Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 1

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Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
राग बिहाग में एक छोटा ख्याल लिखें।
उत्तर:
राग बिहाग :
समय-रात्रि का प्रथम पहर – वादी-ग
सम्वादी-नी – थाल-बिलावल
आरोह-नि सा ग म प नि सां – अवरोह- सां नी ध प म ग रे सा
पकड़-नि सा ग म ग इत्यादि।

राग परिचय – बिलावल थाट से उत्पन्न वह राग औडव-सम्पूर्ण जाति जिसमें आरोह म रे ध स्वर वर्जित है। यद्यपि इस राग में सभी शुद्ध स्वर हैं। जिससे इसे बिलाबल थाट के अंतर्गत माना जाता है। इसमें कल्याण अंग का आभास मिलता है। यह गंभीर प्रकृति का राग है। इसमें करूण रस का समावेश है। आयुर्वेद की दृष्टि से यह राग बातजन्य होने से कफ जन्य रोगों का शमन करता है।

प्रश्न 2.
निम्न में से किसी तीन की परिभाषा लिखें : पकड़, अवरोह, तान, आलाप, वादी स्वर।
उत्तर:
पकड़ – प्रत्येक राग में कुछ ऐसे विशेष स्वर समुदाय होते हैं जिसे सुनकर स्पष्ट रूप से राग पहचान, या पकड़ में आ जाता है। अतः राग में लगने वाले वे विशिष्ट स्वर समुदाय, जिनसे हम राग को पकड़ सकें। पकड़ कहलाते हैं। जैसे-सा रेग, पग, धपग इत्यादि से राग भूपाली का बोध हो जाता है, जो इस राग का पकड़ कहलाता है।

अवरोह – गायक या वादक गाते बजाते समय एक स्वर पर बहुत देर तक नहीं ठहरता वरन वह सदा ऊपर-नीचे आता जाता रहता है। इसी को संगीत में आरोह-अवरोह कहते हैं। स्वरों के चढ़ते हुये क्रम को आरोह और स्वरों के उतरते हुए क्रम को अवरोह कहते हैं।

तान – तान का अर्थ है तानना या फैलाना अर्थात् गायन या वादन के क्रम में राग में लगने वाले स्वरों तथा उसके लक्षणों को ध्यान में रखकर द्रुत गति से स्वरों का विस्तार करना तान कहलाता है।

आलाप या आलापचारी – “शास्त्रीय गायन के आरंभ में किसी भी राग का स्वर विस्तार या उसका प्रसार ‘आलाप’ कहलाता है। यह राग के आरोह-अवरोह में लगने वाले स्वरों, उसके वादी-सम्वादी तथा उसकी प्रकृति का आधार लेकर किया जाता है। प्रदर्शन के आरंभ में आलाप के ही द्वारा कलाकार किसी भी राग के रूप का निर्माण करता है। इसके अन्तर्गत वह मीड़, गमक, खटका, मुर्की आदि का भी प्रयोग करता है। इसे गायन तथा विशेष रूप से तंत्रनादन के रूप में “आलापचरी” भी कहा जाता है। वर्तमान गायन शैली में आलाप करने की दो विधियाँ हैं-

  1. नोम-तोम का आलाप
  2. आकार का आलाप।

वादी स्वर – किसी भी राग में प्रयुक्त होने वाले सभी स्वरों में एक स्वर प्रमुख या प्रधान होता है, उसे वादी स्वर कहते हैं। उसे अंश स्वर या ‘जीव स्वर’ भी कहते हैं। वादी स्वर की प्रमुखता ही किसी भी राग की पहचान का आधार स्तम्भ है। बहुत से राग ऐसे है जिनके आरोह-अवरोह एक समान है परन्तु वादी और संवादी स्वरों के बदल जाने से राग का नाम, उसका प्रभाव उसका गायन समय यहाँ तक कि कभी-कभी थाट भी बदल जाता है, जैसे राग भूपाली, देशकर तथा जैसे . कल्याण एवं राग विलास तथा रेका आदि।

प्रश्न 3.
उस्ताद करीम खाँ की जीवनी लिखें।
अथवा, उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के योगदान के बारे में लिखें।
उत्तर:
उस्ताद अब्दुल करीम खाँ किराना के निवासी थे। इनके घराने में प्रसिद्ध गायक तंत्रकार व सारंगीवादक हुए हैं। इन्होंने इपने पिता काले खाँ व चाचा अब्दुल्ला खाँ से संगीत शिक्षा प्राप्त की थी। ये बचपन से ही बहुत अच्छा गाने लगे थे। कहा जाता है कि पहली बार जब इन्हें एक संगीत महफिल में पेश किया गया तब इनकी उम्र केवल छः वर्ष की थी। पन्द्रहवें वर्ष में प्रवेश करते-करते इन्होंने संगीतकला में इतनी उन्नति कर ली कि आपको तत्कालीन बड़ौदा-नरेश ने अपने यहाँ दरबारी गायक नियुक्त कर लिया । बड़ौदा में तीन वर्ष तक रहने के पश्चात् 1902 में प्रथम बार आप मुम्बई आए और फिर मिरज गए । मधुर और सुरीली आवाज तथा हृदयग्राही गायकी के कारण दिनी-दिन इनकी लोकप्रियता बढ़ती गई।

