BSEB Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 2 are the best resource for students which helps in revision.
Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 2
प्रश्न 1.
पूर्वांगवादी राग तथा उत्तरांगवादी राग क्या है ? इसके गायन का समय लिखें।
उत्तर:
पूर्वांगवादी का वादी स्वर सप्तक के पूर्वांग अर्थात स रे ग म इन स्वरों में से होता है। इसलिए इसे पूर्वांगवादी राग कहा जाता है। यह राग दिन के बारह बजे से रात्रि के बारह बजे तक ही गाये बजाये जाते हैं।
राग दो प्रकार के होते हैं-पूर्वांगवादी राग और उत्तरांगवादी राग।
उत्तरागवादी राग- का वादी स्वर सत्तक के उत्तरांग अर्थात् प ध नि सां इन स्वरों में से होता है तो वे उत्तरांगवादी राग कहे जाते हैं। ऐसे राग प्रायः दिन के उत्तर भाग अर्थात् रात्रि के बारह बजे से दिन के बारह बजे तक ही गाए-बजाए जाते हैं।
के वादी स्वर दो तरह के होते हैं। के गायन-वादन का समय ज्ञात हो जाता है। जैसे आसावरी का वादी स्वर धैवत है अर्थात् सप्तक के उत्तरांग स्वर है तो इसके गायन-वादन का समय भी प्रातः है। अर्थात् रात्रि के बारह बजे से दिन के बारह बजे तक का समय (उत्तर भाग) है, उसी के अंतर्गत प्रात:काल आ जाता है । यमन का वादी स्वर गंधार है जो कि सप्तक के पूर्वांग में से लिया हुआ स्वर है, अतः यमन राग के गायन-वादन का समय रात्रि का प्रथम प्रहर है, जो कि दिन के बारह बजे से रात्रि के बारह बजे तक के क्षेत्र (पूर्व भाग) में आता है इसलिए यमन ‘पूर्वांगवादी राग’ कहा जाएगा और आसावरी को ‘उत्तरांगवादी राग’ कहेंगे।
प्रश्न 2.
पन्ना लाल घोष की जीवनी लिखें।
अथवा, पन्नालाल घोष की जीवनी और संगीत में उनके योगदान का सविस्तार वर्णन करें।
उत्तर:
वर्तमान काल में बाँसुरी के स्तर को बढ़ाने का श्रेय स्व. पन्नालाल घोष को प्राप्त होता है। उनका जन्म सन् 1911 में पूर्वी बंगाल (बंग्लादेश) के चारीसाल नामक स्थान में हुआ था। पिता का नाम स्वर्गीय अक्षय कुमार घोष जो स्वयं संगीत के बड़े प्रेमी थी और सितार बजाते थे। घर के संगीतमय वातावरण ने आपके सभी भाइयों में संगीत के प्रति रुचि उत्पन्न कर दी। आपके एक भाई श्री ज्ञान घोष ने तबला सीखा और दो अन्य भाइयों श्री बिदुल घोष और श्री सुनील घोष ने गायन सीखा।
चौदह वर्ष की उम्र में स्वर्गीय पन्नालाल घोष ने बाँसुरी बजाना शुरू किया। सुरीले होने कारण शीघ्र ही अच्छा बजाने लगे। मन में सीखने की प्रबल इच्छा थी, अतः जिससे जो भी कुछ-मिल जाता, सहर्ष ग्रहण करते। कुछ दिनों के बाद आपको कोलकाता की एक फिल्म कम्पनी में काम मिल गया। सौभाग्यवश वहाँ अमृतसर के मास्टर खुशी अहमद से आपकी भेंट हो गई। वे संगीत के अच्छे ज्ञाता थे और हारमोनियम बजाने में निपुण थे।
उनसे आपने बाँसुरी सीखना शुरू किया। उनसे एक वर्ष तक ही सीख पाए थे कि आपको सन् 1938 में सरई कला नृत्य मंडली के साथ विदेश जाने का अवसर प्राप्त हुआ। एक ओर इस अवसर को आप छोड़ना नहीं चाहते थे और दूसरी ओर मास्टर खुशी अहमद का शिष्यत्व बनाए रखना चाहते थे किन्तु दोनों का संयोग असम्भव था। विदेश जाने की इच्छा बलवती हुई और नृत्य मंडली के साथ आप चल दिए। वहाँ से केवल 6 माह के बाद आप लौट आए। बाद में ये मुम्बई आ गए। वहाँ उन्होंने फिल्म संगीत में संगीत निर्देशक के मातृहत. में बांसुरी वादन का कार्य किया। इससे इनकी प्रसिद्धि बढ़ गयी थी।
20 अप्रैल, 1960 को प्रातः रक्तावरोध से दिल्ली में आकस्मिक देहांत हो गया जिनके कारण संगीत-संसार शोक-सागर में डूब गया । आपके शिष्य श्री देवेन्द्र मुर्हेश्वर अच्छी बाँसुरी बजा रहे थे, किन्तु कुछ दिनों पूर्व वे भी ईश्वर को प्यारे हो गये।
प्रश्न 3.
