BSEB Bihar Board 12th Pali Important Questions Short Answer Type are the best resource for students which helps in revision.
Bihar Board 12th Pali Important Questions Short Answer Type
प्रश्न 1.
राहुल कौन था ?
उत्तर:
ढाई हजार वर्ष पूर्व शाक्यों की राजधानी कलिपवस्तु के सम्राट शुद्धोदन का पौत्र तथा भगवान बुद्ध का पुत्र था।
प्रश्न 2.
राहुल को प्रब्रजित किये जाने पर सम्राट शुद्धोदन की प्रतिक्रिया का उल्लेख करें।
उत्तर:
राहुल को भगवान बुद्ध के आदेश पर सारिपुत्र द्वारा बौद्ध धर्म में प्रबजित कर लेने की सूचना जब सम्राट शुद्धोदन को मिला तब उन्हें काफी दुःख हुआ और वे शीघ्र ही बुद्ध के पास आकर अपनी प्रतिक्रिया इन शब्दों में जाहिर किये। पुत्र-प्रेम मेरा छाल छेद रहा है, छाल छेदकर चमड़े को छेद रहा है, चमड़े को छोड़कर मांस को छेद रहा है, मास को छेदकर, नस की छेद रहा है, नश को छेदकर हड्डी को छेद रहा है। हड्डी को छेदकर घायल कर दिया है। जब मैं आपके प्रव्रज्या से मैं दुःखी था तो नन्द पर ढाढ़स बाँधा और जब नन्द प्रब्रजित हुआ तो शिशु राहुल को अपना आश्रयदाता माना था। अब वह भी प्रव्रजित हो गया है। अतः आपही कहें-मेरा आश्रयदाता कौन होगा ? इसलिए यह उचित है भन्ते कि बिनां माता-पिता के आज्ञा प्राप्त किये बिना अपने संघ में किसी को प्रव्रजित न करें।
प्रश्न 3.
विशाखा को विशाखा मिागरमाता क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
विशाखा अंग देश भद्वीय नगर के सुप्रसिद्ध रईश धनञ्जय की पुत्री थी। वाल्यकाल से ही उस भगवान बुद्ध एवं उनके धर्म से अपार श्रद्धा थी। युवा होने पर विशाखा का विवाह श्रावस्ती निवासी निगार पुत्र प्रज्ञवहन से हुआ। विवाहोपरान्त एक दिन विशाखा भगवान बुद्ध को अपने घर भोजन पर आमंत्रित किया। भोजनो परान्त बुद्ध के धर्म श्रवण से मिगार का चित्त आश्रय विमुक्त हो गया। जिसका श्रेय विशाखा का ही था। अतः उसके नाम के बाद मिगार शब्द जोड़ दिया गया। पुनः उनके पति ने उस दिन के बाद माता कहकर सम्बोधित करने लगे। इस तरह विशाखा को तब से विशाखा मिगार माता से जाना जाने लगा।
प्रश्न 4.
अजातशत्रु कौन था ?
उत्तर:
अजात शत्रु बुद्ध कालीन मगध का सुप्रसिद्ध सम्राट था।
प्रश्न 5.
धम्मचक्कप्पवत्तनं से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
धम्मचक्कप्पवत्तनं में ‘धम्म’ का अर्थ है धर्म, ‘चक्क’ का अर्थ है चक्र और पवत्तनं का अर्थ है प्रवर्तन करना या घुमाना। इस धम्मचक्कत्तपवनं का शाब्दिक अर्थ हुआ धर्म रूपी चक्र को घुमाना। ज्ञातव्य है कि कुमार सिद्धार्थ ने साधना और कठिन तपश्चर्या के छः वर्ष बीतने के अनन्तर अपने आपको बुद्धत्व तक पहुँचाया था। बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात् भगवान बुद्ध ब्रह्म सहम्पत्ति के आग्रह पर वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाय में पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को अपना प्रथम धर्मोपदेश दिया है। बुद्ध के इस प्रथम धर्मोपदेश को ही पालि साहित्य में धम्मचक्कव्पवत्तनं के नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 6.
