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Bihar Board 12th Pali Grammar Important Questions
विभत्ति प्रकरण
कारक को पालि में विभति कहा जाता है। हिन्दी की तरह ही पालि में भी विभक्ति (कारक) का प्रयोग शब्दों के साथ किया जाता है। परन्तु पालि में कभी-कभी विशेष ढंग से इसका प्रयोग किया जाता है।
पठमा विभत्ति – किसी वाक्य के कर्ता के साथ ‘पठमा’ विभत्ति का प्रयोग होता है। जैसे-बालको, पठति, कञा लिखति।
दुतिया विभत्ति – किसी वाक्य के कर्ता के साथ कर्तृवाच्य के कर्म में ‘दुतिया’ का प्रयोग होता है। जैसे- सिस्सा पोत्थकं पठन्ति, दासी चुल्लिं लिम्पति आदि।
लगातार धि, अभि, पति, अनु, लिवना, अञत्र आदि के योग में दुतिया’ विभत्ति होती ‘ है। जैसे-
लगातार – सिस्सा दिवसं पोत्थकं पठन्ति। कोसं रुक्खो।
धि – धि अलसं पुत्त।
अभि – बालको नगरं अभिधावति।।
पति – सिस्सो पसन्नो आचरियं पति।
अनु – भगवन्तं अनुगच्छति आनन्दो।
विना – आचरियं बिना सिस्सा न पठन्ति।
अल्लत्र – तथागतं अज्ञत्र को अञ्जो ‘लोकनायको’
अन्तरा – अन्तराचं राजगह, अन्त राच नालकं अम्बंलट्टिका होति।
ततिया विभत्ति – ‘ततिया विभत्ति का प्रयोग भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के कर्ता, करण कारक क्रिया विशेषण, साथ तुलना लक्षण, हेतु बिना, अञत्र, पृथक आदि के अर्थ में होता है। जैसे-
भाववाच्य – भूपेन अत्र भूयते।
कर्मवास्य – आचरियेन पोत्थकं दीयते।
करण कारक – सिस्सो मसिना लिखति।
क्रिया विशेषण – पञ्चकेन गजो किणाति।
साथ – आचरियेन सदिसो सिस्सो।
लक्षण – नयनेन कोणों मनुस्सो।
हेतु – याचकों इध अन्नेन वसति।
बिना – खीरेन बिना सिसु रोदति।
अञत्र – तथागतेन अञत्र को अञ्जो लोकनायको।
पृथक – पृथुजेव नगरेन भिक्खु अरचं अधिवसति।
चतुत्थी विभत्ति – सम्प्रदान उसके लिए रुचि, क्रोध, ईर्ष्या के अर्थ में चतुत्थी विभत्ति का उपयोग किया जाता है, जैसे-
सम्प्रदान – भगवा भिक्खून धम्म देसेति।
उसके लिए – वहुजन सुखाय बुद्धो धम्म देसेति।
रुचि – बालकांन अनज्झायो रूच्चति।
क्रोध – आचरियो सिस्सांनं कुप्पति।
ईर्ष्या – सिस्सा, सिस्मानं इस्सन्ति।
पञ्चमी विभत्ति – अपादान, भय, सा, ग्रहण, ऋण, पृथु, पति, बिना अत्र आदि के योग में पञ्चमी विभत्ति लगाई जाती है।
अपादान – पण्णानि रुक्खस्मा, पतन्ति।
रक्षा – बलवा फरिसो चोरस्मां जामं रक्खति।
ग्रहण – माणवको आचरियस्मा सिक्खं गणहाति।
ऋण – सो सतस्मा बद्धो।
पृथु – पृथुगेव गामस्मा इसयो ‘पब्बत स्स गुहायं अधिवसन्ति।’
पति – अजा तसत्तस्मा पति सुनीधो।
बिना – हातस्मा बिना दीपो न झायति।
अञत्र – हाथागतस्मा अज्ञत्र को अज्ञो लोकनायको ?
छटठी विभनि – सम्बन्ध, कृदन्त एवं हेतु के अर्थ में तथा अनेक जाति, गण अथवा क्रिया में से किसी एक को चुना जाय तो, छट्ठी विभत्ति होती है। जैसे-
सम्बन्ध – आमस्स जना बुद्धस्स धर्म सुणोन्ति।
कृदन्त – विनयस्य आतारो भिक्खथो आगच्छत्ति।
हेतु – याचको उदरस्स हेतु इहा वसति।
जाति – अनुस्सानं खत्तियो सेद्धो।
गुण – सीहो, पसून बल सम्पन्नो भवति।
क्रिया – दानानं धम्मदानं सेट्ठ।
सत्तमी विभत्ति – क्रिया के आधार (अधिकरण) में, निमित्त के अर्थ में, एक काम के बाद दूसरे काम के होने पर अधिक होने के अर्थ में ‘उप’ शब्द के योग में स्वामी होने के अर्थ में ‘अधि’ शब्द के योग में तथा अनेक जाति, गुण या क्रिया में से किसी एक को चुनना हो तो ‘सत्तमी’ विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे-
क्रिया के आधार में-वातयानानि आकासे डयन्ति।
निमित्त के अर्थ में-अजनम्हि मिगं हति।
एक काम के होने पर दूसरे काम के होने पर एवं वुत्ते भिक्खुणियों मंकु अहेंसु।
अधिक होने के अर्थ में ‘उप’ शब्द के योग में- उप – भिक्खुणीस भिक्खवो संघ सन्ति।
स्वामी होने के अर्थ में ‘अधि’ शब्द के योग में- मगधेसु अजातसत्रु वेदेहिपुतो।
जातिनिर्धारण में – मनुस्सेसु खत्तियौ सहो।
गुण निर्धारण में – कण्हा गावीसु सम्पन्न खीरतमा।
क्रिया निर्धारण में – दानेसु धम्मदानं सेट्ठ।
आलपन विभत्ति – ‘आलपन’ विभत्ति आमन्त्रण करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है। जैसे-आयाम-नन्द ! देमें, भिक्खवे, अन्ता पब्बजितेन न सेवितब्बा। कभी-कभी पठमा विभत्ति का भी प्रयोग आलपन में हो जाता है। जैसे-रे धुत्ता ! जे अम्बपालि ! आदि।
संधि
दो अक्षरों (स्वर व्यंजन या निग्गइति) के परस्पर सम्मिलन को संधि कहते हैं। इनके इस सम्मिलन से प्रायः शब्दों के आकार और ध्वनि में अन्तर आ जाता है।
जैसे – सु + आगतं = स्वागतं आदि।
संधि के तीन भेद किए गए हैं-
- सर (स्वर) संधि
- व्यंजन संधि, और
- निग्गहीत सन्ध
1. स्वर सन्धि
दो स्वरों के मिलन स्वरूप जो विकार उत्पन्न होता है, उसे स्वर सन्धि कहते हैं। जैसेते + अज्ज = त्यज्जा।
स्वर संधि की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती है-
(क) स्वर के बाद यदि स्वर आवे तो कभी-कभी पूर्व स्वर लुप्त हो जाता है, जैसे-
तत्र + इमे = तत्रिमे, पुरिस + उत्तमी = पुरिसुत्तमो, पञान + इन्द्रिय = पद्धिन्द्रिय, नोहि + एतं = नोहेतं, भिक्खूनी + ओवादो = भिक्खुनोवादो, भोणी + इन्दो = भोगिन्दो, समेतु + आयस्या = समेतामस्या , अभिभू + आयतनं = अभियातेनं, ने + अलि = मथ, असन्तो + एत्थ. = असन्तेथ ऐसी + ओवुसो = एसावुसो, महा + इच्छो = महिच्छो आदि।
(ख) यदि स्वर के बाद स्वर आता है, तो कभी-कभी पर स्वर का लोप हो जाता है-