रवीन्द्र संगीत के बारे में विस्तार पूर्वक लिखें।
उत्तर:
इस देश में जहाँ एक ओर हमारा संगीत शास्त्रों में निबद्ध नियमों के अन्तर्गत ताल, लय एवं सुर के साथ व्याकरणस और गणित के नियमों के अन्तर्गत व्यवहृत होता चला आया है, वहीं दूसरी ओर यह भाषा और भाव की अभिव्यक्ति में उन नियमों को शिथिल कर क्षेत्रीय संगीत, लोक संगीत, सुगम संगीत, भजन, गजल, ठुमरी, दादरा आदि के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता रहा है, हमारा ‘रविन्द्र संगीत’ भी उन भाव प्रधान शैलियों में से एक है।
स्व. देवेन्द्र नाथ ठाकुर एक उच्च कोटि के विद्वान तथा वेद-उपनिषद् के ज्ञाता थे। साथ ही वे शास्त्रीय संगीत के अन्तर्गत विशेषकर ध्रुवपद, धमार के बहुत अच्छे जानकारों में से थे। अत: श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बाल्यावस्था से ही संगीत-संस्कार था। परन्तु उनके अन्तर से फुटने वाली भाव-प्रधान रस की धाराओं ने शास्त्रीय नियमों की कठोरता से हटकर “रवीन्द्र संगीत” नामक नई, शैली का जन्म दिया। रवीन्द्र संगीत की रचनाएँ बंगला भाषा में होने के कारण बड़ी ही सरस एवं आकर्षक है। उन पद रचनाओं की उन्होंने समसामयिक धमों से ऐसा समाया मानों सोने में सोहागा।
अपने गीत संगीत के विषय में ठाकुर का कथन है कि “गान लिखने में जैसा आनंद मुझे आता है वैसा और किसी काम में नहीं आता” अपने गान के स्थायित्व के विषय में उन्हें इतना दृढ़ विश्वास था कि उन्होंने कहा कि “सबसे अधिक स्थायी होगा मेरा गान, इसमें मैं बलपूर्वक कह सकता हूँ ……… लोक शोक, दुःख, सुख, आनंद में मेरे गान को बिना गाए रह ही नहीं सकेंगे। युग-युग तक उन्हें मेरे गान को गाना होगा। मैं जानता हूँ उस गान में मेरा एक विशेषत्व है …. ……… ये सुर किसी से उधार लिए गए नहीं है। उनका कहना है कि वे साहित्य और संगीत के अन्तर्गत रस का सृजन करते थे। अतः वे उसके माध्यम से विश्व को शाश्वत सम्पर्क स्थापित रखते थे। वेदना के साथ आनंद का, विरह के साथ मिलन का तथा मृत्यु के साथ अमरत्व का जो तादात्मय सम्बन्ध है रवीन्द्र संगीत उसी आनंद के सम्पर्क का परिचय देता है। रवीन्द संगीत का भाव तत्त्व बुद्धि और विचार की सीमा का अतिक्रमण करके एक दिव्यानुभूति प्रदान करता है।
रवीन्द्र संगीत मानव हृदय से स्फुरित करूणा, आनंद, उद्वेग आदि भावनाओं का एक मूर्त स्वरूप प्रदान करता है। इसमें शास्त्रीय राग-रागिनियों के मूल स्वरों में अन्य स्वरों का इतना सुंदर और सुमधुर समावेश है कि सहसा मन उसकी शास्त्रीयता से हटकर उसके भावनात्मक रसाभि व्यक्ति में विस्मृत हो जाता है।
प्रश्न 4.
निम्न की परिभाषा उदाहरण सहित लिखें :
मुर्की, श्रुति, ठेका, मींड, ओहव, खाली, वक्र स्वर, वर्जित और विकृत स्वर।
उत्तर:
मुर्की – द्रुत गति में तीन स्वरों की एक अर्ध गोलाई बनाने को मुर्की कहते हैं। यह एक प्रकार का कण है जिसको लिखने के लिए मूल स्वर की बाईं तरफ दो स्वरों का कण दिया जाता है। जैसे-धप। मो
श्रुति – इसका शाब्दिक अर्थ है जो कुछ सुना जाय, “श्रुयते इति श्रुति”। संगीत में इसका मतलब उस ध्वनि से हैं जिसे हम सुनकर समझ सकें। इसलिए शास्त्रकारों ने एक सप्तक में 22 श्रुतियाँ मानी है। इन 22 श्रुतियों को भली प्रकार समझ लेना और प्रयोग कर लेना साधारण संगीतज्ञ के वश की बात नहीं है।
ठेका- प्रत्येक ताल के कुछ निश्चित बोल होते हैं जिसे ठेका कहा जाता है। उदाहरणार्थ दादरा ताल का.ठेका “धा नी ना धा तू ना” और झपताल का ठेका “धी ना धी धी ना तो ना धी धी ना है।”ठेका लिखते समय ताली, खाली और विभाग बना देंगे।
मींड – किन्हीं दो स्वरों को इस प्रकार गाने अथवा बजाने को मींड कहते हैं जिनके बीच में खाली स्थान न रहे। दूसरे शब्दों में अटूट ध्वनि में एक स्वर से दूसरे स्वर तक जाने को मींड कहते हैं। मींड लेते समय बीच के स्वरों को इस प्रकार स्पर्श करते हैं कि वे अलग-अलग सुनाई नहीं