‘पण्डितवग्गो’ के आधार पर पण्डितों के चार लक्षणों को बतावें।
उत्तर:
पण्डितों के चार लक्षण निम्नलिखित प्रकार है।
(क) पंडित सदैव धर्मप्रिय, प्रसन्नचित और आर्य द्वारा प्रशासित होते हैं ?
(ख) पण्डित निन्दा प्रशंसा में अविचलित रहते हैं।
(ग) वह काम वासनाओं और सांसारिक आसक्तियों में लिप्त नहीं होता।
(घ) शील, समाधी और प्रज्ञा से युक्त ही तृष्णा आसक्ति, चित्रमल आदि का निवास कर वह निर्वाणोंपलब्धि में तत्पर रहता है।
प्रश्न 7.
प्राचीन ब्राह्मणों के उत्थान के किन्हीं चार कारणों को लिखें।
उत्तर:
प्राचीन ब्राह्मणों के उत्थान के चार कारण ये हैं-
(क) प्राचीन ब्राह्मण संयमी, तपस्वी, जागरूक, विद्यानुरागी धर्म चिन्तक तथा परोपकारी थे।
(ख) उन ब्राह्मणों को न तो पशु और न सोने-चाँदी जैसे धन की चाहत थी।
(ग) समाज के धर्मपूर्वक चावल, वस्त्र तेल, घी आदि की याचना करते थे तथा यज्ञों में जीवहींसा नहीं करते थे।
(घ) त्याग दया क्षमा, क्लिोम, अनाशक्त आदि मानवोचित गुणों से प्राचीन ब्राह्मण युक्त होते थे।
प्रश्न 8.
ब्राह्मणों के पतन की किन्हीं चार कारणों को ‘ब्राह्मणधम्मिक सुत्त’ के आधार पर बतलावें।
उत्तर:
पतन के चार कारण इस प्रकार हैं-
(क) तत्कालीन राजाओं महाराजाओं के सुख ऐश्वर्य को देखकर सुखोपभोग के साधनों के प्रति आकृष्ट होने लगे।
(ख) सुअलंकृत नारीयों से सम्बंध स्थापन प्रारम्भ किया।
(ग) राजाओं से स्वर चित स्वार्थमूलक मंत्रों के द्वारा विवशतापूर्वक यज्ञ करवाने लगे तथा : उनके कल्याण का प्रलोभन देकर यज्ञ के माध्यम से अपार धन धान्य ग्रहण कर विलासतापूर्वक जीवन व्यतित करने लगे।
(घ) यज्ञों में पशओं की हत्या करने लगे।
प्रश्न 9.
‘धम्मचक्कप्पवतन’ का क्या अर्थ होता है ?
उत्तर:
‘धम्मचक्कप्पवतन’ का अर्थ धर्म का उपदेश करना। ज्ञान प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध उन “पंचवर्गीय” भिक्षुओं को धर्म उपदेश दिये।
प्रश्न 10.
नाना दिशाओं को नमस्कार करते देख भगवान ने क्या प्रश्न किया ?
उत्तर:
सिंगाल पुत्त तुम भींगे शरीर, वस्त्र, केश क्या कर रहे हो उसने उत्तर दिया भगवान मेरे पिता मृत्यु पर पड़े मुझे ऐसा सय्या उपदेश दीया था उसी की मैं नकल कर रहा हूँ।
प्रश्न 11.
माता – पिता के कितने प्रकार से सेवन करना चाहिए ?
उत्तर:
पाँच प्रकार से माता-पिता को सेवन करना चाहिए।
- भारणपीयन,
- काम करना,
- वंश कायम,
- दाञ्जदान,
- मृत्यु पनद्वा।
प्रश्न 12.
छः दिशाओं का क्या कारण है ?
उत्तर:
छः दिशाओं का अलग-अलग कार्य है-
- पूर्व दिशा-माता-पिता,
- दक्षिणआचार्य,
- पश्चिम-पुत्र, स्त्री,
- उत्तर-मित्र, आमात्यों,
- नीचे-दास-दासी,
- ऊपरप्रगमण-ब्रह्माणों।
प्रश्न 13.
कितने वर्ष अथक परिश्रम के बाद ज्ञान की प्राप्ति हुई ?