छाया + इव = छायाव, सा + एव = साव, ते + अहं = तेहं, आकासेन + इव = आकासेव, चत्तारो + इमे = चत्तारो मे, ततो + एव = ततोव, यतो + उढकं = यतोढकं, वसलो + इति । = वसलोति, सो + अपि = सोपि।
(ग) स्वरोपरान्त स्वर के पर्दापण होने पर कभी-कभी सन्धि की अवस्था में दोनों स्वर बने रहते हैं। जैसे-
कञान + इव = काइव, छाया + इव = छायाइव, लता + इव लताइव आदि।
(घ) कभी – कभी लुप्त स्वर अर्थात अकारान्त शब्द के बाद आने वाले ‘इ’ का ‘ए’ तथा ‘उ’ का ओ हो जाता है। जैसे – तस्स + इदं = तस्सेदं, वात + ईरितं = वातरितं, वाम + ऊरु – वामोरु, सीत + उदकं = सीतोदक।
(ङ) यदि ‘इ’ तथा ‘उ’ के बाद कोई स्वर आता है तो कभी-कभी ‘इ’ का ‘य’ एवं ‘उ’ का ‘व’ हो जाता है। जैसे- इति + अस्स = इत्यस्स, वि + आकतो = वयाक्तो, बदु + आवाधो = वहादो। सुन + आगतं = स्वागतं आदि।
(च) पुनः यदि ‘ए’ या ‘आ’ के उपरान्त कोई स्वर आता है, हो क्रमशः ‘ए’ का य तथा ‘ओ’ का व बन जाता है। जैसे- ते + अज्ज = त्यज्ज, मेन + अयं = म्याय, पब्बते + अहं = पब्बल्याहं, सो + अहं = स्वाहं, आदि।
(छ) यदि ‘गो’ शब्द के बाद कोई स्वर आवे तो ‘गो’ का गव आदेश हो जाता है। जैसे- गो + अलं = गवास्सं, गो + एलकं = गवेलकं आदि।
अपवाद यस्मा + इह = यस्माति, मनसान + अञा = मनसादञ्जा, चिरंन + आयति = चिरन्नायति, लहुनएस्सति = लहुमेससति, न + इमस्स = नयिमस्स, सब्भि + एव = सब्मेिरेव, . – तथा + एव = तथाखि, यथा + एव = यथखि, छ + अभिंञा = छ अभिञा आदि।
2. व्यञ्जन संधि
व्यञ्जन के बाद स्वर या व्यञ्जन हो, तो उनके मिलन से पैदा होने वाले विकार को व्यञ्जन – सन्धि की संज्ञा प्रदान की जाती है। जैसे- प + बजं = पब्बजं इसके नियम निम्नांकित हैं-
(क) यदि किसी ‘ह्रस्व स्वर’ के बाद कोई व्यञ्जन आवे तो वह ‘स्वर’ दीर्घ और दीर्घ स्वर के बाद व्यञ्जन आवे तो ‘स्वर’ ‘ह्रस्व’ हो जाता है। यथा + खन्ति + परम = खन्ती परमं, जायति + सोको जायतीसोकी, मुनि + चर = मुनीचेर माल + भारी = मालभारी।
(ख) स्वर के बाद यदि व्यंजन हो, तो कभी-कभी उस व्यञ्जन का द्वित्व हो जाता है। जैसे- इध + पमादो = इधप्पमादो, दु + कतं = दुक्कतं (दुक्कटं, प + गहो = प्पगहो, प + बजं = पब्बजं, वि + गहो = विग्गहो आदि।
(ग) यदि किसी वर्ण के पूरे किसी वर्ण का ‘द्वितीय’ या ‘चतुर्थ’ वर्ण आवे तो सन्धि के समय ‘द्वितीय’ पूर्व उसी वर्ग का प्रथम एवं ‘चतुर्थ’ वर्ग पूर्व उसी वर्ण का ‘तृतीय’ वर्ग का आगम होता है। यथा-अ + खन्ति = अक्खन्ति सरोवत + ज्ञानफलटो = एसोवतन्झानफलो, ,नि + ठान = निट्ठानं, सेत + छतं = सेतच्छतं, यस + थेरो = थसत्थेरे, अनफुटं = अप्फुटं आदि।
(घ) ‘ए’ तथा ‘ओ’ के बाद यदि कोई वर्ण आता है तो ‘ए’ तथा ‘ओ’, ‘अ’ में परिवर्तित हो जाते हैं। यथा- अकरम्हसे + ते = अकरम्हसते, अब्मो + अखायति = अग्मक्वायति, एसो + अत्तथो = एसत्थो, एसी + धम्मो = एसधम्मो, याचके + आगते = याचकमागते, सो + सीलवा = ससीलवा आदि।
3. निग्गहीत – सन्धि
निग्गहीत के बाद आने और जुड़ने वाले स्वर या व्यञ्जन के कारण होने वाले परिवर्तन को ‘निग्गहीत संधि’ के नाम से पुकारा जाता है। इसके प्रमुख नियम इस प्रकार हैं-
(क) दो वर्गों के मिलन स्वरूप कभी-कभी ‘निग्गहीत’ (अं) का आगम होता है। यथाअव सिरो = अवसिरो, चक्खु + उदपादि = चक्खुंउदपादि (चक्खुमुदपादि) त + खणे, = तंखेणे, त + सभावो = तंसभावो पुरिम + जाति = पुरिमं जाति, याव + विध = यावविध आदि।
(ख) कभी-कभी दो वर्गों में सन्धि होते समय पूर्व शब्द के अन्तिम वर्ण पर रहने वाले ‘निग्गहीत’ का लोप हो जाता है। जैसे- एवं + अहं = एवाह, कथं + अहं = कयांह, गन्तुं + कामां = गन्तुकामो, वुद्धानं + सासनं = वुद्धानसासन, सं + स्तो = सास्तो, सं + रम्भो = सारम्भो, सं + रागो = सारागो. आदि।
(ग) कभी-कभी निग्गहीत के उपरान्त आनेवाला ‘स्वर’ लुप्त हो जाता है। यथा-अभिनन्द + इति = अभिनन्दति, अलं + इदानि = अलन्दानि, इदं + अपि, इदम्पे, किं + इदानि = किन्दानि, किं + इति = कित्ति, त्वं + असि = वसि, वीजं + इव = वीजंत आदि।
(घ) निग्गहीत से परे यदि कोई वर्गीय वर्ण रहता है, तो वह निग्गहीत उसी वर्ग के अन्तिम वर्ग में परिणत हो जाता है। जैसे- तं + करोति = तङ्गरोति, तं + चरति = चञ्चरति, तं + कानं = तण्ठान, तं + धनं = तन्धन। तं + पाति = तम्पाति आदि।
(ङ) कहीं-कहीं निग्गहीत के बाद आने वाला स्वर लुप्त हो जाता है और लुप्त स्वर के बाद व्याख्या संयुक्त व्यञ्जन असंयुक्त हो जाता है। जैसे- एवं + अस्स = एवंस, पुफ्फं + अस्सा = पुफ्फंसा आदि।
(च) निग्गहीत के बाद यदि ‘य’, एव या हि रहे तो कभी-कभी निग्गहीत का न हो जाता है। यथा-यं + एल = यज्ञदेव, तं + एव = तजेव, तं + हि = तज्हि आदि।
(छ) यदि ‘स’ शब्द के बाद ‘य’ अक्षर आवे तो ‘सं’ का निग्गहीत ‘अ’ बन जाता है। यथा- सं + यतो = सञतो,, सं + यमो = सञमो।
(ज) स्वर से परे यदि ‘निग्गहीत’ हो तो कहीं-कहीं निग्गहीत का ‘म’, ‘य’ या ‘द’ आदेश ‘हो जाता है, जैसे-तं + अहं = तमहं, तं + इदं = तायिदं, तं + अलं = तदल आदि।
अपवाद = छ + अग्गं = छलग्गं छ + आयतन = छलायतन, तं + इमिना = तदमिना, साकि + आगामी = सकदागामी, एक + इध + अहं = एकमिदाह, संविधाय + अवहारो = संविदावहारो, वारिनो + वाहको = वलाहको, जीवन + मूतो जीमूतो, छव + सयनं = सुसानं आदि।
समास
दो या दो से अधिक विभिन्न अर्थक पदों का एकार्थक एक पद हो जाने को समास कहते हैं। जैसे- जितानि इद्रियानि येन सो-जितिन्द्रयो आदि इसके छः भेद हैं-
1. अव्ययी भाव
2. बहुब्रीहि
3. तत्पुरुष
4. कर्मधारम
5. द्विगु और
6. द्वन्द