सन् 1913 ई० के लगभग पूना में आपने ‘आर्य-संगीत-विद्यालय’ की स्थापना की । विविध संगीत-जलसों के द्वारा धन इकट्ठा कर आपने इस विद्यालय की स्थापना की तथा इसका सुचारू ढंग से संचालन किया । गरीब विद्यार्थियों का सभी खर्च विद्यालय उठाता था। इसी विद्यालय की एक शाखा 1917 में खाँ साहब ने मुम्बई में स्थापित की और तीन वर्षों तक मुंबई में आपको रहना पड़ा । इन दिनों आपने एक कुत्ता की बड़े विचित्र ढंग से स्वर देने के लिए सिखा लिया था। मुम्बई में अब भी ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं जिन्होंने अमरौली हाउस, मुम्बई के जलसे में उस कुत्ते को स्वर देते सुना था। कई कारणों से सन् 1920 में वह विद्यालय उन्हें बन्द कर देना पड़ा। फिर खाँ साहब मिरज आकर बस गए और अंत तक वहीं रहे हैं।

खाँ साहब गोबरहाटी वाणी की गायकी गाते थे। महाराष्ट्र में मीण्ड और कणयुक्त गायकी के प्रसार का श्रेय खाँ साहब को ही है। इनके आलापों में अखंडता व एक प्रवाह-सा प्रतीत होता है। सुरीलेपन के कारण आपका संगीत अंत:करण को स्पर्श करने की क्षमता रखता था।” प्रया बिन नाहीं आवत चैन” आपकी यह ठुमरी बहुत प्रसिद्ध हुई। इसे सुनने के लिए कला-मर्मज्ञ विशेष रूप से फरमाइश किया करते थे।

खाँ साहब की शिष्य परंपरा बहुत विशाल थी। प्रसिद्ध गायिका हीराबाई बडोदेकर ने खाँ साहब से ही किराना-घराने की गायकी सीखी। इनके अतिरिक्त सवाई गंधर्व, रोशन आरा बेगम आदि अनेक शिष्य व शिष्याओं द्वारा आपका नाम रोशन हो रहा है।

एक बार वार्षिक उर्स के अवसर पर आज मिरज आए थे कुछ लोगों के आग्रह से एक जलसे में वहाँ से मद्रास जाना पड़ा वहाँ पर आपका एक संगीत कार्यक्रम में गायन इतना सफल रहा कि उपस्थित जनता ने आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। फिर एक संस्था की सहायतार्थ जलसे करने के लिए वहाँ से पांडिचेरी जाने का निश्चय हुआ। इस यात्रा में ही खाँ साहब की तबियत खराब हो गई और रात्रि के 11 बजे शिंगपोयमकोलम स्टेशन पर उतर गए । बेकली बढ़ती गई। कुछ देर इधर-उधर ठहलने के बाद बिस्तर पर बैठ गए, नमाज पढ़ी और फिर दरबारी कान्हड़ा के स्वरों में खुदा की इबादत की, इस प्रकार गाते-गाते 27 अक्टूबर, 1937 को आप हमेशा के लिए उसी बिस्तर पर लेट गए।

प्रश्न 4.
मूर्च्छना क्या है ? समझाइए।
उत्तर:
किन्हीं भी सात स्वरों की पंक्ति का क्रमानुसार आरोह और अवरोह को मूर्च्छना कहते हैं। प्रत्यक्ष व्यवहार में इसका प्रयोग षड्ज को और षड्ज के द्वारा बाकी स्वरों को दूसरे स्थानों पर सरकाना अथवा स्वर पंक्ति का केन्द्र बदलना है। भारत नाट्यशास्त्र के समय में दो ही विकृत स्वर थे। सात शुद्ध स्वर और ‘अंतर-गंधार और ‘काकली निषाद’। ये दो विकृत मिलाकर कुल नौ स्वरों. में ही संगीत की रचना होती थी। विकृत स्वरों के अभाव में संगीत का क्षेत्र दो ही ग्रामों तक सीमित हो जाता है इसलिए इस अभाव को दूर करने के लिए भरत ने मूर्च्छना की व्यवस्था की । मूर्च्छना के द्वारा इन्हीं नौ स्वरों से अनेक स्वर सप्तक बनते थे। इस प्रक्रिया में आरंभिक स्वर प्रत्येक बार बदला जाता था और उससे प्रारम्भ कर कुल सात स्वरों को स्थापित किया जाता था। परन्तु ऐसा करते समय स्वरों के बीच के अन्तराल नहीं बलते जाते थे। उदाहरण के लिए अगर मन्द निषाद से आरम्भ करके आकार में स्वर गाएँगे तो यह दूसरा सप्तक बनता है ‘नि सा रे ग म प ध नि’।

इसी प्रकार मन्द धैवत से मध्य धैवत तक बिलावल के आकार में गाएँ, तो आसावरी का स्वर सप्तक होता है।
‘ध नि सा रे ग म प ध’।
व्यवहार में दो ही ग्राम है-षड्ज ग्राम और मध्यम ग्राम। अत: दो ग्रामों से निकली हुई 14 मूर्च्छनाएँ उपयोग में लाते थे।

प्रश्न 5.
संगीत रत्नाकर पर प्रकाश डालें। अथवा, ‘संगीत. रत्नाकर’ में वर्णित संगीत के इतिहास पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
पं० शारंगदेव का समय 1210 से 1247 ई० के मध्य का माना जाता है। ये देवगिरी (दौलताबाद) के यादव वंशीय राजा के दरबारी संगीतज्ञ थे।

13वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पं० शारंगदेव ने ‘संगीत रत्नाकर’ ग्रंथ की रचना की । इसमें नाद, श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्च्छना, जाति इत्यादि का विवेचन भली प्रकार किया गया है। दक्षिणी और उत्तरी संगीत-विद्वान इस ग्रन्थ को संगीत का आधार ग्रंथ मानते हैं। आधुनिक ग्रंथों में भी संगीत रत्नाकर के अनेक उदाहरण पाठकों ने देखे होंगे। इसमें गायन, वादन तथा नत्य तीनों का विवरण है। इसमें स्वराध्याय. राग-विवेकाध्याय. प्रकीर्णकाधाहयाय प्रबन्धयाय. तालाध्याय. वाद्याध्याय और नर्तनाध्याय के अन्तर्गत प्रथम अध्याय में नाद का स्वरूप नादोत्पत्ति और उसके भेद, सारणा चतुष्ट्यी ग्राम, मूर्च्छना, तान-निरूपण, स्वर और जाति साधारण, वर्ग-अलंकार तथा जातियों का विस्तृत वर्णन मिलता है।

