Bihar Board Class 9 Hindi Book Solutions Godhuli Bhag 1 पद्य खण्ड Chapter 1 रैदास के पद Text Book Questions and Answers, Summary, Notes.
BSEB Bihar Board Class 9 Hindi Solutions पद्य Chapter 1 रैदास के पद
Bihar Board Class 9 Hindi रैदास के पद Text Book Questions and Answers
प्रश्न 1.
रैदास ईश्वर की कैसी भक्ति करते हैं?
उत्तर-
महाकवि रैदास ईश्वर-भक्ति में आडंबर को तरजीह नहीं देते। वे निर्गुण भक्ति की सार्थकता सिद्ध करते हैं। उनकी दृष्टि में ईश्वर की पूजा-अर्चना के लिए चढाए, जाने वाले फल फल एवं जल निरर्थक हैं। इनका कोई सही प्रयोजन नहीं। ये जूठे एवं गँदले हैं। इसीलिए रैदासजी कर्मकांडी आडंबर से मुक्त निर्मल मन से अन्तर्मन में ही ईश्वर की आराधना करना चाहते हैं। वे अपने हृदय और मस्तिष्क से ईश्वर के सहज और स्वच्छ छवि को ही प्रणम्य करते हैं।
प्रश्न 2.
कवि ने ‘अब कैसे छूटै राम राम रट लागी’ क्यों कहा है?
उत्तर-
संत कवि रैदास ईश्वर की भक्ति में स्वयं को भूल जाते हैं। वे कहते हैं कि रामनाम की.रट’ की लत मुझे लग गयी है। अब इससे मुक्ति कहाँ? अब ‘राम’ से संबंध कैसे छूट सकता है। कहने का आशय है कि रैदास का सारा जीवन राममय ही हो गया है। मनसा-वाचा-कर्मणा वे राम की शरण में स्वयं समर्पित कर चुके हैं। इस प्रकार रैदास की भक्ति निष्कलुष एवं निर्मल है।
प्रश्न 3.
कवि ने भगवान और भक्त की तुलना किन-किन चीजों से की
उत्तर-
संत शिरोमणि कवि रैदास स्वयं को भक्त के रूप में भगवान के साथ तुलना करते हुए अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। रैदासजी को रामनाम की रट लग चुकी है। वे भगवान को चंदन, घन, दीपक, मोती, स्वामी के रूप में तुलना करते हुए महिमा गान करते हैं। भक्त के लिए कवि ने पानी, मोर, बाती, धागा एवं दास शब्द का प्रतीक रूप में प्रयोग किया है। इस प्रकार ईश्वर की महिमा एवं भक्त की भक्ति दोनों में समन्वय दिखाते हुए तुलनात्मक प्रयोग द्वारा कविता की रचना की है।
प्रश्न 4.
कवि ने अपने ईश्वर को किन-किन नामों से पुकारा है?
उत्तर-
महाकवि रैदास अपने ईश्वर को चंदन के नाम से, बादल के रूप में, दीपक के नाम से, मोती के नाम से एवं सबसे अंत में स्वामी के नाम से पुकारते हैं यानि भक्ति-भाव प्रकट करते हैं। इन पंक्तियों में रैदास जी निर्मल, निश्छल एवं निराकार भाव से ईश्वर के प्रति समर्पण भाव रखते हुए भक्ति में तल्लीन रहते हैं। दासत्व भाव में सहजता, निष्कलुषता है।
प्रश्न 5.
कविता का केन्द्रीय भाव क्या है?