1. अव्ययीभाव-अव्यय (उपसर्ग) के साथ जब किसी अन्य शब्द का योग होता है, तब उसे ‘अव्ययीभाव समास की संज्ञा दी जाती है। यथा-
अव्यय – समास – विग्रह
अधि – अधित्थि – इत्थीसु कथा पवत्त।
स – सब्रह्मं – सम्पन्न ब्रह्मा
सु – सुभिक्खं – समिद्धि भिक्खानं
उप – उपकुम्भं – कुम्भस्स समीपं
सह – सतिणं – सहतिणेन
नि – निम्नक्खिकं – आभावो मक्खिकानं
अनु – अनुरुप – रुपस्स योग्गं
अनु – अनुरथं – रथस्स पच्छा
सह – सचक्क – सहचक्केन
2. बहुब्रीही – जब सभी पद अपने अर्थ को मूल, एक होकर अन्य अर्थ प्रकट करने लगते हैं तब उसे ‘हम’ बहुब्रीहि समास कहते हैं। जैसे-
समारन – विग्रह – अर्थ
अपुत्तो – न सन्ति पुत्तायस्य, ससो – पुत्र रहित
कुमारभरिया – कुमारी भरिया यस्स, सो – युवक
जितिन्द्रियो – जितानि इन्द्रियाग्नियस्स, सो – बुद्ध
बहुतापसो – वहवो तापसा यस्यिं, सो – मठ (आश्रम)
बहुधनो – बहुनि धनानियस्स, सो – धनवान
पतितेपण्णो – पतितं पण्णं यस्स, तं – ठूठ (वृक्ष)
महद्धना – महन्तानि धनानि यस्स, सो – तथागत
लम्बकणो – लम्बा कण्णा यस्स, सो – धनी
अजिरपाणि – वजिरं पाणिम्हि यस्स, तो – इन्द्र
विजितमारो विजितं मारं यस्स, सो – बुद्ध
3. तत्पुरुष – इस समास में अन्तिम पद प्रधान हो जाता है। इसमें दुतिया से लेकर सत्तमी तक की विभक्तियों का योग होता है। यथा-
समास – विग्रह – अर्थ
गांमगतो – गामंगतो – गाँव को गया हुआ
कुम्भकारो – कुम्भयंकार को – कुम्हार
राजहतो – राहतो – राजा द्वारा मारा गया
असिच्धिनो – असिना छिन्नो – तलवार से कटा हुआ
दधिभोजनं – दधिना उपसित्तं भोजन – दही से परिपूर्ण भोजन
संघगतं – संधस्स भत्तं – संघ के लिए भोजन
गामनिग्गतो – गामस्मा निग्गतो – गाँव से निकला हुआ
चोरभय – चोरस्मा भयं – चोर से भयभीतं
नदितीरं – नदियातीरं – नदी तट
कारूपं – कज्ञायरुप – कन्या का रूप
वनचरो – वने चरितं – वनचर
धम्मरतो – धम्मेरतो – धर्म में लीन।
4. कर्मधारय – जब विशेषण पद का विशेष्य पद से समास होता है, तब उसे ‘कर्मधारय समास कहा जाता है। जैसे- मुनिसीहो – मुनी च सो सीहो चाति। नीलुप्पल – नीलञ्च तं उप्पलं। सीलधनं – सीलमेव धुनं। पुथुज्जनो = अरियेहि पुथुणेवायें जनोति। निक्कोसम्बि निग्गतो कोसम्बिया आदि।
5. द्विगु – जब किसी संख्यावाचक पद का मिलन अन्य पद से होता है, तब हम उसे ‘द्विगु’ समास कहते हैं। जैसे- साहं (छाहँ) – छन्नं अहानं। सलायतन – धन्नं आयतमान। तिलोक – तिन्नं लोकान। तिरतनं – तयो रतनानां चतुसच्चं – चतुन्नं सच्चान। तिभवा तयो भवा आदि।
6. छन्द-विभिन्न पदों के संयुक्त होने के उपरांत भी जब सभी पद समान रूप से प्रधान होते हैं, तब वह ‘द्वन्द’ समास कहा जाता है। जैसे- चक्खुसोतं – चक्खुंच सोतं च! नामरुपं = नामं च रुपं च। जरामरणं – जरा च मरणं च। युगनंगलं = युगं न नंगल च। असिचम्म = अखि च चम्मं च। मातोपितरो = माता च पिता च। गीतवादितं = गीत च वादितं च। दासिदासं = चासिंच च दासं च। समणब्राह्मणा = समणो च ब्राह्मणोच आदि।
उपसर्ग
ऐसे शब्द, जिनका अपना स्वतंत्र स्तित्व नहीं होता है, पर अन्य शब्दों, विशेषकर धातुओं के साथ जुड़कर प्रायः उनके अर्थ में विशेषता ला देते हैं, उपसर्ग कहलाते हैं। उप का अर्थ पूर्व या पहले होता है, अतः ये शब्दों के पूर्व ही अपना स्थान ग्रहण करते हैं। उपसर्ग की संख्या बीस है।
अशुद्ध वाक्यों का शुद्धिकरण
अशुद्ध वाक्य – शुद्ध वाक्य
1. रामो चारेन भायति – रामो चोरस्सा भायति।
2. आचरियं सदिसो सिस्सं अत्थि – आचरियेन सदिसो सिसो अत्थिा।
3. सां अजिनाय मिजं छचति – सो अजिनस्मिं मिंग हञ्जति।
4. जनक सदा पुत्रे गच्छति – जनकेन सह पुत्रो गच्छति।
5. आगतस्स आचरियस्स सिस्सा उट्ठदन्ति – आगते आचरिये सिस्सा उट्ठहन्ति।
6. भूपो दलिदं धनं ददाति – भूपो दलिट्ठय धनं ददाति।
7. सुरियस्स आलोके कस्सकस्स दारका कीलति – सुरियस्स आलोके
– कस्सकस्स दारका कीलन्ति
8. दारको गामेन गच्छति – दारको गामं गच्छति।
9. कोसोन कुटिला नदी – कोसं कुटिला नदी।
10. सिस्सा आचारयेन पठति – सिस्सा आचरियेन पठन्ति।
11. सो मासेन पोत्थकं पठन्ति – सो मासं पोत्थकं पठति।
12. दिवसेन गेहो सुजे तिट्ठन्ति – द्विवसं गहो सुङ्गे तिट्ठति।
13. बालको दण्डस्या सत्सं पहरति – बालको दण्डेन सप्पं पहरति।
14. जलस्स बिना रूक्खो सुक्खन्ति – जलं बिना रूक्खो सुक्खति।
15. बालको चन्दो दिस्सन्ति – बालकेन चन्दो दिस्सति।
16. धम्मस्मा यसो वड्ढति – धम्मेन चसो वट्ठति।
17. लोकहितस्मिं बुद्धो धम्मे देसेति – लोकहिताय बुद्धो धम्म देसेति।
18. मनुस्सेन खतियो सेट्ठो – मनुस्सानं खत्तियो सेट्ठो।
19. दानस्स धम्मदानं सेट्ठ – दानानं धम्मंदानं सेट्ठ।
20. आकासेन सकुणा विचरति – आकासे सकुणा विचरन्ति।
21. थोरस आगतस्स समणेरा उड्ढहति – थेरे आगते समणेरा उट्ठहन्ति।
22. माणवको अनज्झयो रूचन्ति – माणवकाय अनज्झायो रूचति।
23. जनको गेहेन आगच्छन्ति – जनको गेहस्सा आगच्छति।
शब्द – रूप
अकारान्त पुल्लिंग शब्द ‘बालक’
टिप्पणी – गज, जनक (पिता), नर, वानर, बुद्ध, पुत्र आदि का रूप बालक शब्द के समान होगा।
आकारांत स्त्रीलिंग शब्द ‘लता’
विभक्ति – एकवचन – अनेकवचन
पठमा – लता – लतायो
दुतिया लतं – लतायो
ततिया – लताय – लताहि
चतुत्थी – लताय – लतानं
पञ्चमी – लताय – लताहि
छट्ठी – लताय – लतानं
सत्तमी – लतायं – लतासु
आलपन – लते – लतायो
टिप्पणी – अज्जिना कल्ला, गाया, तण्हा, पञ, महिला, माला, विज्जा आदि का रूप लता के समान होगा।
इकारांत पुल्लिंग शब्द ‘मुनि’
विभक्ति – एकवचन – अनेकवचन
पठमा – मुनि – मुनयो
दुतिया – मुनि – मुनयो
ततिया – मुनिना – मुनीहि
चतुत्थी – मुनिस्स – मुनीनं