पड़ते। उदाहरणार्थ सा से मे म तक मींड लेते समय बीच के स्वरों का स्पर्श अवश्य होता है, किन्तु . वे अलग-अलग सुनाई नहीं पड़ते। मींड लिखने के लिए स्वरों के ऊपर उलटा अर्द्ध चन्द्राकार बनाते हैं। जैसे-सम।
ओडव – पाँच स्वर वाले रागों की जाति ओडव कही जाती है। भूपाली में म नी स्वर वर्ज्य है और आरोह-अवरोह सा रे ग प ध सां, सां ध प ग रे सा है, इसलिए इसकी जाति ओडव कहलाती है।
खाली – हाथ से ताल देते समय जब कभी ताली न देकर हाथ एक ओर हिला दिया जाता है तो उसे खाली कहा जाता है। खाली इसलिए दिखायी जाती है कि मालूम होता रहे कि उस समय कौन-सी मात्रा चल रही है। प्रत्येक विभाग पर ताली बजाने से मात्रा समझने में भूल हो सकती है।
बक्र स्वर – गाते-बजाते समय जिस स्वर का प्रयोग सीधी न होकर ‘टेढ़ा’ हो उसे बक्र स्वर कहते हैं। सपाट स्वर समुदायों में स्वरों का चढ़ाव उतार सीधा होता है, जैसे-सा रे ग म प अथवा प म ग रे सा। किन्तु जब हम किसी स्वर से आगे न जाकर पीछे लौट आते हैं तो जिस स्वर से हम लौटते हैं उसे बक्र स्वर कहते हैं। उदाहरणार्थ के लिए रे ग म प स्वर समुदाय में म वक्र स्वर है, क्योंकि इसमें म तक जाकर हम ग पर लौट आते हैं और आगे बढ़ते समय म को छोड़ देते हैं। इसी प्रकार प ध नि ध में नि वक्र है।
विकृत स्वर-स्वरों के मुख्य दो प्रकार है–शुद्ध और विकृत। जब कभी कोई स्वर अपने स्थान से थोड़ा हट जाता है तो उसे विकृत स्वर कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है, कोमल और तीव्रा कोमल स्वर नीचे उतरा होता है और तीव्र थोड़ा चढ़ा होता है। सप्तक में सात स्वर शुद्ध रे, ग, ध और नि कोमल तथा म तीव्र होता है।
वर्जित – आरोह अथवा अवरोह में जिन स्वरों को छोड़ दिया जाता है, वे स्वर वर्जित कहलाते हैं, जैसे–बिहाग के आरोह में ऋषभ और धैवत है।
प्रश्न 5.
संगीत की परिभाषा विस्तार में लिखें और यह बताएं कि गायन की प्रधानता क्यों दी गई है ?
उत्तर:
संगीत वह ललित कला है जिसमें स्वर और लय के द्वारा मनुष्य अपने भावों को प्रकट करता है। बोलचाल की भाषा में संगीत से केवल गायन समझा जाता है, किन्तु गायन, वादन और नृत्य तीनों को संगीत कहा जाता है। इस प्रकार संगीत के मुख्य तीन अंग हुए गायन, वादन और नृत्य। शारंगदेव लिखित, ‘संगीत रत्नाकर’ में कहा गया है, ‘गीत, वाद्यं तथा नृत्य त्रयं संगीत मुच्यते’ अर्थात्, गाना, बजाना और नृत्य इन तीनों का सम्मिलित रूप को संगीत कहा जाता है।
गायन, वादन और नृत्य इन तीनों में घनिष्ठ संबंध है। केवल इतना ही नहीं, तीनों एक दूसरे के पूरक है। गायन, वादन और नृत्य की, वादन, गायन और नृत्य की और नृत्य, गायन और वादन की सहायता करता है। ‘संगीत रत्नाकर’ में कहा गया है कि नृत्य वादन के और वादन गायन के आश्रित हैं, ‘नृत्य वाद्यानुगं प्रोक्तं वाद्यगीतार्नुवर्तिच’। अतः इन तीनों में गायन सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुआ है। दूसरे गायन में कविता का आनन्द मिलता है। वाद्य और नृत्य में कविता का आनन्द नहीं मिलता है। जब कविता को स्वर ताल में बांध देते हैं तो उसे गीत कहते हैं। गीत के बिना गायन पूर्ण नहीं है, इसलिए गीत को बहुत प्रधानता दी गयी है। केवल आलाप करने से तो गायकी पूरी नहीं होती, गीत का होना जरूरी है। शब्दों के द्वारा भाव प्रदर्शन अच्छा होता है। इसलिए अच्छे गायक गीत के शब्दों पर ध्यान अधिक देते हैं। वे उन्हीं गीतों का गाना पसंद करते हैं जिनके शब्द अच्छे होते हैं।
संगीत में गायन को इसलिए प्रधानता दी गई है कि संगीत के तीनों हिस्सों में गायन मुख्य है। गायन पर ही वादन और वादन पर नृत्य आधारित है।
प्रश्न 6.