उत्तर-
महाकवि रैदास जी की दोनों (1, 2) कविताओं में निर्गुण ईश्वर भक्ति की झलक मिलती है। अन्तर्मन में ही ईश्वर भक्ति के प्रति वे अटूट आस्था रखते हैं। आडंबरहीन निर्मल, निष्कलुष भक्ति में वे विश्वास रखते हैं। कवि का हृदय गंगा की तरह पवित्र है। वह प्रतीकात्मक प्रयोगों द्वारा ईश्वर और भक्त के पवित्र संबंधों की सटीक व्याख्या करते हैं। कवि का ईश्वर किसी मंदिर-मस्जिद में नहीं बल्कि उसके अंतस में सदा विद्यमान रहता है। कवि हर हाल, हरकाल में ईश्वर को श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न मानता है। ईश्वर कवि के लिए प्रेरक-तत्व के रूप में कविता में दृष्टिगत होते हैं।
दूसरी कविता में कवि निर्गुण भक्ति की श्रेष्ठता एवं सगुण भक्ति और कर्मकांड की निरर्थकता की ओर सबका ध्यान आकृष्ट करते हैं। बाहरी फल-फूल, जल ये अशुद्ध एवं बेकार चीजें हैं। रैदास जी मन ही मन में ईश्वर भक्ति में रत रहना चाहते हैं। उनका ईश्वर निराकार एवं सहज स्वरूप वाला है। कहीं कोई दिखावटीपन नहीं, राग-भोग की जरूरत नहीं। केवल मनसा-वाचा-कर्मणा निर्मल भक्तिभाव में वे विश्वास करते हैं।
प्रश्न 6.
“मलयागिरि बेधियो भुअंगा।
विष अमृत दोऊ एकै संगा।” इस पंक्ति का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर-
महाकवि रैदास ने उपरोक्त पंक्तियों में विष-अमृत दोनों एक संग वास करते हैं के भाव को प्रकट करते हुए ईश्वर की महिमा का गुणगान किया है।
कवि का कहना है कि मलयागिरि पर्वत पर चंदन के अनेक वन हैं यानि वहाँ चंदन ही चंदन के वृक्ष दिखायी पड़ते हैं। उस चंदन वृक्ष में अपने अंग को लपटे हुए विषधर सर्प वास करते हैं किन्तु दोनों की प्रकृति और कर्म में कोई अंतर या बाधा नहीं उपस्थित होती, यह ईश्वर की महिमा का ही कमाल है। उसी प्रकार रैदास भी अपने को ईश्वर के आगे तुच्छ ही समझते हैं क्योंकि इनके मन में भी राग-द्वेष रूपी विष भरा हुआ है।
इन पंक्तियों के द्वारा ईश्वर महिमा एवं भक्ति की महत्ता को दर्शाया गया है। जिस प्रकार चंदन के पेड़ से लिपटे हुए विषधर उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते दोनों को साथ-साथ रहने में कोई खतरा नहीं है, इसके पीछे प्रकृति या ईश्वर की ही कृपा है। ठीक उसी प्रकार, रैदास जैसे विष युक्त मनुष्य का भी बिन ईश्वर भक्ति के मुक्ति संभव नहीं।
प्रश्न 7.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए
(क) जाकी अंग-अंग बास समानी
(ख) जैसे चितवत चंद चकोरा ।
(ग) थनहर दूध जो बछरू जुठारी
उत्तर-
(क) प्रस्तुत पंक्तियों में संत कवि रैदास प्रभु की महिमा का गान करते हुए कहते हैं-हे प्रभु! तुम चंदन हो और मैं पानी हूँ। तुम्हारे चंदन रूपी भक्ति के वास से सारा शरीर पवित्र एवं निष्कलुष हो जाता है। जैसे चंदन के महक से सारा वातावरण सुगंधित होकर महक उठता है। सारी प्रकृति सुवासित हो उठती है ठीक उसी प्रकार ईश्वर भक्ति भी है। ईश्वर भक्ति की सुगंध से मनुष्य का कर्म और जीवन सार्थक बन जाता है यानि मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार ईश्वर भक्ति की महिमा अपरम्पार है। बिनु ईश्वर भक्ति के यह जीवन निरर्थक एवं निष्क्रिय बन जाता है।