पञ्चमी – मुनिस्स – मुनीहि
छट्ठी – मुनिस्स – मुनीन
सत्तमी – मुनिस्मिं – मुनीसु
आलपन – मुनि – मुनयो
टिप्पणी – निम्नलिखित शब्दों के रूप मुनि के समान चलेंगे-अग्नि (आग), अरि (शत्रु), असि (तलवार), कपि (बन्दर), कवि, गेहपति (गृहस्थ), ढीपि (बाघ), निधि, पागि (हाथ), भूपति, रवि, सेनापति, हरि आदि।
इकरांत स्त्रीलिंग शब्द “पालि’ (पंक्ति)
विभक्ति – एकवचन – अनेकवचन
पठमा – पालि – पालियो
दुतिया – पालि – पालियो
ततिया – पालिया – पालिहि
चतुत्थी – पालिया – पालिनं
पञ्चमी – पालिया – पालिहि
छठी – पालिया – पालिनं
सत्तमी – पालियं – पालिसु
आलपन – पालि – पालियो
टिप्पणी – इद्धि (त्रिद्धि), कित्ति (कीर्ति), खन्खि (सहनशीलता), नन्दि (तृष्णा), बुद्धि, बोधि (ज्ञान), भूमि, भट्ठी (लाठी), रत्ति, बुद्धि, बुट्ठ (वृष्टि), सति (स्मृति) आदि पालि के समान चलेगा।
ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्द ‘नारी’
विभक्ति – एकवचनं – अनेकवचन
पठमा – नारी – नारियो
दुतिया – नारि – नारियो
ततिया – नारिया – नारीहि
चतुत्थी – नारिया – नारीनं
पञ्चमी – नारिया – नारीहि
छट्ठी – नारिया – नारीनं
सत्तमी – नारियं – नारीसु
आलपन – नारि – नारियो
टिप्पणी – इन शब्दों का रूप भी नारी के समान होगा- अर्णा (बकरी), इत्थी (स्त्री), कदली (केला), कुमारी, कोमढी (चाँदनी), गब्भिनी (गर्भवति), तरुणी (युवती), दासी, देवी, नदी, पठवी, ब्राह्मणी, मही (पृथ्वी), यक्खी (यक्ष स्त्री), रजनी (रात), वानरी, वापी (कुंआ), वारुणी, सीही (सिंहनी), सुकरी, हंसी आदि।
उकारान्त पुल्लिंग शब्द “सिसु’
विभक्ति – एकवचन – अनेकवचन
पठमा – सिसु – सिसवो
दुतियां – सिसु – सिसवो
ततिया – सिसुना – सिसहि
चतुत्थी – सिसस्स – सिसूनं
पञ्चमी – सिसुस्मा – सि सिसूहि
छट्ठी – सिसूस्स – सिसून
सत्तमी – सिसुस्मिं – सिसूसू
आलपन – सिसु – सिसवी
टिप्पणी – अंसु (किरण), उच्छ (ईख), कारु (वश्वकमी), केत (पता का), कोत्थ (गीदर), जन्तु (पशु), पसू (पशु), बन्धे (भाई), भानु (सूर्य), मच्चु (मृत्यु), मेरु (पर्वत), रेणु (पराग), वैलु (बाँस), सत्रु (शत्रु), साधु, सेतु (पुल), हेतु (कारण) आदि शब्दों का रूप सिसु के समान चलेगा।
सर्वनाम शब्द ‘अम्ह’ (मैं)
विभक्ति – एकवचन – अनेकवचन
पठमा – अहं – अम्हे
दुतिया – ममं – अम्हे
ततिया – मया – अम्हेहि
चतुत्थी – मम – अम्हाकं
पञ्चमी – माम – अम्हेहि
छट्ठी- मन – अम्हाक
सत्तमी – ममि – अम्हेसु
टिप्पणी -1. सर्वनाम को सम्बोधित नहीं किया जा सकता, अतः आलपन विभक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता है।
2. ‘अहं’ शब्द का रूप तीनों लिंगों में एक समान होता है।
सर्वनाम शब्द ‘तुम्ह’ (तू)
विभक्ति – एकवचन – अनेकवचन
पठमा – तवं – तुम्हे
दुतिया – तवं – तुम्हें
ततिया – त्वया – तुम्हेहि
चतुत्थी – तव – तुम्हाकं
पञ्चमी – त्वया – तुम्हेहि
छट्ठी – तव – तुम्हाकं
सत्तमी – त्वमि – तुम्हेसु
टिप्पणी – 1. सर्वनाम संबोधन कारक का प्रयोग नहीं किया जाता है, अतः आलपन में ‘तुम्ह’ का कोई रूप नहीं होगा।
2. ‘तुम्ह’ शब्द का रूप तीनों लिंगों के लिए एक ही होता है।
सर्वनाम पुल्लिंग शब्द ‘त (वह)
विभक्ति – एकवचन – अनेकवचन
पठमा – सो – ते
दुतिया – तं – ते
ततिया – तेन – तेहि
चतुत्थी – तस्स – तेसं
पञ्चमी – तस्मा – तेहिं
छट्ठी – तस्मिं – तेसु
सतनो- तस्स – तेसं
टिप्पणी – सर्वनाम शब्द का प्रयोग आलपन में नहीं होता है। इसलिए आलपन में कोई रूप नहीं होगा।
सर्वनाम स्त्रीलिंग शब्द ‘ता’ (वह)
विभक्ति – एकवचन – अनेकवचन
पठमा – सा – तायो
दुतिया – तं – तायो
ततिया – ताय – ताहि
चतुत्थी – ताय – तासं
पञ्चमी – तायं – ताहि
छट्ठी – ताय – तासं
सत्तमी – तायं – तांसु
टिप्पणी – सर्वनाम में आलपन का प्रयोग नहीं किया जाता है।
सर्वनाम नपुंसक लिंग ‘त’ (वह)
विभक्ति – एकवचन – अनेकवचन
पठमा – तं – तानि
दुतिया – तं – तानि
ततिया – तेन – तेहि
चतुत्थी – तस्म – तेसें
पञ्चमी – तस्मा – तेहि
छट्ठी – तस्स – तेसें
सत्तमी – तस्मिं – तेसु
टिप्पणी- सर्वनाम में आलपन का प्रयोग नहीं किया जाता है।
धातु-रूप
‘अस’ (होना) धातु (वर्तमान काल)
पुरिस (पुरुष) – एकवचन – अनेकवचन
पठम (अन्य) – (सो) अस्थि (वह है) – (ते) सन्ति (वे हैं)
मज्झिम (मध्यम) – (त्वं) असि (तुम है) – (तुम्हे) अत्य (तुमलोग हो)
उत्तम (उत्तम) – (अहं) अस्मि (मैं हूँ) – (अम्हे) अस्म (हमलोग हैं)
‘कर’ धातु (वर्तमान काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – करोति – करोन्ति
मज्झिम – करोसि – करोथ
उत्तम – करोमि – करोम
‘चुर’ धातु (वर्तमान काल) एकवचन
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – चोरेति, चोरयति – चोरन्ति, चोरयन्ति
मज्झिम – चोरेसि, चोरयसि – चोरेथ, चोरयथ
उत्तम – चोरेनि, चोरयानि – चोरम, चोरयाम
पठ’ धातु (वर्तमान काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – पठति – पठन्ति
मज्झिम – पठसि – पठथ
उत्तम – पठामि – पठाम
“लिख’ धातु (वर्तमान काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – लिखति – लिखन्ति
मज्झिम – लिखति – लिखय
उत्तम – लिखासि – लिखाम
‘सु’ धातु (वर्तमान काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – सुणोति – सुणोन्ति
मज्झिम – सुणोस – सुणोथ
उत्तम – सुणोम – सुणोम
अनागत काल
‘कर’ धातु ( अनागत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – करिस्सति – करिस्सन्ति
मज्झिम – करिस्ससि – करिस्सथ
उत्तम – करिस्सामि – करिस्साम