शास्त्रीय संगीत/लोक गीत पर एक निबंध लिखें।
उत्तर:
हिन्दुस्तानी संगीत के मुख्य दो प्रकार हैं, लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत। लोक संगीत में कजरी, चैती, सावन गीत, बाऊल, भटियाली, होली, शादी के गीत आदि आते हैं। शास्त्रीय संगीत में बड़ा ख्याल, ध्रुपद, तराना, ठुमरी आदि आते हैं।
लोक गीत का प्रचार विशेषकर गाँवों में और शास्त्रीय संगीत का प्रचार शहरों में है। ग्रामवासी बड़े से बड़ा कार्य लोक गीत गाते-गाते कर डालते हैं। लम्बे से लम्बा रास्ता गीत गाते-गाते तय कर देते हैं। वे दिन भर कठिन परिश्रम करने के बाद अपनी सारी थकान केवल एक लोकगीत गाकर दूर कर देते हैं। दूसरी ओर शास्त्रीय संगीत को वे ही लोग समझ पाते हैं जिन्हें संगीत का थोड़ा बहुत ज्ञान होता है। इसलिए सभी लोग शास्त्रीय संगीत का आनन्द नहीं ले पाते हैं।
लोक गीत शब्द और भाव प्रधान होते हैं। उसके प्रत्येक पंक्ति में स्वाभाविकता छूती रहती . है, किन्तु शास्त्रीय संगीत. स्वर प्रधान होता है। उसमें स्वरों का सौन्दर्य अधिक दिखाया जाता है। नीचे के लोकगीत में वनवासी राम के वियोग में दुखी मां कौशल्या की मनोकथा का मार्मिक वर्णन किया गया है-
आषाढ़ मासूघन गर्जत घोर-रटत पपीहा कुहुकत मोर,
ठाढ़ी कौशल्या अवधपुर धाम, भीजत ब्है है,
लषण सिया राम खड़े तरूवर तर।
सावन में बरसे घन नीर, कैसे धरे कौशल्या धीर,
छोटी-छोटी वुन्दन बरसत नीर।
भीजत ब्है हैं सीता रघुवीर, झमकि झड़ लागी पठये तुम,
नारि वैरिन बन बालक मोरे, भादों में वरषै नीर अपार,
घर अपने सब ही संसार, गुंजत गुजित फिरत भुजंग,
राम लक्ष्मण और सीता संग रैन अंधियारी।
हम राग सूर मल्हार में एक ऐसे गीत की रचना कर रहे हैं जिसमें वर्षा ऋतु में वियोग की भावना व्यक्त की गई है-
गरजत घन कारे डर लागत है अधियारी।
एक तो जोर बहे पुरवारे, दूजे झिंगुर झनकारे।
कैसे ‘रामरंग’ बिन बरखा को दिन बीत ही हमारे।
लोक गीत में शब्द के साथ-साथ लय-ताल भी प्रधान होता है। इसलिए लोकगीत के साथ – ढोलक बजाया जाता है और श्रोता प्रायः ताली देने लगते हैं। शास्त्रीय संगीत जैसा कि ऊपर देखा जा चुका है स्वर प्रधान होता है और उसे सुनकर बहुधा ताली देने की इच्छा नहीं होती है।
शास्त्रीय संगीत के कुछ राग-लोक गीतों के आधार पर बने हुए हैं, जैसे वृन्दावनी सारंग, मांड, आसा, पहाड़ी आदि किन्तु लोक गीत हजारों वर्षों से चली आई परम्पराओं के आधार पर बने हैं।
प्रश्न 7.
सप्तक किसे कहते हैं ? इसके कितने प्रकार हैं ? पूर्ण रूप से समझाएँ।
उत्तर:
क्रमानुसार सात शुद्ध स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं। सातों स्वरों के नाम क्रमशः सा रे, ग, म, प, ध और नि है। इसमें प्रत्येक स्वर की आंदोलन-संख्या अपने पिछले स्वर से अधिक होती है। दूसरे शब्दों में सा से जैसे हम लोग आगे बढ़ते हैं, स्वर की आंदोलन संख्या बढ़ती जाती है। रे की आंदोलन संख्या सा से, ग की रे से व म की ग से अधिक होती है। इसी प्रकार प, ध और नी की आंदोलन अपने पिछले स्वरों से ज्यादा होती है। पंचम स्वर की आंदोलन संख्या सा से डेढ़ गुनी अर्थात् गुनी अर्थात् \(\frac{3}{2}\) गुनी होती है। उदाहरण के लिए अगर सा की आंदोलन संख्या 240 है तो प की आंदोलन सख्या 240 की डेढ़ गुनी 360 होगी। प्रत्येक सप्तक में सा के बाद रे, रे के बाद ग, म, प, ध और नि स्वर होते हैं। नि के बाद पुनः सा आता है और इसी स्वर से दूसरा सप्तक शुरू होता है। यह सा अथवा तार सा अपने पिछले सा से दुगुनी ऊँचाई पर रहता है और इसकी आंदोलन संख्या भी अपने पिछले सा से दुगुणी होती है। उदाहरण के लिए अगर मध्य सा की आंदोलन संख्या 240 है तो तार सां की आंदोलन संख्या इसकी दुगुनी 480 होगी। इसलिए सा, प और सां को एक साथ बजाने से उत्पन्न ध्वनि कानों को अच्छा लगता है।
सा से नि तक एक सप्तक होता है। नि के बाद दूसरा सा, तार (सा) आता है और इसी स्थान से दूसरा सप्तक भी शुरू होता है। दूसरा सप्तक भी नि तक रहता है और पुनः नि के बाद अति तार सा आता है, जहाँ से तीसरा सप्तक आरंभ होता है। इसी प्रकार बहुत से सप्तक हो सकते हैं किन्तु क्रियात्मक संगीत में अधिक से अधिक तीन सप्तक प्रयोग में माने जाते हैं। प्रत्येक सप्तक में 7 शुद्ध और 5 विकृत स्वर होते हैं। गायन-वादन में 3 सप्तक से अधिक की आवश्यकता नहीं होती है। अधिकांश व्यक्तियों का कन्ठ तीन सप्तक से भी कम होता है।
