुआ है।
प्रश्न 2.
समाजशास्त्रीय शोध के लिए गांव को एक विषय के रूप में लेने पर एम.एन. श्री निवास तथा लुई ड्यूमों ने इसके पक्ष में क्या तर्क दिए हैं?
उत्तर:
लई ड्यूमों और एम.एन. श्री निवास दोनों ही भारतीय समाजशास्त्री हैं। दोनों ने ही अनेक विषयों पर समाजशास्त्रीय अन्वेषण किया है। दोनों ने ही ‘ग्राम’ पर भी अपने विचार प्रकट किए है। ‘ग्राम’ को समाजशास्त्रीय अन्वेषण का विषय बनाने के संदर्भ में दोनों ने निम्न तर्क प्रस्तुत किए है: ग्रामीण जीवन कृषि पर आधारति है कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें सारा ग्राम कृषि समुदाय एक-दूसरे पर निर्भर करता है। सभी लोग फसलों की बुआई, कटाई आदि में एक-दूसरे।
का सहयोग करते हैं। ग्रामीण जीवन में सरलता और मितव्ययता एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। ग्रामों में अपराध और पथभ्रष्ट व्यवहार जैसे चोरी, हत्या, दुराचार आदि बहुत कम होते हैं क्योंकि ग्रामीण में बहुत सहयोग होता है। वे भगवान से भय खाते हैं और परम्परावादी होते हैं ग्रामीण लोग नगरों की चकाचौंध और माह से कम प्रभावित होते हैं और साधारण जीवन व्यतीत करते हैं। उनके व्यवहार और कार्यकलाप गाँव की प्रथा, रूढ़ि, जनरीतियों आदि से संचालित होते हैं। उनकी इसी सहजता के कारण वे समाजशास्त्री अन्वेषण में बहुत सहयोग देते हैं।
प्रश्न 3.
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
समाजशास्त्री एम.एन. श्री निवास के अनुसार, “संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई जनजाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज, धर्मकांड, विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलता संस्कृतिकरण में नए विचारों और मूल्यों को ग्रहण किया जाता है। निम्न जातियाँ अपनी स्थिति को ऊपर उठाने के लिए ब्राह्माणों के तौर तरीकों को अपनाती हैं और अपवित्र समझे जाने वाले मांस मंदिरा के सेवन को त्याग देती हैं। इन कार्यों से ये निम्न जातियाँ स्थानीय अनुक्रम में ऊँचे स्थान की अधिकारी हो गई है। इस प्रकार संस्कृतिकरण नये और उत्तम विचार, आदर्श मूलय, आदत तथा कर्मकांडों को अपनी जीवन स्थित को ऊँचा और परिमार्जित बनाने की क्रिया. है।
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में स्थिति में अपरिवर्तित होता है। इसमें संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता है। इसमें संरचनात्मक परिवर्तन नही होता। जाति व्यवस्था अपने आप नहीं बदलती। सस्कृतिकरण की प्रक्रिया जातियों में ही नहीं बल्कि जनजातियों और अन्य समूहों में भी पाई जाती है। भरतीय ग्रामीण समुदायों में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में प्रभुजाति की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। वे संस्कृतिकरण करने वाली जातियों के लिए संदर्भ भूमिका का कार्य करती है।
यदि किसी क्षेत्र में ब्रह्मणों प्रभु जाति है तो वह ब्राह्मणवादी विशेषताओं को फैला देगा। जब निचली जातियाँ ऊँची जातियों के विशिष्ट चरित्र को अपनाने लगती हैं तो उनका कड़ा विरोध होता है। कभी-कभी ग्रामों में इसके लिए झगड़े भी हो जाते हैं। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया बहुत पहले से चली आ रही है। इसके लिए ब्राह्मणों का वैधीकरण आवश्यक था।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
समाज के स्तरीकरण में जाति का आधार स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
जाति एक ऐसे पदसोपानीकृत संबंध को बताती है जिसमें व्यक्ति जन्म लेते है तथा जिसमें व्यक्ति का स्थान, अधिकार का स्थान, अधिकार तथा कर्तव्य का निर्धारण होता है। व्यक्तिगत उपलब्धियाँ तथा गुण व्यक्ति की जाति में परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। जाति व्यवस्था वस्तुतः हिंदू सामजिक संगठन का आधार हैं।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजशास्त्री लुई ड्यूमों ने अपनी पुस्तक होमा हाइरारकीकस में जाति व्यवस्था का प्रमुख आधार शुद्धता तथा अशुद्धता की अवधारणा होता है । ड्यूमों ने पदसोपानक्रम को जाति व्यवस्था की विशेषता माना है।
प्रारंभ मे हिंदू समाज चार वर्गों में विभाजित था :
- ब्राह्मण
- क्षत्रिय
- वैश्य तथा
- शूद्र
शुद्धता तथा अशुद्धता के मापदंड पर ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च तथ शुद्र का निम्न होता है। वर्ण व्यवस्था मे पदानुक्रम क्षत्रियों का द्वितीय तथा वैश्य का तृतीय स्थान होता है। एम.एन.श्री निवास के अनुसार जिस प्रकार जाति व्यवस्था की इकाई कार्य करती है, उस संदर्भ में वह जाति है, वर्ण नहीं है हालांकि, जाति-व्यवस्था के लक्षणों को वर्ण व्यवस्था से ही लिया गया है लेकिन वर्तमान संदर्भ में जाति प्रारूप अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। एम.एन. श्रीनिवास ने जाति की परिभाषा करते हुए कहा है कि:
- जाति वंशानुगत होती है।
- जाति अंतः विवाही होती है।
- जाति आमतौर पर स्थानीय समूह होती है।