‘चुर’ धातु (अनागत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – चोरेस्सति, चोरयिस्सति – चोरेस्सन्ति, चोरयिस्सन्ति
मज्झिम – चोरेस्ससि, चोरयिस्ससि – चोरेस्मथ, चोरयिस्सथ’
उत्तम – चोरेस्सामि, चोरयिस्सामि – चोरेस्साम, चोरयिस्माम
“पठ’ धातु (अनागत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – पठिस्सति – पठिस्सन्ति
मज्झिम – पठस्ससि – पठस्सिथ
उत्तम – पठिस्साम – पठिस्साम
“लिख’ धातु (अनागत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – लिखिस्सति – लिखिस्सन्ति
मज्झिम – लिखिस्ससि – लिखिस्सथ
उत्तम – लिखिस्सानि – लिखिस्साम
‘सु’ धातु (अनागत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – सुणिस्सति – सुणिस्सन्ति
मज्झिम – सुणिस्ससि – सुणिस्सथ
उत्तम – सुणिस्सामि – सुणिस्साम
अतीत काल
‘कठ’ धातु (अतीत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – करि – कसिंसु
मज्झिम – करि – करित्थ
उत्तम – करि – करिम्हा
‘चुर’ धातु (अतीत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – चोरयि – चोरमिंस
मज्झिम – चोयमि – चोरमित्थे
उत्तम – चोरयिं – चोरयिम्हा
‘पठ’ धातु (अतीत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – पठि – पठिंसु
मज्झिम – पठि – पठित्थ
उत्तम – पठिं – पठिम्हा
‘लिख’ धातु (अतीत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – लिखि – लिखिंसु
मज्झिम – लिखि – लिखित्थ
उत्तम – लिखिं – लिखिम्हा
‘सु’ धातु (अतीत काल)
पुरिस – एकवचन – अनेकवचन
पठम – सुणि – सुणिंसु
मज्झिम – सुणि – सुणित्थ
उत्तम – सुणिं – सुणिम्हा
तत्सम शब्द से पालि
पालि से हिन्दी अनुवाद
1. इदं खो पन, भिखवे, दुक्खं अरियसच्यं। जाति पि दुक्खा, व्याधि दि दुक्खो, मरणं पि दुक्खं, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगे दुक्खो। यम्पिच्छं न लभति तं पि दुक्खं। संखितेन, पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खा। इदं खो पन भिक्खवे, दुक्ख-समुदयं अरियसच्चं-स तण्हा पोनोब्भविका नन्दिरागसहगता तत्रतत्राभिनन्दिनी, सेय्यथीदं काम तण्हा भवतण्हा, विभतण्हा।
हिन्दी – भिक्षुओं ? दुःख आर्य सत्य है-जन्म भी दुःख है जरा भी दुःख है व्याधि भी दुःख है, मरण भी दुःख, अप्रिय का वियोग भी दु:ख है प्रिय का वियोग भी दुःख है, इच्छित वस्तुओं का न मिलन भी दुःख है, संक्षेप में पाँच उपादान स्कंध भी दुःख है, यह दुःख समुदाय आर्य सत्य है, यह जो तृष्णा है फिर जन्म लेने की, प्रसन्न होने की, राग सहित जहाँ-तहाँ प्रसन्न होने वाली जैसाकि-काम तृष्णा, भव तृष्णा, विभव तृष्णा।
2. यावकीवं चमे भिक्खवे ‘इमेसु चतुसु अरियसच्चेसु एवं तिपरिवर्ड्स द्वादसाकां यथा. भूतं त्राणदम्सनं न सुविसुद्ध अहोसि, नवे तावारं भिक्खवे, सदेवके लोके समार की सब्रह्मके ससमणब्रह्मणिया पंजाय सदेवमनुस्साय अनुत्तरं सम्मासम्बोधि अभिसम्बुद्धो नि पञ्चालि। यतो च खो में भिक्खवे इमेसु चतुसु अरियसच्चेसु एवं तिपखिट्ट द्वादसाकारं यथाभूतं आणदस्सनं सुविसुद्धं अहेसि, अथाहं भिक्खवे, सदैवके लोके संसारके सब्रह्मके सस्समण ब्राह्मणिया पजाय सदेवनुस्साय अनुत्तर सम्मासम्बोधि अभिसम्बुद्धो ति प्रज्यत्रालि त्राणं च पन में दस्सनं उदपादि अकुव्सा में विमुक्ति, अयमत्मा जाति, नत्थि दानि पुनष्भवा ति 12 दमत्रीया भगवा अत्तमन पञवाग्गिया भिक्खु भगवतो भाषितं अभिन्नयु।
हिन्दी – भिक्षुओं जबतक मैं इन चार आर्य सत्यों को इस प्रकार विहार कर बारह प्रकार के यथार्थ ज्ञानदर्शन से शुद्ध-विशुद्ध नहीं हुआ तब तक मैंने देवता सहित, मार सहित, ब्रह्मा सहित, धमण-ब्राह्मण सहित लोक में प्रजा के लिए, देवता और मनुष्य के लिए अनन्त्र सम्यक् सम्बोधि से अभिव्यक्त हुआ, प्रज्ञपित नहीं किया। भिक्षुओं, जब मैं इन चार आर्य सत्यों को तिहरा कर बारह प्रकार के यथार्थ प्रज्ञा दर्शन से शुद्ध विशुद्ध हुआ तब मैं देवता, मार, प्रज्ञा, श्रमण, ब्राह्मण सहित संसार में प्रजा देवता देवता और मनुष्य के लिए अनुत्तर सम्यक सम्बोधि से पूर्ण हुआ, प्रज्ञापित किया। मुझमें ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हुआ। “मुझे अचल से विमुक्ति मिली, यह मेरा अन्तिम जन्म है, अब मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा।” प्रसन्न मन से पंचवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान . से कथन का अभिवादन किया।
3. “इदम वोच भगवा इदं वत्वा सुगतो अथापा सदवोच सत्या-”
मातापित-दिसा पुब्बया, आचरिया दक्खिणा दिशा।
पुत्तदारा दिशा पच्छा मित्तमच्चा च उत्तरा ॥
दासकम्मकारा हेट्ठा, उद्धं समणब्राह्मण ।
एतादिसा नमस्सेय्य, अलमतो कुले गिही ॥
हिन्दी – भगवान ने ऐसा कहा। इतना बोलकर सगत शास्ता ने इसके उपरान्त भी ऐसा कहा-
माता-पिता पूर्व दिशा है, गुरू दक्षिण दिशा। पुत्र-स्त्री पश्चिम दिशा एवं मित्रमात्य उत्तर दिशा। नौकर चाकर पताल दिशा तथा श्रमण-ब्राह्मण आकाश दिशा है। गृहस्थ को इस प्रकार से दिशाओं का नमस्कार अपने कुल में करना चाहिए।
4. अथ.खो भगवा पुब्बण्हासमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगह पिण्डाय पाविसि। अद्दसा खो भगवा सिगालकं गहपतिपुतं कालस्सेव उटाय, राजगहा निक्खमित्वा, अलवत्थं अल्लकेसं पतलिकं पुथुदिशा नमस्सन्तं पुररंथमं दिसं, दक्खिणं दिसं, पच्छिम दिशं, उत्तरं दिसं, हेट्ठिम दिसं, उपरिमं दिसं ति।