(ख) प्रस्तुत पंक्तियों में महाकवि रैदास ने स्वयं को प्रभु के चरणों में रखकर तुलना करते हुए भक्ति भाव को प्रकट करते हैं। कवि कहता है कि हे प्रभो! जैसे चकोर चंद्रमा को अपलक निहारता रहता है ठीक वही हाल मेरा है। मैं भी चकोर की भाँति अपलक आपकी छवि, मन ही मन निरखता हूँ यानि नाम रट करते रहता हूँ। यानि मेरी भक्ति भी चकोर की अपलक सदृश है यानि अभंग है।
(ग) प्रस्तुत पंक्तियों में महाकवि रैदास ने ईश्वर भक्ति की महिमा का गान करते हुए तुलनात्मक चित्रण किया है। कवि कहता है कि जिस प्रकार गाय के थन में मुँह लगाकर बछरु दूध पीता है और थन को जूठा कर देता है फिर भी उसमें शुद्धता है, निर्मलता है। क्योंकि गाय और बछड़े का संबंध आत्मीय संबंध है। राग-द्वेष एवं विवाद रहित संबंध है। माँ-बेटे का संबंध है। ठीक उसी प्रकार भगवान और भक्त का भी संबंध अटूट, पवित्र और राग-द्वेष रहित, विकार रहित रहता है। भक्त भगवान के लिए बछड़े के समान है यानि पुत्र की भाँति है। उसकी अशुद्धता, अज्ञानता या भूलों का ख्याल नहीं किया जाता क्योंकि वह समर्पण भाव से भक्ति रस में डूबा रहता है। इस प्रकार रविदास जी ने भक्त की दैन्यता, सहजता, आत्मनिवेदन, हृदय की निर्मलता के आधार पर सिद्ध करना चाहा है कि ईश्वर भक्ति में लीन भक्त की भूलें क्षम्य है। भक्त के लिए भगवान एवं भगवान के लिए भक्त दोनों की अनिवार्यता महत्वपूर्ण है।
प्रश्न 8.
रैदास अपने स्वामी राम की पूजा में कैसी असमर्थता जाहिर करते हैं?
उत्तर-
भक्तराज रैदास का हृदय पवित्र है, दोषरहित है। ईश्वर भक्ति में सराबोर है। वे भगवान से कहते हैं कि हे राम आपकी पूजा मैं कैसे चढ़ाऊँ? कहने का अर्थ यह है कि रैदास के पास फल-फल जल नहीं है। भक्त सांसारिक राग-भोग की वस्तुओं को जुटा पाने में असमर्थ है। अतः वह राम की पूजा करने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं। कहने का आशय है कि बाहरी आडंबर में कवि विश्वास नहीं करता। वह शुद्ध मन से निर्गुण पूजा में विश्वास करता है। उसी पवित्रता एवं राग-द्वेष रहित भाव के कारण पूजा सामग्रियों की चर्चा करते हुए अपनी असमर्थता को प्रकट किया है।
प्रश्न 9.
कवि अपने मन को चकोर के मन की भाँति क्यों कहते हैं?
उत्तर-
महाकवि रैदास ने अपने मन को चकोर के मन के समान कहा है। कहने का आशय है कि जिस प्रकार चकोर अपलक भाव से चाँद को देखा करता है, निहारा करता है ठीक उसी प्रकार रैदास भी अपनी भक्ति में तल्लीन रहते हुए प्रभु श्रीराम के चरणों में मनसा-वाचा कर्मणा समर्पित भाव से लगे रहते हैं। दोनों की प्रकृति एवं कर्तव्यनिष्ठता में समता है। इसी कारण चकोर की दृष्टि चाँद को भी अपलक देखने में लगी रहती है। चकोर के लिए जिस प्रकार चाँद प्रिय है ठीक उसी प्रकार रैदास के लिए राम प्रिय है। यहाँ कवि की कविता का भाव मन की एकाग्रता एवं एकनिष्ठ भक्ति से है।
प्रश्न 10.
रैदास के राम का परिचय दीजिए।
उत्तर-
महाकवि रैदास ने राम का परिचय निर्गुण रूप में दिया है यानि अपनी कविता में उन्होंने आडंबर रहित और निर्मल स्वरूप वाला निराकार श्रीराम के रूप में वर्णन किया है। रैदास के राम चंदन के समान है, आकाश में छाए बादल के समान है, दीपक के समान है, मोती के समान है, वे दास के स्वामी के समान है। महाकवि रैदास ने इन प्रतीकों के माध्यम से राम के करुणामय एवं महिमामय स्वरूप का बखान करते हुए अपनी निर्मल और निष्कलुष अटूट एकनिष्ठ भक्ति का परिचय । दिया है।
प्रश्न 11.