उत्तर:
सात वर्ष इधर-उधर भटकने के उपरान्त तथा कठिन परिश्रम एवं तपस्या के बाद कुमार सिद्धार्थ को अनमोल ज्ञान प्राप्त हुआ।
प्रश्न 14.
निर्वाण (निब्बान) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
‘निब्बान’ शब्द नि+वान से बना है। ‘नि’ का अर्थ है नहीं तथा ‘वान’ का अर्थ है इच्छा या तृष्णा। इस प्रकार न इच्छा या तृष्णा विहीन अवस्था को निब्बान (निर्वाण) कहा जाती है। यह पालि साहित्य का मौलिक शब्द है, जो लगभग मुक्ति, मोक्ष, ब्रह्मानन्द की प्राप्ति इत्यादि का समकक्ष अर्थ देता है। भगवान बुद्ध ने निब्बान के सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं है। उनके मतानुसार निब्बान के लिए कुछ भी कहना अव्याक्त है। वैसे निब्बान का शाब्दिक अर्थ है पुछना। तृष्णा के तीक्ष हो जाने की अवस्था ही निब्बान है।
निब्बान या मोक्ष की प्राप्ति समस्त साधनाओं का उद्देश्य केन्द्र रहा है। बुद्ध धर्म में निब्बान को प्रमुख. या प्रधान स्थान दिया गया है। बुद्ध ने इसे मानव-जीवन का चरम वा शाश्वत सत्य माना है, जिसे कोई भी प्राणी उसके उपदेशों या शिक्षाओं का पालन करके प्राप्त कर सकता है। यह मानव-मन की इच्छा रहित अवस्था का नाम है। अतः स्पष्ट है कि निब्बान कोई ठोस वस्तु या किसी निश्चित स्थान पर रहने वाली कोई चीज नहीं, अपितु मनुष्य के मस्तिष्क के उस. विशिष्ट अवस्था का घोतक है, जहाँ इच्छा या तृष्णा का पूर्ण निवास हो चुका रहता है। इस निर्माण की प्राप्ति के लिए पालि साहित्य में शील समाधि और प्रज्ञा का आर्य अष्टांगिक मार्ग या मध्यम मार्ग ही एक मात्र साधन मान गया है। यह निर्वाण पालि साहित्य में परमश्रेष्ठ, शान्त एवं अमृत माना गया है। निर्वाण से मानव को दुःख क्लेश और भवचक्र से मुक्ति प्राप्त होती है। बुद्ध के स्वस्थ उपदेश संघ शिक्षाएँ निर्वाण प्राप्ति को लक्ष्य में करके ही दिया गया है।
प्रश्न 15.
लुम्बिनी का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
बुद्धकालिन भारत के एक विशिष्ट जंगल या वन का नाम लुम्बिनी था, जो – तत्कालीन कपिलवस्तु या देवदह नगरी के बीच में थो। शाल वृक्षों एवं अन्य पुष्पादि लता-मण्डलों का यह सघन वन अति सुन्दर, आकर्षक और मोहक था। प्राकृतिक छटाओं की मोहकता से युक्त इसी लुम्बिनी वन में भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था। अतः भगवान बुद्ध के जन्म स्थल होने के कारण बौद्ध उपासकों के लिए यह लुम्बिनी वन महातीर्थ माना जाता है। लुम्बिनी वन भारत के उत्तरी छोर पर पूर्व से पश्चिम की ओर फैले हुए हिमालय के तराई के पास जहाँ-तहाँ फैला हुआ था। जो आज भी छिटपुट रूप में विद्यमान है। वर्तमान समय में यह गौरवमयी स्थल पर्यटकों के लिए आकर्षक का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। अतः आज यह एक आकर्षक पर्यटक-स्थल के रूप में विश्व विख्यात है।
प्रश्न 16.