सप्तक तीन माने जाते हैं-
1. मन्द्र संप्तक,
2. मध्य सप्तक,
3. तार सप्तक
1. मन्द्र सप्तक – मध्य सप्तक के पहले का सप्तक मन्द्र सप्तक कहलाता है। यह सप्तक मध्य सप्तक से आधा होता है अर्थात् मन्द्र सप्तक के प्रत्येक स्वर की आंदोलन संख्या मध्य सप्तक के उसी स्वर के आंदोलन की आधे होगी। जैसे अगर मध्य प की आंदोलन 360 है तो मन्द्र पर की 360.की आधी 180 होगी, इसी प्रकार अगर मध्य म की आंदोलन 320 है तो मन्द्र म की. आंदोलन 320 की आधी 160 होगी। इस सप्तक में सात शुद्ध और पाँच विकृत स्वर होते हैं। मन्द्र सप्तक के स्वरों को लिखने के लिए भातखण्डे पद्धति में स्वर के नीचे बिन्दु लगाते हैं जैसे-नि ध प।
2. मध्य सप्तक – जिस सप्तक में हम साधारणतः अधिक गाते बजाते हैं मध्य सप्तक कहलाता है। इस सप्तक के स्वरों का उपयोग अधिक होता है। यह सप्तक दोनों सप्तकों के मध्य में होता है। इसलिए इसे मध्य सप्तक कहा जाता है। मध्य सप्तक के स्वर अपने पिछले सप्तक अर्थात् मन्द्र सप्तक के स्वरों से दुगुनी ऊंचाई पर और अगले सप्तक अर्थात् तार सप्तक के स्वरों के आधे होते हैं। चिह्न रहित स्वर से मध्य सप्तक का बोध होता है।
3. तार सप्तक-मध्य सप्तक के बाद सप्तक तार सप्तक कहलाता है जो मध्य सप्तक का दूना होता है। दूसरे शब्दों में तार सप्तक के प्रत्येक स्वर की आंदोलन-संख्या मध्य सप्तक के उस. स्वर की आंदोलन संख्या की दुगुनी है। जैसे मध्य रे की आन्दोलन 270 है तो तार रे की आन्दोलन 240 × 2 = 540 होगी।
इस सप्तक में भी 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र कुल मिलाकर 12 स्वर होते हैं। इतने ही स्वर तीनों सप्तक में होते हैं। उनमें केवल आन्दोलन का अन्तर होता है। मन्द्र सप्तक में किसी स्वर की जो आन्दोलन होती है, मध्य सप्तक में उसकी दुगुनी व तार सप्तक में उसकी चौगुनी होती है। किसी स्वर की आन्दोलन मन्द्र सप्तक में 100 है तो मध्य में 200 है और तार सप्तक में 400 होगी। इसी प्रकार अगर किसी स्वर की आन्दोलन मन्द्र सप्तक में 120 है तो मध्य सप्तक में उसी स्वर की आन्दोलन संख्या 120 × 2 = 240 होगी और तार सप्तक में उसी स्वर की आन्दोलन संख्या 120 × 4 = 480 होगी। भातखण्ड पद्धति में तार सप्तक के स्वर लिखने के लिए स्वर के ऊपर एक बिन्दु डालते हैं, जैसे-गं, म पं।
प्रश्न 8.
लय किसे कहते हैं ? लय और लयकारी में क्या भेद है ?
अथवा, लय के कितने प्रकार है ? विस्तार से समझाएं।
उत्तर:
संगीत में गायन, वादन और नृत्य की गति को लय कहा जाता है। हमारे नित्यप्रति के व्यवहार में कोई-न-कोई लय अवश्य रहती है। चलने-फिरने, लिखने-पढ़ने, बोलने-चिल्लाने आदि में ऐसा नहीं होता कि कुंछ शब्द शीघ्रता से बोलते हो, कुछ को धीरे से और कुछ शब्दों के बीच जहाँ भी चाहे जितनी देर तक रूक जाते हो, बल्कि इन सब में भी समान गति रहती है। संगीत में भी समान गति रहती है। संगीत में समान गति को लय कहते हैं।
लय के प्रकार – मोटे तौर से लय के तीन प्रकार हैं-बिलंबित, मध्य और द्रुत। गाते-बजाते अथवा नाचते समय कोई-न-कोई लय अवश्य रहती हैं। जब लय धीमी रहा करती है तो उसे विलंबित जब साधारण रहती है तो उसे मध्य और जब तेज रहती है तो उसे द्रत लय कहते हैं। साधारणतया मध्य लय घड़ी की एक टिक अथवा एक सेकेन्ड के बराबर रहती है।
कभी – कभी गायक या वादक को गाते-बजाते समय उसे अपनी लय से दूनी, तिगुनी या चौगुनी लय भी इस्तेमाल करनी पड़ती है इसी को लयकारी कहते हैं। दुगुन, तिगुन आदि के अलावा बहुत सी लयकारियाँ हैं। विलंबित लय मध्य की आधी और द्रुत इसकी दूनी मानी जाती है। इस प्रकार हम स्थूल रूप से यह कह सकते हैं कि विलंबित लय की एक मात्रा दो सेकेन्ड के, मध्य लय की एक मात्रा एक सेकेण्ड के तथा द्रुत लय की एक मात्रा आधी सेकेण्ड के बराबर होती है। व्यवहार में इसे पालन करने का कोई कठोर नियम नहीं है। कोई भी गायक अथवा वादक अपनी आवश्यकतानुसार लय को अधिक विलंबित अथवा द्रुत कर सकता है।
प्रश्न 9.