“मन ही पूजा मन ही धूप।
मन ही सेऊँ सहज सरूप।” का भाव स्पष्ट करें।
उत्तर-
महाकवि रैदास ने उपरोक्त पंक्तियों में ईश्वर भक्ति की महिमा का बखान किया है। रैदास की दृष्टि में शुद्ध ईश्वर भक्ति तो अन्तर्मन से की जाती है। बाहरी दिखावा या आडंबर के साथ नहीं। रैदास ने मन ही मन ईश्वर के सहज स्वरूप की कल्पना की है। कवि के कहने का आशय यह है कि ईश्वर की पूजा-अर्चना के कर्मकांड में न पड़कर मन ही मन करनी चाहिए। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा ये सबकुछ दिखावा है। रैदास व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही ईश्वर की सच्ची भक्ति मानते थे।
प्रश्न 12.
रैदास की भक्ति भावना का परिचय दीजिए।
उत्तर-
महाकवि रैदास सच्चे ईश्वर के उपासक थे। वे दुनिया के दिखावा या आडंबर में विश्वास नहीं करते थे। मूर्ति पूजा या तीर्थ यात्रा में विश्वास नहीं करते थे। वे आंतरिक मन की शुद्धि पर जोर देते थे। आपसी भाईचारे एवं करुणा, सेवा दया में विश्वास प्रकट करते थे। वे निर्गुण ब्रह्म के पक्षधर थे। उन्होंने निर्गुण राम की महिमा का बखान किया है। वे किसी मंदिर-मस्जिद में जाकर माथा टेकने में विश्वास नहीं करते थे। उनकी ईश्वर भक्ति निराकार थी। मनसा-वाचा-कर्मणा, पवित्र थी। वे कर्तव्यनिष्ठ संत थे। वे कर्म में विश्वास करते थे। उनके व्यवहार एवं विचार में समन्वय था। आचरण दोषरहित था। बे सच्चे मानव सेवक और संत पुरुष थे। उनका प्रभु बाहरी दुनिया में नहीं बसता था बल्कि हर मनुष्य के हृदय में वास करता था। इस प्रकार रैदास की भक्ति निर्मल भक्ति थी।
प्रश्न 13.
पठित पाठ के आधार पर निर्गुण भक्ति की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-
संत कवि रैदास ने अपनी कविता में निर्गुण भक्ति की विशेषताओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। कवि का कहना है कि सांसारिक दिखावटी सामग्रियों के द्वारा ईश्वर की सच्ची पूजा नहीं की जा सकती। ईश्वर न मंदिर में वास करता है न मस्जिद में। ईश्वर न तीर्थ में रहते हैं न मूर्तियों में। ईश्वर हर मनुष्य के शुद्ध हृदय में वास करते हैं। ईश्वर कहीं भी बाहरी दिखावटी दुनिया में नहीं मिलेगा। वह मिलेगा सिर्फ व्यक्ति की शुद्ध आंतरिक भावनाओं में। उसके कर्म में, उसके सद्व्यवहार में। एकनिष्ठ कर्मभक्ति ही सच्ची ईश्वर भक्ति कही जाएगी। फल-फूल, जल के चढ़ावा से वह प्रसन्न भी नहीं होगा। कर्मकांड में भी ईश्वर को बाँधा नहीं जा सकता। ईश्वर तो मन की एकाग्रता और साधना में बैठा है। वह कर्तव्यनिष्ठता के प्रति प्रसन्न होता है। ईश्वर हर जन के अंतस् में वास करता है। यही नहीं वह हर हाल, हर काल में प्रेरक स्वरूप है। वह शद्धमन में वास करते हए मनुष्य का मार्गदर्शन करते रहता है-शर्त है कि हृदय निर्मल और सच्चा हो। इस प्रकार कवि ने निर्गुण भक्ति का बड़े ही स्पष्ट एवं सही रूप में वर्णन करते हुए उसकी महिमा का बखान किया है।
प्रश्न 14.