द्वितीय अध्याय में ग्राम – राग व उनके विभाग तथा रागग, भाषांण शब्दों का स्पष्टीकरण और देशी राग व उनके नाम आदि दिए गए हैं।

तृतीय अध्याय में वाग्गेयकार के लक्षण, गीत के गुण-दोष, गायक के गुण-दोष और स्थायी आदि का विवरण है।
चतुर्थ अध्याय में गान में निबद्ध और अनिबद्ध भेद, धातु व प्रबंध के भेद तथा अंगों इत्यादि का विवरण प्राप्त होता है।
पंचम अध्याय में ताल विषय तथा छठे अध्याय में तत्, सुषिर, अनिबद्ध और घन वाद्यों के भेद, वादन-विधि तथा वाद्यों और वादकों के गुण-दोष दिए गए हैं।

सप्तम अध्याय में नृत्य, नाट्य और नृत्त का उल्लेख है । इसमें नर्तन-संबंधी प्रत्येक बात को स्पष्ट किया गया हैं । इस ग्रंथ में कुल 264 रागों का वर्णन दिया गया है। इन रागों का वर्गीकरण राग, उप-राग आदि के आधार पर किया गया है। इस वर्गीकरण का आधार क्या है, विदित नहीं होता। इस प्रकार यद्यपि शारंगदेव ने श्रुति, स्वर, ग्राम, जाति आदि के वर्णन में भरत का ही अनुकरण किया है, फिर भी उनकी पद्धति में प्रगति और विकास के लक्षणों का अभाव नहीं है । मूर्च्छनाओं की मध्य-सप्तक में स्थापना, विकृत स्वरों की कल्पना, मध्यम ग्राम का लोप और प्रति मध्यम की उत्पत्ति इत्यादि विषय ‘संगीत रत्नाकर’ की मौलिकता को प्रकट करते हैं।

प्रश्न 6.
उस्ताद फैयाज खाँ की जीवत्ती लिखिए।
अथवा, उस्ताद फैयाज खाँ की जीवनी व संगीत के क्षेत्र में योगदान को सविस्तार लिखें।
उत्तर:
उत्तर भारतीय संगीत के विकास में घरानों का योगदान सराहनीय रहा । जब कभी आगरा घराने की चर्चा उठती है तो स्व. उस्ताद फैयाज खाँ का स्मरण बरबस हो आता है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जो सम्मान फैयाध खाँ को मिला उतना किसी मुसलमान गायक को नहीं मिला।

1886 ई० में आगरा के पास सिकन्दरा नामक स्थान पर अपने मामा के घर फैयाज खाँ का जन्म हुआ था। पिता श्री सफदर हुसैन आपके जन्म के तीन-चार महीने पहले ही जन्नतनशीं हो गए थे अतः ननसाल में ही नाना गुलाम अब्बास खाँ साहब ने इनका पालन-पोषण किया और बाल्यकाल से 25 साल की उम्र तक उन्होंने ही इन्हें संगीत की तालीम दी। आपके सम्बन्धी नन्थन खाँ तथा चाचा फिदाहुसैन खाँ कोटा वालों से भी आपको संगीत की तालीम हासिल हुई। कुछ दिनों बाद आप मैसूर चले गए वहीं सन् 1919 में ‘आफताबे मौजिकी’ की उपाधि मिली। तत्पश्चात् आप बड़ौदा के दरबारी गायक नियुक्त हुए जहाँ उन्हें ‘ज्ञान रत्न’ की उपाधि प्राप्त हुई।

उस्ताद फैयाज खाँ ध्रुपद तथा ख्याल शैली के श्रेष्ठतम गायक थे। श्रोताओं के आग्रह पर कभी-कभी गजल भी बड़ी खूबी के साथ पेश करते थे। ठुमरी भी लाजवाब तरीके से गाते थे। आपका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था। छ: फीट ऊँचे, छल्लेदार मूंछे, पुष्ट शरीर, शेरवानी और साफे की पोशाक में उनकी शख्सियत अपना अलग मुकाम रखती है। आवाज सुरीली, बुलंद औरा भरावदार थी। स्वरों पर स्थित हो जाना आपके गायन की प्रमुख विशेषता थी। आपके कुछ रिकॉर्ड भी बने। आपकी शिष्य परंपरा बहुत विशाल है। उसमें कुछ नाम इस प्रकार हैं- दिलीपचंद बेदी, उस्ताद जिया हुसैन, अजमत हुसैन, श्री कृष्ण नारायण, शंताजन्कर इत्यादि। इनका घराना रंगीले घराने के नाम से प्रसिद्ध था। आपको नोम् तोम् के आलप की सिद्धि थी। 5 नवम्बर 1950 को बड़ौदा में आपका निधन हो गया।