पंडित किशनजी महाराज की जीवनी पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
तबला के सुख्यात कलाकार पंडित किशन महाराज “साधना है संगीत किशन महाराज” संगीत साधना है, संगीत अराधना है, संगीत ही पूजा है। संगीत न हो तो आदमी बहशी हो जाय। यह जीवन को कायलता प्रदान करता है। जीवन में रस भरता है इसलिये तो एक संगीत साधक सदा मुस्कुरता है। संगीत उनके जीवन की संजीवनी है।
शिव की नगरी वाराणसी देश की सांस्कृतिक राजधानी, जहाँ संगीत और साहित्य की गंगा अविरत्न बहाती रहती है। इस नगर ने अनेक संतों, महात्माओं, विद्वानों, कवियों, कलाकारों को जन्म दिया। यहाँ की मिट्ठी, पानी और वातावरण में एक अमृत तत्व को उपलब्धता है। जो मुर्दा को भी जीवंत बना देता है। मिट्टी भी सोना बन जाता है। इसी माटी का स्पर्श पाकर अनेक विद्वानों, मनोषियों कलाकारों एवं चिन्तकों ने अपना संसार में रौशन किया और इस देश को गौरवान्वित किया।
कबीर की नगरी काशी, तुलसी की कर्मभूमि काशी बुद्ध की धर्म और दीक्षा भूमि काशी में अनेक विशेषताएँ हैं। यहाँ का कंकड़-कंकड़ शंकर स्वरूप है।
काशी स्थित कबीर की कीर्ति स्थलों के क्षेत्र का नाम है। कबीर चोरा, कबीर चोरा की गलियों में अनेक कीर्ति पुरुषों में एक कीर्तिपुरुष है पंडित किशन महाराज। पंडित किशन महाराज का जन्म 3 सितम्बर, 1923 को काशी के इसी कबीर चौरा मुहल्ले में हुआ यह जन्माष्टी का दिन था। अतः पिताजी ने प्यार से अपने बेटे को किशन कहकर पुकारा किशन परिवार के कृष्ण कन्हैया बन गये। सबके दुलारे सबकी आँखों के तारे। बड़े पिताजी पं० कण्ढे महाराज जो स्वयं एक ख्याति प्राप्त तबला वादक थे। उनको कोई संतान नहीं थी उन्होंने किशन को गोद ले लिया और उसने संरक्षण में तबला सिखाना शुरू किया। सात साल की उम्र से सुर ताल और लय की शिक्षा आरंभ हो गया। ज्यादातर रियाज का समय रात्रिकाल का होता है और फिर दिन में, सुबह के समय कुश्ती में बीतता। बागवानी का शौक, कबूतर और अन्य प्रकार के पक्षियों को पालने का शौक था। महाराजी को अच्छा भोजन और अच्छा पहनने का भी वेहद शौकीन थे। लम्बी नाक, उन्नत ललाट और उस पर रोड़ी का लाल टीका गौर वर्ण और आकर्षण कट-काठी लगता है। ब्रह्मजी ने अत्यंत मनोयोग से इस व्यक्तित्व का निर्माण किया था। संगीत के इन महारथियों ने लंबी साधना की है। तब जाकर उस ऊंचाई तक पहुँच पाय।
स्कूल – कॉलेज में संगीत की शिक्षा ली। बनारस घराने के प्रसिद्ध तबला वादक पंडित किशन जी महाराज का गत रात 5 मई को एक प्राइवेट नर्सिंग होम में निधन हो गया। वे 85 वर्ष के थे।
प्रश्न 10.
अमीर खुसरो की जीवनी लिखें।
उत्तर:
संगीत जगत में अमीर खुसरो का नाम कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। अमीर खुसरो का जन्म 1253 ई. में एटा जिले के पटियाली नामक स्थान पर हुआ। उनके पिता का नाम अमीर मोहम्मद सैफुद्दीन था जो बलवन के पटियाली आकर बस गये। अमीर खुसरो बहुत बुद्धिमान थे। अतः अमीर मोहम्मद के देहांत के बाद उन्हें तत्कालीन गुलाम वंश के राजा गयासुद्दीन बलवन का राजाश्रय प्राप्त हो गया। कुछ दिनों तक कई राज्यों में नौकरी करने के बादवह अलाउद्दीन खिलजी के पास चला गया। अलाउद्दीन खिलजी संगीत का बड़ा प्रेमी था। उसने उसे राज गायक बना दिया। खुसरो शायरी भी करते थे और रोज अलाउद्दीन को नए गजल सुनाया करता था। अलाउद्दीन के दरबार में कई अन्य संगीतज्ञ भी थे।
कहा जाता है कि जब अलाउद्दीन खिलजी ने सन् 1294 में दक्षिण भारत के देवगिरी राज्य पर विजय प्राप्त किया तो अलाउद्दीन के साथ अमीर खुसरो भी गये। गोपाल नायक देवगिरी का राज्य गायक था। वहाँ इन दोनों संगीतज्ञों में प्रतियोगिता हुई और खुसरो ने छल-कपट से उसे हरा दिया। खुसरो को गोपाल नायक के विद्वता की सच्ची परख थी। अतः वह उसे दिल्ली ले गया और उसके साथ रहकर संगीत में महत्त्वपूर्ण कार्य किया, जो इस प्रकार है-
अमीर खुसरो ने जनरूचि का अध्ययन किया और नये-नये वाद्यों, राग, गीत और तालों की रचना की। छोटा ख्याल को जन्म देने का श्रेय उन्हीं को है। कुछ विद्वानों ने मतानुसार उन्होंने छोटा ख्याल, कव्वाली तथा तराना तीनों का आविष्कार किया। उनके तराने प्रायः एकताल में होते थे तथा उसमें फारसी के शेर होते थे।
इसके अतिरिक्त अमीर खुसरो ने कई वाद्यों को जन्म दिया। कहा जाता है कि उसने दक्षिण वीणा में चार तार के स्थान पर तीन तार लगाए और उसे सोहतार की संज्ञा दी। फारसी में सह के अर्थ तीन होते हैं। सेहतार धीरे-धीरे सितार हो गया। तबले के विषय में भी अमीर खुसरो को इसका रचयिता कहा गया है। कहा जाता है कि उसने पखावज को बीच से दो भागों में विभाजित कर तबले की रचना की। अमीर खुसरो ने कुछ नये रागों और तालों की रचना की। रागों में पूटिया, साजगिरि, पूर्वी जिला, शहाना आदि तथा तालों में झुमटा, त्रिताल, आड़ा, चारताल, पश्तो, सूलफाक आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
कहा जाता है कि उसने फारसी और संगीत पर कुछ 99 पुस्तकें भी लिखी जो जिनमें से 22 उपलब्ध हैं। सन् 1324 में उनके उस्ताद निजामुद्दीन औलिया का देहावसान हो जाने से उन्हें काफी दुख हुआ। उस समय से वे संसार से विरक्त रहने लगे। उन्हें अपना जीवन भार स्वरूप मालूम पड़ने लगा और सन् 1325 में उनकी मृत्यु हो गयी। दिल्ली में उनकी कब्र उनके गुरु के पायताने बनाई गई है जहाँ आज भी प्रति वर्ष कव्वाल ‘लोग उनकी याद में उर्स मनाते हैं।
प्रश्न 11.