राजगृह (राजगह) का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
राजगृह वर्तमान बिहार राज्य के नालन्दा जिला का एक ऐतिहासिक स्थल है। भगवान बुद्ध अपने महाभिनिष्क्रमण के पश्चात् सर्वप्रथम राजगृह ही पधारे थे, जहाँ आलास कलाम और उदकराम पुत्र से समाधि के कई स्तरों का ज्ञान लाभ किया था। ज्ञानोपलब्धि के बाद भगवान बुद्ध अपनी चारिका के क्रम में कई बार राजगृह आये थे। यहीं पर देवदत्त ने नालागिरि नामक पागल हाथी तथा अन्य उपक्रमों से बुद्ध की हत्या का असफल प्रयास किया था। सारिपुत्र और मोग्गल्लान इसी राजगृह में भगवान बुद्ध से प्रव्रज्या तथा उपसम्पदा पायी थी। मगध सम्राट बिम्बिसार तथा आजातशत्रु को बुद्ध ने इसी राजगृह के गृद्धकूट पर्वत पर : धर्मोपदेश दिया था। अपनी अन्तिम यात्रा का प्रारम्भ भी बुद्ध ने इसी राजगृह के गृद्धकुट पर्वत पर ही धर्मोपदेश दिया था। कुछ ही दिन बाद महाकश्यप की अध्यक्षता में प्रथम बौद्ध संगीति हुई थी।
राजगृह ‘का महत्व न केवल बौद्ध दृष्टिकोण से ही है बल्कि हिन्दुओं के लिए भी यह एक पवित्र स्थल माना जाता है। यहाँ के गर्म कुण्ड के झरना विश्वविख्यात हैं हर तीन साल पर यहाँ एक माह मलमास मेला लगता है, जिसमें देश-विदेश के नर-नारी पहुँचकर कुण्ड में स्नान करते हैं। द्वापर युग में यहाँ राजा जरासंघ का निवास था, जिसका साक्षी आज भी उसके नाम से बना अखाड़ा है। राजगृह को वसुमति, गिरिव्रज, वृहद्रथपुर तथा कुशाग्रपुर भी कहा गया है। यहाँ आज भी दर्शनीय चीजें विद्यमान हैं। यहाँ गृद्धकूट पर्वत, वैभारगिरि तथा रत्नागिरि पर्वत, सप्तपर्णी गुफा, स्वर्ण भंडार विम्बिसारकारा वेणुवन, शान्ति स्तूप आदि प्रमुख हैं।
प्रश्न 17.
पाटलिपुत्र का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
पाटलिपुत्र वर्तमान पटना का प्राचीन नाम है। राजगृह के गृद्धकूट पर्वत से अपनी अन्तिम यात्रा का प्रारम्भ कर भगवान बुद्ध अब अम्बलट्ठिका, नालंदा आदि का परिभ्रमण करते हुए पाटलिपुत्र पहुंचे थे और मगध सम्राट अजातशत्रु के आग्रह पर पाटलिपुत्र नगर का उद्घाटन करते हुए भविष्यवाणी की थी कि व्यापारिक दृष्टि से यह नगर भविष्य में काफी समृद्धशाली होगा, परन्तु इस नगर को तीन तरह के विघ्न वराबर उपस्थित होते रहेंगे और वे हैं- अग्नि, जल तथा पारस्परिक वैमनस्यता। बुद्ध का उपर्युक्त कथन अर्थ सत्य साबित हो रहा है।
बौद्ध साहित्य में पाटलिपुत्र का अद्वितीय स्थान है। यहीं पर मगध सम्राट अशोक के संरक्षण तथा आचार्य मोग्गलिपुत्त तिस्स की अध्यक्षता में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया था। इस संगीति में अबौद्धों को बौद्ध-संघ से निष्कासित कर बौद्ध संघ की मौलिकता ‘और चिर स्थिति को बनाये रखने में बहुत बड़ी सफलता मिली थी। इसी संगीति के पश्चात् सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्त को बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ श्रीलंका भेजा गया था।
प्रश्न 18.