प्रश्न 7.
राग भीमपलासी में एक छोटा ख्याल लिखें।
उत्तर:
राग भीमपलासी में छोटा ख्याल :
स्थायी- मुरली बजावत कृष्ण कन्हाई सुधबुध तज सव सखियाँ आई।
अन्तरा- वृन्दावन की कुंज गलिन में सब सखियन संग रास रचाई।।
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प्रश्न 8.
तीनताल तथा दादरा ताल को ठाह एवं दुगुन लयकारियों में लिखें।
उत्तर:
तीन ताल(Teen Tal)-विभाग 4, ताली 1, 5 ठास पर तथा खाली 9वें मात्रा पर।
1. ताल की ठाठ (स्थायी)-
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2. ताल की दुगुन-
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दादरा ताल(Dadara Tal)-विभाग 6, ताली 1 और खाली 4थी मात्रा पर।
1. ताल की ठाठ (स्थायी)-
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2. ताल की दुगुन-
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प्रश्न 9.
पं० भातखण्डे के कार्य पर एक लेख लिखिए।
अथवा, हिन्दुस्तानी संगीत में पं० विष्णु नारायण भातखण्डे का क्या योगदान है ?
उत्तर:
उत्तर भारतीय संगीत में आधुनिक शास्त्रकार एवं संगीत के युग प्रवर्तक के रूप में पं० विष्णु नारायण भातखण्डे का नाम उल्लेखनीय है। आपका जन्म 10 अगस्त सन् 1860 को बम्बई ‘ के बालकेश्वर नामक स्थान पर कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हुआ था। आपको संगीत की प्रेरणा अपने पिता से मिली। आपने बी० ए० तथा एल० एल० बी० की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के साथ ही सेठ बल्लभ दास से सितार तथा जयपुर के मुहम्मद अली खाँ, रामपुर के कलवे अली खाँ तथा ग्वालियर के पं० एकनाथ जैसे गायकों से गायन की शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद कुछ दिनों तक वकालत करते रहे।

संगीत के प्रचार-प्रसार तथा उसके शास्त्रीय पक्ष को विकसित करने के लिए उन्होंने वकालत छोड़ दी तथा देश के विभिन्न भागों का भ्रमण कर संगीत संबंधी प्राचीन ग्रंथों की खोज की। इस भ्रमण में उन्हें जहाँ भी संगीत विद्वान मिले, उनसे संगीत तथा रागों के विषय में विचार-विनिमय कर आपस में आदान-प्रदान किया। इस कार्य में उन्हें कहीं-कहीं अत्यधिक कठिनाई का भी सामना करना पड़ा। सर्वप्रथम उन्होंने एक स्वरलिपि पद्धति का आविष्कार किया।

उनके द्वारा संकलित गीत रचनाओं को पुस्तक के रूप में ‘भातखण्डे क्रमिक पुस्तक’ के नाम से छ: भागों में प्रकाशित किया गया। उस समय स्वरलिपि या पुस्तकों के अभाव में लोगों को एक-एक गीत रचना सीखने के लिए कई वर्षों तक अपने गुरु की सेवा करनी पड़ती थी। उन्होंने इस कठिनाई को दूर करने में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके द्वारा रचित स्वरलिपि पद्धति उत्तर भारतीय (हिन्दुस्तानी) संगीत में सर्वाधिक प्रचलित है। परंतु आदि काल से सभी गेय वैदिक ऋचाएँ संगीत-लिपि में बद्ध हैं जिसका प्रमाण अभी भी किसी-किसी भाष्य में है। साथ ही पं. जयदेव रचित ‘गीत गोविन्द’ के प्रबंध भी संगीत लिपि में बद्ध है।

श्री भातखण्डे के समय में प्राचीनकाल से चली आ रही राग-रागिनी पद्धति के अंतर्गत सभी गायन-वादन हुआ करता था। इसे उन्होंने राजा नवाब अली की भाँति वर्तमान युग के लिए अवैज्ञानिक कहकर सभी रागों का वर्गीकरण दक्षिण भारतीय (कर्नाटक) पद्धति का अनुसरण करते हुए केवल दस थाटों में किया (जो पर्याप्त नहीं है)। इस संबंध में महान संगीतविद् स्व. आचार्य वृहस्पति ने अपनी पुस्तक संगीत चिंतामणि में लिखा है कि “जब भातखण्डे जी दो-ढाई साल के थे तभी दिल्ली के सितारवादक सादिक अली खाँ ने अपनी पुस्तक ‘सरमायः इशरत’ में दस थाटों का चित्र देकर उसके अंतर्गत रागों का वर्गीकरण किया जो फारसी ‘मोकाम’ या ‘मेल’ के आधार पर है। इस प्रकार उन्होंने 38 लाख वर्षों से चली आ रही प्राचीन राग-रागिनी पद्धति को अवैज्ञानिक कहकर थाट-राग पद्धति प्रचलित कर दिया।

इस कार्य को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने बड़ौदा नरेश की सहायता से 1916 में एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें थाट-राग वर्गीकरण के अतिरिक्त संगीत के बहुत-से अन्य बिन्दुओं पर भी विचार-विमर्श किया। साथ ही इस सम्मेलन में “अखिल भारतीय संगीत अकादमी” स्थापित करने का प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित हुआ, लेकिन वह अधिक दिनों तक नहीं चल सका। इसके अतिरिक्त उन्होंने सन् 1925 तक कई अन्य बड़े-बड़े सम्मेलनों का आयोजन किया। “भातखण्डे क्रमिक विकास” छः भागों में प्रकाशित किए जाने के अतिरिक्त उन्होंने चार भागों में “भातखण्डे संगीत-शास्त्र” की रचना की। उनके द्वारा “स्वर मालिका”,”अभिनव राग-मंजरी”,”लक्ष्य संगीत” आदि अनेक पुस्तकों की रचना की गई जो इस समय आधुनिक भारतीय संगीत शास्त्र के आधार माने जाते हैं।