पं. ओंकार नाथ ठाकुर की जीवनी लिखें।
उत्तर:
आधुनिक युग के महान संगीत विद्व एवं सिद्धस्त गायक पं. ओंकार नाथ ठाकुर का जन्म 24 जून, 1897 को जहाज गाँव में पं. गौरी शंकर ठाकुर. के पुत्र के रूप में हुआ। चार साल की उम्र में अपने पिता के साथ घर-बार छोड़कर नर्मदा के किनारे कुटिया बनाकर रहने लगे। चौथे दर्जे तक पढ़ाई करने के बाद पंडितजी अपने घर की दयनीय स्थिति को सुधारने के विचार से रसोइया और एक मिल में मजदूर का काम करने लगे। बचपन से सुधारने के विचार से रसोइया और एक मिल में मजदूर का काम करने लगे। बचपन से ही संगीत के प्रति हार्दिक अभिरूचि थी तथा आवाज भी मधुर थी। आस-पास में कहीं संगीत का कार्यक्रम होता था तो वहाँ जाकर अवश्य सुनते।
इनके पिता का देहांत तब हुआ जब ये 14 साल के थे। इसके बाद भरौंच के एक पारसी सेठ ने इनका मधुर गायन सुनकर इन्हें पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्करजी के पास संगीत शिक्षा के लिए गांधर्व महाविद्यालय बम्बई में भर्ती कर दिया। वहाँ इन्होंने 5 वर्ष का पाठ्यक्रम केवल 3 वर्षों में समाप्त कर दिया। यद्यपि इनके बड़े भाई उन्हें एक नाटक कम्पनी में नौकरी कराने के लिए बेचैन थे, परन्तु इन्हें पसंद नहीं था। अतः गुरू से कहकर इन्होंने अपनी सुरक्षा कर ली तथा ये गुरू की सेवा में ही रहे। उन्हें गांधर्व महाविद्यालय लाहौर का प्राचार्य बना दिया जहाँ इन्होंने महाविद्यालय के अतिरिक्त सर्वसाधारण के बीच संगीत का प्रचार-प्रसार किया।
इनकी आवाज बहुत गंभीर, सुमधुर थी तथा इनका गायन इतना प्रभावशाली था कि श्रोतागण सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते। इनकी आलाप करने की शैली बहुत अलग थी जो श्रोताओं को भाव-भिभोर कर देता। यद्यपि ये मुख्य रूप से ख्याल गायक थे, फिर भी ध्रुवपद, धमार तथा टप्पा का प्रदर्शन भी सहजता पूर्वक करते थे। बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी के संस्थापक पं० मदन मोहन मालवीय ने संगीत प्रभाकर की उपाधि तथा केन्द्र सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया। इन्होंने अनेक यूरोपीय देशों की यात्रा कर भारतीय संगीत के मूल तत्त्वों से उन देशवासियों को अवगत कराया। इन्होंने “संगीतांजलि”,”प्रणव भारती”,”राग अनेरस” आदि अनेक संगीत सम्बन्धी ग्रंथों की रचना किया। इन्होंने अपने शरीर त्यागने के पूर्व तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत विभाग के प्राचार्य के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनकी मृत्यु 28 दिसम्बर, 1967 की हो गयी।
इन्होंने नेपाल के अलावा इटली, फ्रांस, जर्मनी, बेलजियम, स्विट्जरलैण्ड और इंगलैण्ड की यात्रा की और जहाँ भी गए भारतीय संगीत का मस्तक ऊंचा किया। विदेश में ही अपनी पत्नी की मृत्यु को समाचार पाकर वे बड़े दुखी हुए और स्वदेश लौट आए और बम्बई में रहने लगे। इन्हें 1952 में भारत सरकार द्वारा अफगानिस्तान भेजा गया जहाँ पर उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक मंडल का नेतृत्व किया। 1953 में बुडापेस्ट और 1954 में जर्मनी में आयोजित विश्व शांति परिषद् में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
कला के साथ-साथ उन्होंने शास्त्र पक्ष पर भी बहुत ध्यान दिया। 1938 में संगीतांजलि प्रथम भाग प्रकाशित किया जिसमें कलापक्ष पर प्रकाश डाला गया।
प्रश्न 12.