‘जाकी जोति बरै दिन राती’ को स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियों में संत कवि रैदास ने ईश्वर महिमा का गुणगान किया है। इन पंक्तियों का संबंध अध्यात्म जगत से है।
कवि कहता है कि हे राम। आप दीपक हैं और उस दीपक की बाती मैं हूँ। यानि आप परमात्मा हैं; ईश्वर हैं-उसी का मैं भी एक अंश हूँ। ईश्वर की तुलना यहाँ प्रतीकात्मक प्रयोग ‘ज्योति’ के रूप में किया गया है। कहने का आशय यह है कि ईश्वरीय ज्योति के प्रकाश से ही सारा जगत प्रकाशित है। यह ज्योति अखंड है। यानि सदैव जलनेवाली है। कहने का गूढ़ भाव यह है कि चर-अचर सभी परमात्मा के अंश हैं। उसी के प्रकाश से वे प्रकाशित हैं। यानि जीवंत हैं। बिन प्रभु कृपा के सबकुछ अस्तित्व विहीन है। इन पंक्तियों में गूढार्थ भाव छिपा हुआ है जिसका संबंध प्रकारान्तर से ईश्वर और जीव, प्रकाश और जीवन, ज्योति और प्रकाश से है। यानि सर्वोपरि ईश्वर ही हैं जो निराकार, निर्गुण हैं।
प्रश्न 15.
भक्त कवि ने अपने आराध्य के समक्ष अपने आपको दीनहीन माना है। क्यों?
उत्तर-
महाकवि रैदास ईश्वर के सच्चे भक्त हैं। वे छल-कपट रहित निर्मल भाव से युक्त महामानव हैं। उन्होंने अपनी कविता में प्रभु की भक्ति का गुणगान करते हुए उनके समक्ष स्वयं को दीनहीन माना है। कारण है-रैदास के स्वामी तो भगवान राम ही हैं। उनके सिवा इस जगत में रैदास का कोई अपना नहीं है। रैदास ने अपने सारे पदों में निष्कपट एवं निर्मल भाव से हृदय की बातों को प्रभुचरणों में अर्पित किया है। रैदास का आत्म निवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति किसे नहीं प्रभावित कर लेगी। कवि अपने अंतस में ईश्वर की भक्ति करता है। ‘प्रभुजी तुम चंदन हम पानी’ तुम घन वन हम मोरा, तुम दीपक हम बाती, तुम मोती हम धागा, तुम स्वामी हम दासा आदि पक्तियों के माध्यम से रैदास ने अपनी सहजता, सरलता और स्निग्धता का बेमिशाल परिचय दिया है। ये पक्तियाँ कवि की विनयशीलता, नम्रता, निष्कपटता, ईश्वर के प्रति समर्पण भाव आदि को प्रकट करती हैं। अत: कवि की दीनता, हीनता, विचार की स्पष्टता इन कविताओं में साफ-साफ दिखाई पड़ती है। इस प्रकार कवि की भक्ति शुद्ध भक्ति है। लोभ-मोह से मुक्त भक्ति है।
प्रश्न 16.
‘पूजा अरच न जानूँ तेरी’। कहने के बावजूद कवि अपनी प्रार्थना क्षमा-याचना के रूप में करते हैं। क्यों?
उत्तर-
संतों की प्रकृति ही निर्मल भाव से युक्त होती है। रैदास जी भी भक्त कवि के साथ एक महान संत भी हैं। इनमें कहीं भी ढोंग या बनावटीपन नहीं है। ये आडंबर रहित मानव हैं। ये निश्छल भाव से प्रभु से कहते हैं कि पूजा-अर्चना की विधियाँ नहीं जानता। मैं तंत्र-मंत्र भी नहीं जानता। फूल-फल-जल भी मैं नहीं लाया हूँ। मैं आपके नाम रट की पूजा करता हूँ। कहने का भाव यह है कि कि मेरा मन शुद्ध है, विचार शुद्ध है कर्म शुद्ध है तो फिर दिखावा किस बात का? इसीलिए हे प्रभो। आपकी भक्ति में निश्छल और निष्कलुष भाव से करता हूँ।
आप ही मेरे सर्वस्व हैं। आपके सिवा मेरा दूसरा कोई सहारा नहीं, कोई अपना नहीं। संत प्रकृति के होने के कारण कवि में कहीं भी घमंड की बू नहीं आती। विवेक और विचार से परिपूर्ण होकर ही कवि ने ईश्वर भक्ति का गुणगान किया है। तब फिर सवाल ही नहीं उठता है-कहीं भी धृष्टता, अशिष्टता दिखाई दे। यही कारण है कि अपने विवेक विचार, कर्म से कवि का संत हृदय निश्छल, निर्मल, निष्कलुष है। कहीं भी दर्प नहीं है। इसी कारण भगवान-भक्ति में क्षमा-याचना के साथ अपने को दीन-हीन रूप में उपस्थित कर प्रभु की महिमा का गुणगान करते हुए शुद्ध भक्ति में लीन रहता है।
नीचे लिखे पद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें।
1. अब कैसे छूटे राम नाम रट लागी।
प्रभुजी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास-समानी।
प्रभुजी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभुजी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभुजी, तुम मोती, हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभुजी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।
(क) पाठ और कवि का नाम लिखें।
(ख) कवि को किसके नाम की रट लगी है? उसके प्रति कवि के मन में उमगी भक्ति का क्या स्वरूप है? यह रट क्यों नहीं छूटती?