वे 19 सितम्बर, 1936 को स्वर्ग सिधार गए। पं० विष्णु दिगम्बर पलुष्कर तथा पं० भातखण्डे दोनों का प्रादुर्भाव एक ही समय में हुआ। पं० विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने जहाँ तक और शास्त्रीय संगीत के क्रियात्मक पक्ष को आध्यात्मोन्मुखी बनाते हुए उसे जन-जन तक पहुँचाने का अथक प्रयास किया वहीं पं० भातखण्डे ने उत्तर भारतीय (हिन्दुस्तानी) संगीत के शास्त्र को एक नया मोड़ दिया।

स्व० भातखण्डे जी द्वारा रचित “भातखण्डे संगीत शास्त्र (हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति) भाग-1 की प्रस्तावना लिखने के क्रम में स्व० भातखण्डे जी के प्रति अपना उद्गार व्यक्त करते हुए महान संगीतविद् पं० सुदामा दूबे ने अपनी ओर से’ कहा है कि ‘इस प्रकार प्राचीन संगीत का भ्रष्ट उच्छिष्ट इन खाँ साहबों की कृपा कोर से प्राप्त हुआ और उसी को स्व० पं० भातखण्डे ने तरतीबवार धो-पोंछ और सजाकर एक थालं में जमा दिया है। यह भग्नावशेष भी हमारे आँसू पोंछने के लिए काफी हैं; अन्यथा हमारे पास इस समय अपना कहा जा सकने वाला कुछ भी नहीं है।”

(यह है हमारे आधुनिक काल का एक बिन्दु-मात्र दिग्दर्शन। समग्र इतिहास के कुछ अन्य महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर इस शृंखला के अन्य पुस्तकों में प्रकाश डाला जायेगा।)

प्रश्न 10.
ग्राम क्या है ? समझाइए।
उत्तर:
ग्राम संवेदी स्वरों का समूह है जिसमें श्रुतियाँ व्यवस्थित रूप से विद्यमान हों और मूर्च्छना तान, वर्ण, अलंकार इत्यादि की आश्रय हो।
ग्राम का अर्थ है ‘स्वरों का समूह’। ग्राम तीन हैं-
1. षड्ज ग्राम
2. मध्यम ग्राम
3. गांधार ग्राम। नाट्य शास्त्र में केवल दो ग्रामों का उल्लेख है- षड्ज तथा मध्यमा तृतीय ग्राम जो कि गांधार ग्राम के नाम से विख्यात है, भरत के द्वारा उल्लेखित नहीं है। नाट्यशास्त्र के काल तक इस ग्राम का व्यवहार से लोप हो गया था।

(i) षड्ज ग्राम – इसमें षड्ज स्वर चतुःश्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, गांधार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति,पंचम चतुःश्रुति, धैवत त्रिशुति व निषाद द्विश्रुति होता है।
षड्ज ग्राम-कुल श्रुति (22)
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(ii) मध्यम प्राम – इसमें मध्यम चतुःश्रुतिक, पंचम त्रिश्रुतिक, धैवत चतुःश्रुतिक, निषाद् – द्विश्रुतिक, षड्ज चतुःश्रुतिक, ऋषभ त्रिश्रुतिक और गंधार द्विश्रुतिक है।
मध्यम ग्राम (कुल श्रुति 22)
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मध्यम ग्राम और षड्ज ग्राम में केवल इतना ही अंतर है कि मध्यम ग्राम में प 17वीं श्रुति से एक श्रुति उतरकर 16वीं श्रुति पर आ जाता है।

(iii) गांधार ग्राम – इसमें षड्ज स्वर त्रिश्रुति, ऋषभ द्विश्रुति, गांधार चतुःश्रुति, मध्यम, पंचम और धैवत त्रिशुति और निषाद चतुःश्रुति होता है।

प्रश्न 11.
संगीत पारिजात में वर्णित संगीत के इतिहास पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
‘संगीत’ शब्द के संधि विच्छेद से सम + गीत प्राप्त होता है। संगीतिक भाषा में किसी भी ताल के प्रारंभिक स्थान या पहले मात्रे को ‘सम’ कहते हैं तथा ‘गीत’ शब्द का अर्थ है गायन। व्यापक अर्थों में गीत के ही अन्तर्गत मायन, वादन तथा नर्तन, तीनों का समावेद होता है। इस प्रकार ‘सम’ अर्थात् ‘ताल-लय’ सहित गायन को संगीत कहते हैं।

इस प्रकार गीत, वाद्य और नृत्य ये तीनों मिलकर संगीत कहलाते हैं। वास्तव में ये तीनों कलाएँ गाना, बजाना और नाचना, एक-दूसरे से स्वतंत्र है। किन्तु स्वतंत्र होते हुए भी गान के अधीन वादन तथा वादन के अधीन नर्तक है। ‘संगीत’ शब्द गीत शब्द में सम उपसर्ग लगाकर बना है। ‘सम’ यानि ‘सहित’ और गीत यानि ‘गान’। गान के सहित अर्थात् अंगभूत. क्रियाओं व वादन के साथ किया हुआ कार्य संगीत कहलाता है। अतः गान के अधीन यादन और वादन के अधीन नर्तन है। अतः इन तीनों कलाओं में गान को ही प्रधानता दी गई है।

प्रश्न 12.
उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ की जीवनी एवं संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान का विवेचन करें।
उत्तर:
पाटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ को कौन ऐसा संगीत प्रेमी होगा जों न जनता होगा आप जितना शास्त्रीय संगीत-जगत में प्रसिद्ध है। आपकी गाई हुई ठुमरी “आये न वालम का करूँ सजनी” तथा “याद पिया की आये” इतने प्रसिद्ध है कि हर व्यक्ति के कानों में गूंजती है। कुछ चल चित्रों में भी पृष्ठभूमि गायन देने से आप सर्व साधारण जनता में और अधिक लोकप्रिय हो गये।