हिन्दी – तब भगवान बुद्ध पूर्वाह्न समय में वस्त्र धारण कर पात्र और चीवर लेकर भिक्षाटन के लिए राजगृह में प्रविष्ट हुए। भगवान-बुद्ध ने गृहपति-पुत्र सिंगाल को प्रातःकाल ही उठकर राजगृह से निकलकर भीगे वस्त्र, भींगे केश, हाथ जोड़े विभिन्न दिशाओं-पूर्व दिशा, दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा, आकाना दिशा और पाताल दिशा को नमस्कार करते देखा।
5. एवं वुत्ते सिंगालको गहपलिपुन्नों भगवन्तं एतदवोच-अभिक्कन्तं भन्ते, अभिकन्तं भन्ते, सेय्यथापि भन्ते, निकुन्जितं वा उक्कुज्जेय पटिच्छन्न वा विवरेय्य मुल्हस्स वा रेग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जातं धामिरय्य-चक्खुमन्तो. रूपानि दक्खन्तोति, एवमेव भगवता अनेक परियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं भन्ते भगवन्तं सरणं गच्छामि, धमञ्च भिक्खुसंघञ्च उपासकं मं भगवा धारेतु अञ्जगो पाणुपेतं सरणं अंतति।
हिन्दी – ऐसा कहने जाने पर गृहपति-पुत्र सिंगाल ने भगवान से ऐसा कहा-आश्चर्य है भन्ते, अद्भूत है भन्ते, जैसा महाराज, अंधे की सीधा कर दे, ढंके खोल दे, मूर्ख को मार्ग बतला दे, अन्धकार में दीपक दिखा दे, जिससे कि आँख वाला रूप को देख ले, उसी प्रकार से भगवान बुद्ध ने अनेक उदाहरणों के द्वारा धर्म को प्रकाशित किया। अतः भन्ते मैं भगवान की शरण जाता हूँ, (साथ ही) धर्म और भिक्षु संघ का भी आज से आजीवन भगवान मुझे .. अपनी शरण में आया उपासक स्वीकार करें।
6. अथ खो भगवा उट्ठायासना पक्कामि ? अथ खो राहुल कुमारो भगवन्त विद्वितो पिट्ठितों अनबन्धिदायज में समण देहि, दायन्जं में समण, देही ति। अथ खो भगवा आयस्मन्तं सारिपुत्तं आमन्तेसि- तेन हि त्वं सारिपुत्रं राहुल कुमारं पब्बाजोही, ति। कथाहं भन्ते, राहुल कुमारं पब्बोजेसी, ति ? अथ खो भगवा एतस्मिं निदाथे एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खु आमन्तेसि अनुजामि भिक्खवे, तीहि सरणगमनेहि सामणीदूपब्बन्ज। अथ खो आयस्मा सारिपुत्रों राहुल कुमारं पब्बाजेसि।
हिन्दी – तब भगवान आसन से उठकर चल दिये। राहुल कुमार भी भगवान के पीछे-पीछे चलने लगा। “श्रवण ? मुझे दायज्ज दें, श्रमण ? दयाज्ज दें।” तब भगवान आयुष्मान् सारिपुत्र से कहा-“तो सारिपुत्र.? राहुल कुमार को प्रब्रजित करो।” भन्ते किस प्रकार राहुल कुमार को प्रब्रजित करूं ? इसी मौके पर इस प्रकार मैं धार्मिक कथा कहकर भगवान ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया ‘भिक्षुओं से? तीन कारण गमण से अमणेर प्रब्रज्जा का अनुज्ञा देता है। तब आयुष्मान सारिपुत्र ने राहुल कुमार को प्रव्रजित किया।
7. “अथ खो भगवा राजगहे यथाभियन्तं विहरित्वा येन कपिलवत्थु तेन चारिक पक्कामि। अनुपुब्बेन चारिकं चारमानो येन कपिलवत्थु तदवसरि। तत्र सुदं भगवा सक्सेसु विहरति कपिलवत्युस्मिं निग्रहेधारामे। अथ खो भगवा पुवण्हसमयं निवासेत्वा पत्रचीवरं आदाय येन सुद्धोदनस्स सक्कस्स निवे सावं तेनुपसंकमि उपसमित्वा पञत्ते आसने निसीदि।
हिन्दी – तब भगवान ने राजगृह में इच्छानुसार विहार कर जहाँ कपिलवस्तु थी, वहाँ के चारिका के लिए प्रस्थान किया। क्रमशः भ्रमण करते हुए जहाँ कलिपवस्तु थी, वहाँ पहुँचे। वहाँ भगवान बुद्ध कपिलवस्तु अवस्थित निग्रोधाराम में शाक्यों के बीच विहार करते थे। तब भगवान दो पहर के पूर्व वस्त्र पहन, पात्र चीवर लेकर जहाँ शाक्य शुद्धोधन का निवास स्थान था वहाँ पहुँचे, पहुंचकर विछे हुए आसन पर बैठ गये।
8. अथाखो ते लिच्छवी येन भगवा तेनुपसंकमिसु। अद्वसां खो भगवा ते लिच्छवी दुरतोव आगच्छते। दिस्बान भिक्खू आमन्तेसियेहि भिक्खवे भिक्खूहि देवा तावतिंसा अदिट्ठपुब्बा आलोकेथ भिक्खवे, लिच्छविपरिसं, उपसंहरथ, भिक्खवे लिच्छविपरिसं तावतिसंपरिसं ति। अथ खो ते लिच्छवी यावतिका यानस्स भूमि, यानेने गन्त्वा याना पच्चारोहित्वा पत्रिकाव येन भगवा तेनुषसंकमिसु, उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिस।
हिन्दी – तब वे लिच्छवी जहाँ भगवान थे, वहाँ पहुँचे। तब भगवान ने दूर से ही उन लिच्छवियों को आते देखा। देखकर भिक्षुओं को आमन्त्रित किया। भिक्षुओं, देखो, तायस्त्रिंश लोक के देवों का अभूतपूर्व दृश्य। लिच्छवियों की परिषद का अवलोकन करो, भिक्षुओं लिच्छवी परिषद को समझो। तब वे लिच्छवी रथ से जाने योग्य भूमि तक रथ से जाकर, फिर रथ से । उतरकर पैदल ही जहाँ भगवान थे, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर भगवान का अभिवादन कर एक ओर बैठ गये।
9. “अथवा खो वे लिच्छवी अम्बपालि गणिकं एतदवोच किस्स जे अम्बपालि दहरानं-दहरानं लिच्छवीन…….. अक्खेन अक्खं पटिवट्टेसी ति ? तथापि पन मया अय्यपुत्ता स्वातनाय बुद्धप्रमुखो भिक्खूसंघो निमन्तितो, ति। देहि जे अम्बपालि, अम्हाकं एक भत्तं सतसहस्सेन, ति सचे में अय्यपुत्ता वेज्ञाति साहारं दन्जेय्याथ, नेव दज्जा अहं तं भत्तं, ति अथ खे ते लिच्छवी अंगुली फोटेसु-जितम्हा वत भी अम्बकाया पराजितम्हा वत भो अम्बकाया, ति।
हिन्दी – तब लिच्छवीयों ने अम्बपालि गणिका से ऐसा कहा-क्यों री, अम्बपालि युवक” लिच्छवीयों के घरे से धूरा युग से युग, चक्के से चक्का और आँख से आँख लड़ती है ? आर्य पुत्रों क्योंकि बुद्ध प्रमुख संघ कल के भोजन के लिए मेरे द्वारा आमन्त्रित है। हे अम्बपालि यह भोजन हमें (सौ) हजार (कार्यपण) से (में) दे दो। आर्यपुत्री यदि वैशाली जनपद भी दिया जाय, तो मैं इस भार को नहीं दूंगी। तब उन लिच्छवियों ने (दाँते तले) अँगुलियाँ दबायी। अरे अम्बपालि ने हमें जित लिया, अम्बपालि ने हमलोगों को पराजित कर दिया।