पञ्जा (प्रज्ञा) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
पञ्जा आध्यात्मिक जीवन का एक आधार स्तम्भ है। बौद्ध दर्शन के अनुसार निर्वाण तक पहुंचने की यह एक कड़ी है। भगवान बुद्ध ने अपने आर्य अष्टांगिक मार्ग में प्रथम दो अर्थात् सम्मादिछि और सम्मासंकप्पयो को पञा की श्रेणी में रखा है या पञ्जा कहा है। मिलिन्दपज्हो नामक ग्रंथ के अनुसार ‘काटना’ और दिखा देना पज्ञ (प्रज्ञा) की पहचान है, यथा जैसे-कृषक बायें हाथों से धान, गेहूँ के फसल को पकड़ दाहिने हाथ से हँसिया लेकर काटता है, उसी तरह योगी विवेक से अपने मन को पकड़ पञ्जा (रूपी हॉसिया) से क्लेशों को काटता है। दिखा देने के अर्थ में उदाहरण देते हुए यहाँ कहा गया है कि पञ्जा (प्रज्ञा) उत्पन्न होने से अविधा रूपी अंधेरा दूर से जाता है और विद्या रूपी प्रकाश पैदा होता है, जिसमें चार आर्य सत्य साफ-साफ दिखाई देता है। पञ्जा के कारण मनुष्य के विवेक पर से अज्ञान रूपी पर्दा हट जाता है और विद्यारूपी ज्ञान के आलोक में संसार की यथार्थता दुःख, अनित्य तथा अनात्म को भली-भांति ज्ञान होता है।
प्रश्न 19.
सद्धा (श्रद्धा) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
“सद्दहतीति सद्धा” जो धर्म विश्वास उत्पन्न करता है, अथवा जिसके द्वारा श्रद्वेय वस्तुओं में विश्वास किया जाता है, अथवा विश्वास करना मात्र सद्धा (श्रद्धा) है। बुद्धोत्पाद आदि श्रद्धेय वस्तुओं में संदेह न होकर उनकी सत्यता में विश्वास होना श्रद्धा है। यह बाढ़ को पार करने की तरह लाँघने या उसमें निर्भय प्रवेश करने के लक्षणावली है। यह दान देना, शील की रक्षा करना, उपस्थित करना एवं भावना का आरम्भ करना आदि कर्म में पूर्वगामी होती है, चित्र की स्वच्छता इसके जानने का आधार है। अधिमुक्ति इसका प्रत्युप्रस्थान है। श्रद्धेय वस्तुएँ इसका आसन्न कारण है। त्रिरत्ल (बुद्ध, धर्म, संघ), कर्म कर्मफल, इसलोक, परलोक आदि श्रद्धेय वस्तुएँ हैं। विभिन्न प्रकार के नदी, वृक्ष, पशु आदि के प्रति अन्य अवरकोटि के देवी-देवताओं के प्रति होने वाली श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा न होकर प्रतिरूपिका (कृत्रिम) श्रद्धा है। इसे श्रद्धा न कहकर मिथ्याधि मोक्ष कहना चाहिए। श्रद्धा चेतसिक, सर्द्धम-श्रवण आदि श्रोतापति के पदस्थान वाला है। इसे हाथ, धन और विज के समान समझना चाहिए।
प्रश्न 20.
सति (स्मृति) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
‘सरतीति सति’ अर्थात् जो धर्म स्मरण करता है अथवा जिसके कारण स्मरण किया जाता है अथवा स्मरणमात्र सति (स्मृति) है। भगवान बुद्ध ने साधकों के लिए जीवन के पग-पग सति के महत्व को बतलाया है। सति कुशल धर्मों का स्मरण करती है, यथा-यह चार सतिपट्ठान है, यह चार सम्दामधान है इत्यादि। हित, अहित धर्मों की गति का अन्वेषण करके अहित्य का त्याग एवं हित का उपादान करने वाली सति है। सति दो प्रकार की होती है- बुद्ध आदि आलम्बनों का स्मरण करने वाली स्मृति सम्मासति (सम्यक्स्मृति) है तथा लाभ एवं मोह आदि के आलम्बनों का सदा स्मरण करने वाली स्मृति कृत्रिम स्मृति है। सुत्तों में इसे मिथ्यास्मृति कहा गया है। आलम्बन में दृष्टापूर्वक प्रतिष्ठित होने के कारण सति को इन्द्रलोक के समान यथा चक्षुदृष्टि आदि की रक्षा करने के कारण इसे पहरेदार के समान समझना चाहिए।
प्रश्न 21.