आपका जन्म सन् 1901 में लाहौर में हुआ । आपके पिता का नाम उस्ताद काले खाँ था। जिनको वंश परम्परा संगीतज्ञों की थी। बाल्यकाल से ही घर में संगीत का वातावरण था। गुलाम अली ने पहले अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की। दुर्भाग्यवश कुछ ही दिनों के बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। तब से अपने पिता से संगीत-शिक्षा लेने लगे। कुछ ही दिनों तक आप सारंगी भी बजाये। आपके तीन छोटे भाई थे। वरकल अली, मुबारक अली तथा अमान अली खाँ।

कुछ समय उपरांत आप बम्बई चले गये और उस्ताद सिंधी खाँ ने गायन सीखने लगे। कुछ दिन रहने के बाद पिता के साथ लाहौर लौट आये। आपकी ख्याति धीरे-धीरे बढ़ने लगा। संगीत सम्मलनों में आपका पहला कार्यक्रम कोलकाता में हुआ। यह कार्यक्रम बड़ा सफल रहा और यहाँ से धीरे-धीरे आपकी ख्याति बढ़ने लगी।

सन् 1940 के विभाजन के बाद आप हिन्दुस्तान छोड़कर करांची पाकिस्तान में रहने लगे। बीच-बीच में कभी-कभी संगीत-सम्मेलनों में हिन्दुस्तान आया करते थे। किन्तु उनका मन वहाँ न लगा। उन्होंने भारत लौटने की इच्छा प्रकट की और भारत सरकार ने उनकी प्रार्थना सुन ली। उसके बाद से बम्बई में रहने लगे। दुर्भाग्यवश सन् 1960 में वे लकवे के शिकार हो गये और खाट पकड़ ली। उस समय आर्थिक परेशानी भी सामने आ गई, कारण उन्होंने कभी भी पैसा इकट्ठा करने की कोशिश नहीं की। जितना भी मिला उसे कुछ ही दिनों में खर्च कर देते थे।

इसलिये अक्टूबर सन् 1961 में उन्हें महाराष्ट्र सरकार ने 5 हजार की सहायता औषधि आदि के लिए दी। उसके बाद से खाँ साहब अच्छे हो गये और अपना कार्यक्रम भी देने लगें। कई बार अखिल भारतीय आकाशवाणी कार्यक्रम के अंतर्गत अपना कार्यक्रम प्रसारित किया। खाँ साहब स्वभाव के बड़े सरल और मिलनसार थे। किन्तु बड़े मूड़ी थे। जब जहाँ मन आया गाने लगते। गाना उनका व्यसन-सा हो गया था, बिना गाना गाये रह नहीं सकते थे। गाते-गाते प्रयोग भी करते। एक बार-बात करते-करते कोमल ऋषभको यमन गाने लगे। लेकिन शर्त यह थी कि प्रचलित यमन भी भिन्न न हो।

उन्होंने ठीक ऐसी स्वरों और रागों पर उन्हें इतना नियंत्रण था कि कठिन से कठिन स्वर-समूह बड़े ही सरल ढंग से कह देते थे। गले की लोच तो अद्वितीय थी। जहाँ से चाहे जैसे भी चाहे गला शीघ्र ही धूम जाता था। पंजाब अंग की ठुमरी में तो आप बड़े सिद्धहस्त थे। पैचीदां हरकते, दानेदार ताने, कठिन-से-कठिन सरगामें से मानों वे खेल रहे हो। उनकी हरकतों को सुनने वाले दांतों तले अंगुली दवा लेते थे, किन्तु उनके लिये जैसे कोई साधारण सी बात हो। आवाज आपकी जितनी लचीली थी। आप उतने ही विशालकाय के थे। बड़ी-बड़ी मुछे, कुरता और बंद मोहरी का पायजामा और रामपुरी काली टोपी से पहलवान ही मालूम पड़ते थे। लेकिन गायन और बोलचाल ठीक उसके विपरीत थी। दोनों में बड़ी मिठास थी।

आपका कहना था कि घरानों से संगीत का सत्यानाश कर दिया। घरानों की आड़ में लोग मनमानी करने लगे हैं। इसीलिए बहुत से मंत मतांतर हो गये। मुद्रा-दोष के संदर्भ में बड़े गुलाम अली खाँ ने कहा कि गाते समय बिना मुंह बिगाड़े तथा बिना किसी किस्म का जोर डाले स्वरों में जान पैदा करनी चाहिए। थोड़ी सी अस्वस्थता के बाद खाँ साहब 23 अप्रैल, 1968 को हम लोगों को सदा-सदा के लिए छोड़कर चले गये।

प्रश्न 13.
विद्यापति संगीत क्या है ? विस्तार पूर्वक लिखें।
उत्तर:
जिस प्रकार मध्य युग में कालीदास के अनेक महाकाव्य तथा महाकवि एवं संत जयदेव का गीत-गोविन्द भारतीय साहित्य एवं संगीत जगत में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है उसी प्रकार महाकवि एवं महान संत विद्यापति द्वारा रचित ‘विद्यापति संगीत’ भी इस देश में एक विशिष्ट स्थान रखता है। जहाँ एक ओर विद्यापति संगीत में शृंगार-रस तथा भक्ति रस का समावेश है वहीं दूसरी ओर यह लोक जीवन से जुड़े उनके अनेक पर्व-त्योहार शादी-ब्याह तथा अन्य संस्कारों सहित अनेक पहलूओं पर विस्तृत प्रकाश डालता है।

उनके भक्ति रस की रचनाएँ जहाँ एक ओर शृंगार-रस प्रधान राधाकृष्ण एवं गोप-गोपिकाओं की प्रेम-लीला और रास.लीला से परिपूर्ण है वहीं दूसरी ओर वह भगवान शिव की आराधना, उपासना और समाधि से संबंधित गंभीरता को भी पूर्णतः प्रदर्शित करती है।