तानसेन की जीवनी लिखें।
उत्तर:
तानसेन का असली नाम तन्ना मिश्र था और पिता का नाम मकरन्द पांडे। कुछ लोग पांडेजी को मिश्र भी कहते थे। तानसेन का जन्म तिथि के विषय में अनेक मत है। अधिकांश विद्वानों के अनुसार, उनका जन्म 1532 में ग्वालियर से सात मील दूर बेहट ग्राम में हुआ था। उनके जन्म के विषय में रहस्य बनी हुई थी कि मकरन्द पांडे संतानहीन थे। अत: वे बहुत चिंतित रहा करते थे। मुहम्मद गौस नामक फकीर के आशीर्वाद स्वरूप उन्हें एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे तन्ना के नाम से पुकारा गया। अपने पिता के एकमात्र संतान होने के कारण उनका लालन-पालन बड़े प्यार में हुआ। फलस्वरूप अपनी बाल्यावस्था में वे बड़े नटखट और उदण्डी रहे।
प्रारंभ से ही तन्ना में दूसरों की नकल करने की बड़ी क्षमता थी। तन्ना पशु-पक्षियों तथा. जानवरों की विभिन्न बोलियों की सच्ची नकल करता था और नटखट प्रकृति का होने के कारण हिंसक पशुओं को बोली से लोगों को डरवाते थे। इसी बीच स्वामी हरिदास से उनकी भेंट हुई। एक बार स्वामी जी अपनी मण्डली के साथ पास के जंगल से गुजर रहे थे। तन्ना ने एक पेड़ की आड़ से शेर की बोली से उन्हें डरवाने को सोचा। अत: साधु मण्डली बहुत घबराई। थोड़ी देर बाद तानसेन हँसता हुआ आया। स्वामी हरिदासजी उसकी प्राकृतिक प्रतिभा से अत्यधिक प्रभावित हुए और उनके पिता से तानसेन को संगीत सिखाने के लिए माँग लिया और अपने साथ तानसेन को वृन्दावन ले गए।
इस प्रकार तानसेन स्वामी हरिदास के साथ रहने लगे और दस वर्ष तक उनसे संगीत शिक्षा प्राप्त करते रहे। अपने पिता की अस्वस्थता सुनकर तानसेन अपने मातृभूमि ग्वालियर चले गए। तब स्वामी हरिदास से आज्ञा लेकर तानसेन मोहम्मद गौस के पास रहने लगे। वहाँ वे कभी-कभी ग्वालियर की विधवा रानी मृगनयनी का गायन सुनने के लिए उसके मंदिर चले जाया करते थे। वहाँ उसकी दासी हुसैनी की सुन्दरता और संगीत ने तानसेन को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। तानसेन के चार पुत्र हुए मुरतसेन, शरतसेन, तरंगसेन, विलास खाँ और सरस्वती नाम की एक पुत्री।
जब तानसेन एक अच्छे गायक हो गए तो रीवां नरेश रामचन्द्र ने उन्हें राज्य गायक बना लिया। रामचन्द्र और अकबर की घनिष्ठ मित्रता थी। तानसेन को अकबर के दरबार में भेंट किया गया। अकबर स्वयं एक संगीत प्रेमी था। वह उन्हें पाकर काफी प्रसन्न हुआ। धीरे-धीरे अकबर तानसेन को काफी पसंद करने लगा। अकबर के दरबार में जितने गायक थे सब मिलकर अकबर से प्रार्थना किया कि तानसेन से दीपक राग गवाया जाए। तानसेन को दीपक राग गाने के लिए बाध्य कर दिया। अतः तानसेन को दीपक राग गाना पड़ा। गाते गाते गर्मी बढ़ने लगी और चारों ओर अग्नि की लपटे निकलने लगी। श्रोतागण तो गर्मी के मारे भाग निकले, किन्तु तानसेन का शरीर प्रचण्ड गर्मी से जलने लगा उसकी गर्मी को उनकी पुत्री सरस्वती ने मेघ राग गाकर अपने पिता की जीवन की रक्षा की।
बैजू बावरा तानसेन का समकालीन था। एक बार दोनों गायकों में प्रतियोगिता हुई और तानसेन की हार हुई। इसके पूर्व तानसेन ने यह घोषणा करा दी थी कि उसके अतिरिक्त राज्य में कोई भी व्यक्ति गाना न गाए और जो गाएगा तानसेन के साथ उसकी प्रतियोगिता होगी। जो हारेगा उसे उसी समय मृत्यु दण्ड मिलेगा। कोई गायक उसे हरा नहीं सका। अन्त में बैजू बावरा ने उसे परास्त किया। शर्त के अनुसार तानसेन को मृत्यु दण्ड मिलना चाहिए था। किन्तु बैजू बावरा ने उसे क्षमा कर अपने विशाल हृदय का परिचय दिया।
तानसेन ने अनेक रागों की रचना की जैसे दरबारी काहड़ा, मियाँ की सारंग, मियाँ की तोड़ी, मियाँ मल्हार आदि। तानसेन के बाद में मुसलमान धर्म स्वीकार कर लिया। इस पर अनेक विद्वानों का अनेक मत है। कुछ का कहना है कि गुरु की आज्ञा से वे मुसलमान हो गए और कुछ का कहना है कि अकबर की पुत्री से उसकी शादी हुई थी इसलिए उसने मुसलमान धर्म को स्वीकार किया। लेकिन कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि तानसेन मुसलमान हुए ही नहीं उसने फकीर गुलाम गौस की स्मृति में नवीन रागों के नाम के आगे मियाँ शब्द जोड़ दिया जैसे मियाँ मल्हार आदि। 1585 में दिल्ली में तानसेन की मृत्यु हो गयी और ग्वालियर में गुलाम गौस के कब्र के पास उनकी समाधि बनायी गयी।