(ग) “प्रभुजी, तुम चंदन हम पानी’ कथन से कवि का क्या अभिप्राय
(घ) ‘प्रभुजी, तुम घन वन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।’पद्य-पंक्ति का अर्थ स्पष्ट करें।
(ङ) ‘ऐसी भक्ति करै रैदासा’ कथन से कवि अपनी कैसी भक्ति का – परिचय देता है?
उत्तर-
(क) पाठ-पद, कवि-रैदास
(ख) कवि को भगवान के रूप में ही श्रीराम के नाम की रट लगी है। कवि के मन में श्रीराम के प्रति अपूर्व निष्ठा, श्रद्धा और भक्ति जमी हुई है। अतः, राम नाम की यह रट चाहकर भी छूट नहीं पाती है। यह कवि-मन में उमड़ी बड़ी गहरी रामभक्ति है। यह भक्ति स्थूल तथा छिछली न होकर कवि के मन और हृदय में डूबी गहरी और सूक्ष्म भक्ति-भावना है।
(ग) कवि इस कथन के माध्यम से अपने आराध्य भगवान श्रीराम की श्रेष्ठता और विशेषता का वर्णन कर उनके साथ अपने जुड़े संबंध का परिचय देता है। कवि इस संदर्भ में श्रीराम की तुलना चंदन से और अपनी तुलना सामान्य जल से करता है। चंदन में सुगंधि का विरल गुण और विशेषता होती है। उसका संपर्क पाकर जल भी सुगंधमय हो जाता है। कवि यहाँ यह बताना चाहता है कि प्रभु की भक्ति के संसर्ग से कवि का मन पवित्र और भक्ति की सुगंध से सुवासित होकर धन्यातिधन्य हो गया है। वह दोषरहित और निर्मल हो गया है।
(घ) इस पंक्ति में कवि अपने आराध्य भगवान श्रीराम की तुलना घन और चंद्रमा से तथा अपनी तुलना मोर और चकोर पक्षियों से करता है और ईश्वर से स्थापित अपने शाश्वत संबंध का परिचय देता है। उसका इस संदर्भ में कथन है कि भगवान और उसके बीच वही गहरा संबंध है, जो संबंध आकाश में उमड़ी घटा और मोर तथा चंद्रमा और चकोर में है। मोर को घटा से तथा चकोर को चंद्रमा से जो आह्लाद, प्रसन्नता और जीवन-शक्ति मिलती है, कवि को वही शक्ति सहज रूप से भगवान की भक्ति से प्राप्त होती है।
(ङ) ‘ऐसी भक्ति करै रैदास’ कथन के माध्यम से कवि अपनी दास्य-भक्ति का परिचय देता है। यहाँ कवि ने यह उल्लेख किया है कि उसके आराध्य भगवान श्रीराम उनके लिए स्वामी हैं, मालिक हैं और वह उनका सहज विनीत और विनम्र दास है। एक अच्छे दास के रूप में वह अपने स्वामी रूप भगवान की सेवा और । भक्ति इसी दास-भावना से करता है। यहीं उसके जीवन की सहज सार्थकता है।
2. राम मैं पूजा कहाँ चढ़ाऊँ। फल अरु मूल अनूप न पाऊँ।
थनहर दूध जो बछरु जुठारी। पुहुप भँवर जंल मीन बिगारी॥
मलया गिरि बेधियो भुजंगा। विष-अमृत दोउ एकै संगा॥
मन ही पूजा मन ही धूप। मन ही सेऊँ सहज सरूप॥
पूजा अरचा न जानूँ तेरी। यह रैदास कवन गति मेरी॥
(क) पाठ और कवि के नाम लिखें।
(ख) कवि की नजर में क्या अनूप, अर्थात अनूठे नहीं हैं और क्यों?