जहाँ एक ओर विद्यापति संगीत आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से परिपूर्ण है वहीं दूसरी ओर उनकी रचनाएँ लोक जीवन से जुड़ी हुई विभिन्न लोक गीतों से भी सजी हुई है जिनमें बटगमनी, जतसार, जन्मोत्सव गीत, वैवाहिक गीत, समदौन आदि भी है। समदौनतो ऐसा गीत है जिसे सुनकर पाषाण हृदय भी द्रविभूत हो जाता है जहाँ एक ओर उन्होंने राधाकृष्ण तथा शिव से संबंधित रचनाएँ की वहीं यह पद ‘उनका राम सीता से जुड़े आस्था की पराकाष्ठा को भी प्रदर्शित करता है। इसके अन्तर्गत उन्होंने राम विवाह के पश्चात् राजा जनक के भवन से सीता की विदाई की घड़ी में राजा जनक द्वारा सीता की विदाई की घड़ी में राजा जनक द्वारा सीता के विक्षोह की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति “बड़ा रे जतन से हम सीया जी के पोशली से हो रघुवंशी ले ले जाये हो।”

जहाँ विद्यापति संगीत में सामवेदीय गीत-रीति के छन्द तथा प्रबंध रूपक जैसा “तीव्रा, दीपचन्दी, जत, सूल, धमार आदि अनेक तालों में रचनाएँ देखने को मिलती है जो शास्त्रीय संगीत के अन्तर्गत “विभिन्न राग रागिनियों के स्वरों में निबद्ध पायी जाती है वहीं दूसरी ओर महाकवि द्वारा रचित लोकगीत शास्त्रीय नियमों से मुक्त “मुक्तक” के रूप में मिथिलांचल सहित देश के कोने-कोने में सहजता, सरसता तथा सर्वांगीणता के कारण जन सामान्य द्वारा गाया जाता है। धन्य है मिथिलांचल का विसपी ग्राम जहाँ उस महापुरुष ने जन्म लेकर अभूतपूर्व संगीत साधना तथा उपासना के माध्यम से हमें “विद्यापति संगीत” रूपी अपर्व धरोहर प्रदान किया।

प्रश्न 14.
पं० कृष्णराव शंकर की जीवनी व संगीत में योगदान के बारे में लिखें।
उत्तर:
श्री कृष्णराव शंकर पंडित का जन्म 26 जुलाई में ग्वालियर के एक दक्षिणी ब्राह्मण परिवार में हुआ । आपके पिता स्वर्गीय पं० शंकरराव एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ थे, जिन्होंने ग्वालियर के प्रसिद्ध कलाकार हद् खाँ और नत्खू खाँ से संगीत की शिक्षा पायी थी और बाद में उस्ताद निसार हुसैन खाँ की देखरेख में बारह वर्ष तक संगीत कला की कठोर साधना की । इस प्रकार पं० शंकररावजी तत्कालीन संगीत के प्रसिद्ध आचार्यों द्वारा पूर्ण ज्ञान और अनुभव प्राप्त करके अपने समय के महान संगीतज्ञ सिद्ध हुए । आज भी ग्वालियर निवासी आपका गार्व के साथ स्मरण करते हैं।

अपने पिता पं० शंकर राव ने कृष्ण राव ने संगीत शिक्षा प्राप्त की। आपके शास्त्रीय ज्ञान और स्वर-ताल पर पूर्ण अधिकार को देश के बड़े-से-बड़े विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया। लयकारी के कार्य में तो आप अद्वितीय समझे जाते थे।

पण्डितजी के संपर्क में आने का जिन लोगों को सौभाग्य प्राप्त हुआ वे आपके सरल स्वभाव से अत्यन्त प्रभावित रहे । आपने देश के कोने-कोने में अपने कला ज्ञान की धाक जमाई । संगीतोद्धारक सभा, मुल्तान ने ‘गायक शिरोमणि’ अहमदाबाद आइ. ई. संगीत विभाग ने ‘गायन विशारद’ और ग्वालियर दरबार ने ‘संगीत रत्लालंकार’ उपाधि देकर आपको सम्मानित किया।

आपने संगीत विषयक साहित्य भी लिखा। हारमोनियम, सितार, जलतरंग और तबला-वादन पर आपने अलग-अलग पुस्तकें लिखीं। आपकी रचनाओं में ‘संगीत-सरगम-सार’ ‘संगीत प्रवेश’, ‘संगीत-आलाप-संचारी’ आदि पुस्तकें प्रसिद्ध हैं।

आपने अपना कार्य-क्षेत्र आरम्भ से ही ग्वालियर रखा । सन् 1913 ई० में महाराज सतारा ने आपको शिक्षक के रूप में अपने यहाँ रखा परंतु एक वर्ष बाद ही आपने यह कार्य छोड़ दिया। इसके उपरांत महाराज ग्वालियर ने आपको पाँच वर्ष तक अपने दरबार में रखा । इसी बीच आपने आधुनिक ग्वालियर-नरेश (तत्कालीन-युवरांज) और उनकी बहन सुश्री कमला राजा को संगीत-शिक्षा दी। परिस्थितियों से विवश होकर आपने दरबार छोड़ दिया और देशाटन के लिए निकल पड़े। तभी से आपके मन में एक संगीत विषयक अच्छी संस्था स्थापित करने की इच्छा जाग्रत हुई । फलतः 1914 ई० में आपने गांधर्व-महाविद्यालय नाम से ग्वालियर में एक संस्था स्थापित की। सन् 1917 ई० में उक्त संस्था का नाम आपने पिता की स्मृति में ‘शंकर गांधर्व विद्यालय’ रखा।