10. तेन खो पन समयेन तस्सा रलिया अच्चयेन चातुद्वीपकमोमेघो पावसि अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि यथा भिक्खवे, जेतवने वस्सति, एक चतुसु दीपेसु वस्सति। ओवस्सपिथ भिक्खवे कायं। अयं पच्छिम को चातुद्वीपको महामेघो ति। एवं भन्ते ति खो ते भिक्खू भगवतो पटिस्सुत्वा निक्खित ‘चीवरा कायं ओवस्सपिन्ति।
हिन्दी – उस समय उस रात्रि के अवसान होने पर चातुद्धीपिक महामेघ वरसने लगा। तब भगवान ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया-भिक्षुओं, जैसी वर्षा जेतवन में हो रही है, उसी प्रकार चारों द्वीपों में वर्षा हो रही है। भिक्षुओं काया शीतल करो। यह अन्तिम चातुद्वीपिक महामेघ है। ठीक है भन्ते वे भिक्षु भगवान को प्रत्युत्तर देकर वस्त्र फेककर शरीर शीतल करने लगे।
11. अथ खो भगवा भिक्खु आमन्तेसि-संनहथ भिक्खवे पत्तचीवरं, कालो भत्तस्साति। एवं भन्ते, ति खो ते भिक्खू भगवतो पक्वस्सोसुं। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्रचीवर-मादाय, सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा वाहं पसारेय्य, पसारितं वा वाहं समिओय्य एवमेव जेतवने अन्तरहितो विशाखाय। मिगारमातुसा कोठेके पातहोसिा। निसीद्धि भगवा पञत्ते आसने सद्धि भिक्खू संघेन।
हिन्दी – तब भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया-भिक्षुओं, पात्र-चीवर तैयार कर लो। भोजन का समय हो गया। अच्छा भन्ते, कह भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान पूर्वाह्न में, वस्त्र धारण कर पात्र-चीवर लेकर जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी मोड़ी हुई बाँह को पसार ले, पसारी हुई बाहों को समेट ले वैसे ही जेतवन से अतध्यान होकर विशाखा मिगार माता के कोठे पर प्रकट हुए। भिक्षु संघ के साथ विछे आसन पर बैठ गये।
12. जयं वेरं पसवति, दुक्खं सेति पराजितो ।
उपसन्तो सुखं सेति, हित्वा जय पराजयं ॥
हिन्दी – विजय वैर (शत्रुता) को जन्म देती है और पराजित (मनुष्य) दुःख की नींद सोता है। (अतः) उपशान्त (मानव) जय और पराजय से परे रहकर सुख की नींद सोता है।
13. साधु दस्सनमरियानं, सन्निवासो सदा सुखी ।
अदस्सनेन बालान, निच्चमेव सुखी सिया ॥
हिन्दी – आर्य का दर्शन उत्तम और संगति सदा सुखदायी होते हैं। मूखों के दर्शन से दूर रहने से मनुष्य सदा सुखी रहता है।
14. नत्थि रागसमो अक्गि, नत्थि दोससमो कलि ।
नल्यि खन्धसभा दुक्खा, नत्थि सन्ति परं सुखं ॥
हिन्दी – आसक्रि के समान आग नहीं है, द्वेष के समान कोई मल नहीं है, पञ्चस्कन्ध से बढ़कर कोई दुःख नहीं है शान्ति से बढ़कर (संसार में) कोई सुख नहीं है।
15. यथा माता-पित भाता, अजे. वापि च आतक।
गावो नी परमा मित्ता, यासु जायन्ति ओसध ॥
हिन्दी – जिस प्रकार माता-पिता, भाई या दूसरे सम्बन्धी, उसी प्रकार गाये हमारी परम मित्त है, जिनसे (अनेक) औषधियाँ उपलब्ध होती हैं।
16. अन्नदा बलदा चेता, वण्णदा सुखदा तथा ।
एतमत्थवसं ञत्वा, नास्सु गावो हनिंसु ते ॥
हिन्दी – (गायें) अन्न, बल, चेतना, वर्ण और सुख देने वाली है। इस बात को जानकर वे गायों की हत्या नहीं करते थे।
17. एवं धम्मे वियापन्ने, विभिन्ना सुदृवेस्सिका ।
पुथु विभिन्न खत्तिया, पति भरिया अवमअथा ॥
हिन्दी – इस प्रकार धर्म में खलल पड़ने पर शुद्धों और वैश्यों में फूट पड़ गयी क्षत्रिय भी विभिन्न भागों में बँट गये और स्त्रियाँ पति का अपमान करने लगी।
18.’न भजे. पापके मित्रे, न भजे पुरिसाधमे ।
भजेथ मित्रे कल्याणे भजेय पुरिसुत्रमे ॥
उत्तर – न पापी मित्रों के साथ रहो और न नराधमों की संगति करो । कल्याणकारी मित्रों की संगीति करो और नर श्रेष्ठ के साथ रहो।
19. उदकं हि न्यदन्ति नेतिक, उसुकारा नमयन्ति तेजनं ।
दारूं नमयन्ति तच्छका, अत्रानं दमयन्ति पण्डिता ॥
उत्तर – नहर निर्माता (सीधे ढंग से) पानी ले जाते हैं। वाणकार वाण को ठीक (सीधा) करते हैं। बढ़ई लकड़ी को सीधा करते हैं, (परन्तु) पंडित लोग अपने आपको सीधा (दमन) करते हैं।
20. यथा हि स्वतःरद्धो गम्भीरी, विप्पसन्नो अनाविलो ।
एवं धम्मानि सुत्वान, विप्पसीदन्ति पण्डिता ।।
हिन्दी – जैसे एक गम्भीर जलाशय प्रशान्त व निर्मल रहता है, वैसे ही धार्मिक प्रवचन सुनकर पण्डित लोग शान्त हो जाते हैं।
हिन्दी से पालि अनुवाद
हिन्दी वाक्य – पालि अनुवाद
1. बुद्ध का धर्म लोक में प्रकाशित होता है- बुद्धस्स धम्मो लोकस्मि आलोकत्ति।
2. पाप से संसार में मनुष्य को दुःख होता है- पापने लोके मनुष्यं दुक्खो हीति।
3. मैं बुद्ध को नमस्कार करता हूँ- अहं वुद्धं नमामि।
4. बुद्ध के धर्म से संसार में सुख होता है- बुद्धस्स धम्मेन संसार सुखो होति।
5. वह बुद्ध की शरण में जाता है- जो बुद्धं सरणं गच्छति।
6. देवता नगर से निकलते हैं- सुरो नगरस्या निक्खमति।
7. ऋषि लोग जंगल में रहते हैं- इसयो अरजएिंग अधिवसन्ति।
8. प्राचीन काल में राजगृह एक बड़ा नगर था- प्राचीनकाले राजगहो एको महानगरे आसि।
9. जहाँ मगध की राजधानी थी- तत्र मगधस्स राजधानी अस्ति।
10. भगवान बुद्ध के समय वहाँ बिम्बिसार नामक राजा रहता था- भगवान बुद्धस्स समये तत्र बिम्बिसारे नाम भूपो वासि।
11. आज यहाँ एक वन है जिसका नाम वेणुवन है- अज्ज इमस्मिं एको वनो अत्थि तस्स नाम बुलुलनो।
12. इस वन में बुद्ध अपने शिष्यों के साथ आते थे- इसस्मिं वने बुद्धो उत्तना सिस्सेहि स आगहिंसा।
13. राजगृह और नालन्दा के बीच अम्बलिका वन है- अन्तराच राजगहं अन्तरा च राजगह अम्बवालिकावने अस्थित।
14. राजगृह के पर्वत नगर की रक्षा करते हैं- राजगहस्स पब्बता नगरस्स रक्खनित।
15. वैभार पर्वत पर सप्तपर्णी गुफा है- विभारपब्बतो सत्रपण्णी गुहो अत्थि।