(ग) कवि के अनुसार दूध को जूठा तथा फूल और जल को बर्बाद
करनेवाले कौन-कौन हैं और उन्हें किस ढंग से बर्बाद करते हैं?
(घ) “विष-अमृत दोउ एकै संगा।’ पद्य-कथन को स्पष्ट करें।
(ङ) “मन ही पूजा मन ही धूप’ पद्य-कथन से कवि का क्या अभिप्राय है?
(च) “पूजा अरचा न जानूँ तेरी।’ ऐसा कवि क्यों और किस संदर्भ में कहता है?
उत्तर-
(क) पाठ-पद 2, कवि-रैदास
(ख) भक् कवि रैदास की.नजर में भगवान की भक्ति के लिए फल-फूल-मूल आदि साधन अनूप और अनूठे नहीं है। इसका कारण यह है कि ये सभी साधन सहज रूप से पवित्र-निर्मल और उपयुक्त नहीं हैं। वे सभी जूठे-गैंदले और अपवित्र हैं।
(ग) कवि के अनुसार दूध को गाय का बछड़ा जूठा करता है, फूल को भौंरा गंदा करता है और जल की निर्मलता को जल में विचरण करनेवाली मछली बर्बाद करती है। दूध दुहने के समय बछड़ा पहले स्तनपान कर दूध को जूठा कर देता है। भौंरा फूलों से चिपके रहने के कारण फूलों के सौंदर्य को विनष्ट कर देता है और मछली दिन-रात जल में रहकर जल की पवित्रता को विनष्ट कर देती है।
(घ) यहाँ कवि के इस कथन का अभिप्राय यही है कि जहाँ चंदन के वृक्ष या पौधे रहते हैं, वहीं उसमें लिपटे बड़े-बड़े सर्प भी रहते हैं। इस रूप में इस दुनिया में अमृत चंदन के रूप में और विष सर्प के रूप में साथ-साथ मिलते हैं। अमृत यहाँ विष से अछता नहीं मिलता।
(ङ) ‘मन ही पूजा मन ही धूप’ कथन से कवि का यह अभिप्राय है कि ईश्वर की अर्चना और पूजा के बाह्य साधन-धूप, दीप, जल, फूल, कंद-मूल आदि सभी निरर्थक और बेकार हैं। ईश्वर की सही और सच्ची पूजा तो मन के तल पर की जानी चाहिए। पूजा के बाह्य कर्मकांड ढोंग-ढकोसला तथा अंधविश्वास के प्रतीक होते हैं। कवि ईश्वर की सच्ची पूजा मन के ही तल पर करता है। वह ईश्वर के सच्चे स्वरूप का दर्शन पूजा-स्थलों में न कर मन के तल पर ही करता है।
(च) ‘पूजा अरचा न जानूँ तेरी।’-कवि का यह कथन उसकी विनम्रता के भाव का प्रतीक है। वह बाह्य आडंबर के रूप में अपनी ईश्वर-भक्ति को प्रकट कर दुनिया को दिखाना नहीं चाहता और दुनिया की नजहरों में अपने आपको एक बड़े । भक्त के रूप में प्रकट करना नहीं चाहता। वह तो मन के तल पर एक मूक साधक के रूप में अपनी भक्ति साधना में रत रहकर भगवान की भक्ति मे तल्लीन है। एक सगुण भक्त, अर्थात् एक बुनियादी भक्त के रूप में वह भगवान की अर्चना और पूजा करना नहीं जानता है। वह तो मन-ही-मन ईश्वर की पूजा करता और मन के तल पर ही ईश्वर के सहज निर्मल स्वरूप का निर्माण कर अपनी चेतना का उसपर अर्पण करता है। उसकी भक्ति की यही एकमात्र गति है और कोई दूसरी गति नहीं।