1926 ई० में ग्वालियर आलिया कौन्सिल द्वारा आपको तथा उमराव खाँ को दरबारी गायक नियुक्त किया गया।
पंडितजी की गायन-शैली की विशेषता यह थी कि उसमें प्रारंभ से ही लय कायम करके स्थाई के साथ ही आलापचारी रहती थी। इस प्रकार अलग से आलापचारी करने की आवश्यकता नहीं होती फिर धीरे-धीरे बाँट शुरू होता है। बाँट में बोलतान, किरततान, छूटतान, गमक जमजमा,
झटके मीण्डो की तानें, लागडाट लडंत और लडगुथाव आदि प्रायः सभी आलंकारिक तानें एक के बाद एक यथाक्रम से आती हैं। इन अलंकारों का एक खास क्रम है जो इनके घराने की अपनी शैली है।

सन् 1947 में ग्वालियर महाराज (श्रीमन्त जयाजीराव शिधिया) ने आपको स्थानीय माधव संगीत महाविद्यालय में सुपरवाइजर अलाउम्स देकर नियुक्त किया था। सन् 1949 ई० में आपको राष्ट्रपति पुरस्कार तथा सनद प्रदान किए गए। सन् 1962 ई० में खैरागढ़ विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया।

आपके चार सुपुत्रों में प्रो० नारायण राव पंडित, प्रो० लक्ष्मणराव पण्डित, चंद्रकांत व सदाशिव और शिष्यों में प्रो० विष्णुपंन चौधरी, रामचंद्रराव सप्तऋषि, पुरुषोत्तम सप्तऋषि, दत्तात्रय जोगलेकर, प्रो० केशवराव सुरंगे, एकनाथ आरोलकर, वि० पु० मानवलकर तथा सदाशिव राव अमृतमुले के नाम उल्लेखनीय हैं। पं० कृष्णराव ग्वालियर घराने के प्रतिनिधि कलाकार थे, जिनका देहावसान 22 अगस्त, 1989 को हुआ.

प्रश्न 15.
“संगीत और जीवन” पर निबंध लिखें।
उत्तर:
संगीत और जीवन का गहरा संबंध है। संगीत जीवन को आनंदमय बनाता है। बिना संगीत के जीवन नीरस सा लगता है। संगीत सुनने पर मनुष्य अनंद विभोर हो जाता है।

भावुकता से हीन कोई कैसा भी पाषाण-हृदय क्यों न हो किन्तु संगीत से विमुख होने का दावा उसका भी नहीं माना जा सकता । कहावत है कि गाना और रोना सभी को आता है। संगीत की भाषा में जिन व्यक्तियों ने अपने विवेक, अभ्यास और तपस्या के बल से स्वर और ताल पर अपना अधिकार कर लिया है, उनका विज्ञ समाज में आदर है, उन्हें बड़ा गवैया समझा जाता है। परंतु अधिकांश जनसमूह ऐसा होता है जो इस ललितकला की साधना और तपस्या से सर्वथा वंचित रह जाता है।

ऐसे व्यक्तियों को गायक नहीं कहा जाता है और न वे गायक कहलाने के पात्र ही होते हैं परंतु गाना ऐसे लोग भी गाते हैं। इन लोगों के जीवन का संबंध भी संगीत से प्रचुर मात्रा होता है। गाँव में गाए जानेवाले लोक-गीतों के विभिन्न प्रकार-कपड़े धोते समय धोबियों का गीत, भीमकाय पाषाणों को ऊपर चढ़ाते समय श्रमिकों का गाना, खेतों में पानी देते समय किसानों द्वारा गाए जाने वाले गीत, पनघट की ग्रामीण युवतियों के गीत तथा पशु चराते समय ग्वालों का संगीत इस कथन की पुष्टि के लिए यथेष्ट प्रमाण हैं। इस प्रकार के गीत को दैनिकचर्या में गाए जाते हैं। किसी विशेष अवसर पर, यथा-विवाह अथवा पुत्र-जन्मोत्सव पर अथवा किसी धार्मिक या सार्वजनिक समारोहों के अवसरों पर होनेवाले कार्यक्रम तो गीत और नृत्य से परिपूर्ण होते ही हैं।

विभिन्न देशों में संगीत के प्रकार चाहे भिन्न-भिन्न हो किन्तु प्रभाव और गुणों का रूपांतर नहीं होता है। संगीत का मौलिक रूप एवं उसके सृजनात्मक तत्त्व सभी स्थानों के संगीत में समान होते हैं।

प्रसन्नता की बात है कि आजकल विश्व के कुछ विशेषज्ञ एवं डॉक्टर संगीत के रहस्यपूर्ण तत्त्वों के अनुसंधान में संलग्न हैं। आजकल के परीक्षणों में अनेक ऐसी चमत्कारपूर्ण बातें मिली हैं, जिनके द्वारा अनुसंधानकर्ताओं का उत्साह बढ़ता ही चला जा रहा है। मानसिक रोगों पर, पक्षाघात अथवा पालगपन की बीमारी पर सच्चे संगीत की स्वर लहरियों ने आशातीत लाभ प्राप्त किया है। अनुसंधान के वर्तमान युग के वह दिन अधिक दूर नहीं जबकि विज्ञानवेत्ताओं द्वारा संगीत की छिपी हुई अनंत शक्ति का भंडार सर्वसाधारण हो समक्ष प्रकट हो जाएगा और मानव-जीवन के सृजनात्मक कार्यों में इसके तत्त्वों का अधिकरण प्रयोग होगा । तब हमारा मानव-समाज जीवन और संगीत के संबंधों को और भी अधिक समझ सकेगा, ऐसी आशा की जाती है।