16. पूर्वदिशा में रत्नागिरि पर्वत है- पुरत्थिमे दिसे रत्नागिरि पब्बतो अत्थिा
17. इस पर्वत पर एक शान्ति स्तुप है- इमस्मि पब्बते, एको शान्ति स्तूपो अत्थि।
18. नालन्दा एक पुराना नगर है- नालन्दा एको प्राचीननगरो अत्थिा।
19. प्राचीनकाल में यहाँ बौद्धधर्म की पढ़ाई होती थी- प्राचीन काले स्तस्मिं बुद्धधम्मस्स अन्झापं आसि।
20. आज भी यहाँ एक महाविद्यालय है- अज्ज पि एतस्मि एको महाविन्जालयो अत्थि।
21. उसका नाम नवनालन्दा महाविहार है- अम्हे नवनालन्दा महाविहारो अत्थिा।
22. हमलोग नालन्दा महाविहार में पढ़ेंगे- अम्हे नवनालन्दामहाविहारस्मिं पठिस्साम।
23. तुम बुद्ध को नमस्कार करते हो- त्वं बुद्ध नमसि।
24. वह पुस्तक पढ़ता है- सो पोत्थकं पठाति।
25. मैं मित्र के साथ रहता हूँ- अहं मितेहि सह वसामि।
26. आचार्य के साथ शिष्यगण रहते हैं- आचरियेन सह विस्सा वसन्ति।
27. आजातशत्रु बुद्ध का उपासक था- आजातसतु बुद्धस्स उपासको आसि।
28. वे लोग मन्दिर में पुजा करते हैं- ते देवालयस्मि अच्चन्ति।
29. मैं खाकर पढूंगा- अहं भुज्जित्वा पठिस्समि।
30. तुमलोग भाइयों के साथ खेलोगे- तुम्हें. सहादरेहि सह कीलिम्ह।
31. हमलोग मित्र के साथ खेलेंगे- अम्हें मित्रेहि सह कीजिस्साम।
32. बालक बुद्धधर्म को जानता है- बालको बुद्धस्स धर्म जानति।
33. लड़के विद्यालय में पढ़ते हैं- बालका विज्जालयस्मि पठन्ति।
34. वह खेत में दौड़ता है- सो खेत्तस्मं धावति।
35. मैं घर में सोता हूँ- अहं गेहस्मिं सयामि।
36. राजगृह में भिक्षु रहते हैं- राजगहे भिक्खो वसन्ति।
37. भगवान बुद्ध को उपदेश देते हैं- भगवा भिक्खो वसन्ति।
38. गृहस्थ बुद्ध को दान देता है- गहपति बुद्धाय दानं ददाति।
39. नालन्दा में एक विश्वविद्यालय है- नालन्दा एको विस्सविज्जालयो आसि।
40. आज वहाँ लोग पालि पढ़ते हैं- अज्ज तत्र पुरिसा पालिं पठन्ति।
41. ‘त्रिपिटक बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण हैं- तिपिटका बुद्धधमस्स महतपुण्णगन्था सन्ति।
42. लोक हित के लिए बुद्ध धर्म का उपदेश करते हैं- लोकहिताय बुद्धो धम्म देसेति।
43. गुरू के आने पर शिष्य खड़े हो जाते हैं- आचरिये आगते सिस्सा उट्ठहन्ति।
44. गृहस्थ लोग बुद्ध की शरण में जाते हैं- गहपतयो बुद्धो सरणं गच्छन्ति।
45. आग वृक्ष को जलाता है- अनलो रूक्खं झापेति।
46. नेवला साँप को खाता है- नकुलो सप्पं खादत्ति।
47. तुम घर में रहते हो- त्वं गेहस्मिं वससि।
48. हमलोग जंगल में रहते हैं- अम्हे अरमि अधिवसाम।
49. मैं शील की रक्षा करूंगा- अहं शीलं रक्खिस्सामि।
50. हाथी ताल में नहाता है- गजो सरोवरो ओवस्सापेति।
51. चोर धन चुराता है- चोरा धनं चोरेन्ति।
52. हमलोग महाविद्यालयों में पढ़ते हैं- अम्हे महाविज्जालयस्मि पठाम।
53. राजा राष्ट्र को जीतता है- भूपो रटुं जिनाति।
54. वन में फूल खिलते हैं- वने पुप्फनि पुकान्ति।
55. उद्यान में फूल शोभते हैं- उदयाने पुप्फानि सोभन्ति।
56. शोक से शरीर गलता है- शोकेन शरीरं जीरति।
57. दान से शील बढ़ता है- दानेन शीलं बहुति।
58. तुमलोग आचार्य को प्रणाम करते हो- त्वं आचरियं पनमथ।
59. भारत गाँवों का देश है- भारतो गामनं देशो अत्थिा
60. बुद्ध धर्म को प्रकाशित करते हैं- बुद्धो धम्म देसेति।
61. बुद्ध के साथ शिष्य लोय रहते हैं- बुद्ध सह सिस्सा अधिवसन्ति।
62. हमलोग ध्यान करते हैं- अम्हे झानं कराम।
63. पटना विहार की राजधानी है- पटना विहारस्स राजधानी अत्थिा .
64. पटना का पुराना नाम पाटलिपुत्र था- पटना पुरानो नाम पाटलिपुत्रे आसि।
65. अशोक पाटलिपुत्र का सम्राट था- अशोकं पाटलिपुत्रस्स सम्राटो आसि।
66. जंगल में बन्दर वृक्ष पर दौड़ते हैं- अरजस्मि वानरा रूक्खहिंम धावन्ति।
67. आग की लपेट जंगल को जलाती है- अग्गीनं अच्चीनी अरखं झापेति।
68. ऋषि जंगल में ध्यान करते हैं- इसमो अरमिं झायन्ति।
69. वह खाने की इच्छा करता है- सो खापितुं इच्छति।
70. बुद्ध निर्वाण प्राप्त करते हैं- बुद्धो निब्बानं निब्बायति।
71. भगवान धर्मचक्र घुमाते हैं- भगवा धम्मचक्कं पवति।
72. ध्यान से प्रज्ञा पूर्ण होती है- झानेन पञ्च परिपुरति।
73. भगवान बुद्ध देखते हैं- भगवा बुद्धे पस्सति।
74. सारिपुत्र निर्वाण प्राप्त किया- सारिपुत्रो निब्बानं पापुणि।
75. बुद्ध धर्म के साथ विहार करेगे- बुद्धो धम्मेन सह विहारस्सिति।
76. भिक्षु लोग उपदेश देते रहेंगे- भिक्खवो उपदेशो देस्सिसन्ति।
77. मैं धर्म की शरण जाता हूँ- अहं धम्म सरणं गच्छामि।
78. तुमलोग पाटलिपुत्र गये- तुम्हे पाटलिपुत्रो यच्छित्थ।
79. हमलोग बुद्धत्व प्राप्त करेंगे – अम्हे सम्बोधि गहिस्साम।
80. तुम सूर्य लोक से आये थे- त्वं सूरिय लोकस्स आगच्छि।
81. वे लोग आनन्द के पास गये- वे आनन्दं समीपं गच्छिसु।
82. आनन्द ने बुद्ध से कहा- आनन्दी बुद्धेन कथि।
83. बुद्ध पालि भाषा में धर्म को प्रकाशित करते हैं- बुद्धो पालिभाषायं धम्म देसेति।
84. बुद्ध प्रव्रज्या के लिए घर से निकलते हैं- बुद्धो पब्बजाय गेहस्सा निक्खमति।
85. शिष्य आचार्य के साथ-साथ जाते हैं- शिस्सा आचरियेन मद्धिं गच्छन्ति।
86. जल विन पेड़ सुख रहा है -जलं बिना रूक्खो सुक्खति।
87. शील से ध्यान उत्पन्न होती है- सीलेन झानो उप्पज्जति।
88. ध्यान से प्रज्ञा उत्पन्न होती है- झनेन पञो उप्पज्जति।
89. प्रज्ञा से मुक्ति होती है- पञ्जन विभूति होति।
90. भगवान ने भिक्षुओं को देखा- भगवा भिक्खवो पस्सि।
91. आकाश में पंक्षी उड़ते हैं- आकाशे शकुणा विचरन्हिता
92. गृहाना के लड़के स्याही से लिखते हैं- गृहपतिस्स दारका मस्यिा लिखन्ति।