समाधि पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
समाधि चित्र एकाग्रता का ध्यानावस्था को समाधि कहा जाता है, संसार के सारे उपकरण मनुष्य को क्षणिक सुख प्रदान कर अपने में लिपटाये रखते हैं, आजीवन प्राणी विश्व कि लौकिक विभूतियों तथा समाज और संसार की अन्य सुन्दर अवस्थाओं में आसक्ति रहा है, यह आसक्ति तृष्णा की जड़ मजबूत करती है, जिसके चक्र में फंसा प्राणी जन्म जन्मान्तर तक दुःख भोगता रहता है। इस दुःख का नाश तथा शाश्वत सुख की उपलब्धि कैसे हो इसके लिए भगवान बुद्ध ने कुछ व्यावहारिक एवं प्रायोगिक ढंग बतलाया है, जिसे बौद्ध वाणी में साधना या समाधि कहते हैं। इस प्रकार चित्त का दमन एवं चित्त की चंचल प्रवृत्तियों पर अंकुश डालने के लिए चित्त की जो एकाग्रावस्था होती है उसे ही समाधि कहा जाता है, चार स्मृति प्रस्थान समाधि के निमित्त और चार सम्यक् प्रयत्न समाधि के सामग्री हैं, इस प्रकार संक्षेप में स्मृति और व्यायाम का सेवन, बढ़ाव तथा इनकी भावना करना ही समाधि भावना है।
समाधि दो प्रकार के होते हैं, समथ भावना सामाधि और विपस्सना भावना समाधि। दु:ख के मूल कारण तृष्णा के विनाश द्वारा निर्वाण प्राप्ति के लिए साधक या योगावचर सामाधि की भावना करता है, इसके लिए वह अकुशल का परित्याग कर कुशल को ग्रहण करते हुए चित्त की चार भूमियों में से कामावचर, रूपावचर तथा अरूपावचर में जो मानसिक क्रियाएँ करता है उसका नाम समर्थ भावना समाधि है। विपस्सना भावना समाधि उस मानसिक क्रिया को कहते हैं, जिसके द्वारा साधक चित्त की अन्तिम भूमि लोकुत्तर में दस संयोजनों को नष्ट करते हुए निर्वाण का साक्षात्कार करता है। इस प्रकार सामाधि दुःखों के विनाश और स्थायी सुख की प्राप्ति के लिए बौद्धमतानुसार चित्त को एकाग्र करने की यह विशिष्ट यौगिक क्रिया है।
प्रश्न 22.
नीवरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
‘नीवरण’ का शब्दगत अर्थ रोकना होता है, नीवरण सामाधि प्राप्त के मार्ग को रोक अर्थात् रोड़ा उत्पन्न करता है, दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि नीवरण चित्त की चंचलता को बनाये रखने में सहायक है। नीवरण पाँच हैं, यथा
- कामकन्द की,
- व्यापाद,
- चीन – मिद्ध,
- उद्धच्च – दुकुच्च,
- विचिकिच्छा।
कामभोग सम्बन्धी कामना की कामछन्द कहते हैं। प्रतिहिंसा की भावना व्यापाद है। मानसिक और शारीरिक आलस्य थीन-मिद्ध है। चंचलता और पश्चाताप उद्धच्च-कुकुच्च है। बुद्ध, धर्म और संघ के सम्बंध में संदेह विच्चिकिच्छा है। इन्हीं पाँच नीवरणों के दबाने पर रूपावचर चित्त भूमि में कोई साधक या योगावचर किसी गुरू की सहायता से चालिस कम्मट्ठानों में से किसी एक पर चित्त को एकाग्र करने में सफल होता है। इस तरह हम देखते हैं कि नीवरण किसी साधक के निर्वाण प्राप्ति मार्ग में अवरोध उत्पन्न करता है। जिसका विनाश करना साधक के लिए अनिवार्य होता है। क्योंकि इसके विद्यमान रहने पर निर्माण प्राप्ति करना असम्भव है।
प्रश्न 23.
अरहत (अर्हत) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
जीवन मुक्ति को अरहत कहते हैं। जिसके समस्त चित्त क्लेशों एवं मन के विकारों को निर्मूल करके शील, समाधि और प्रज्ञा की पूर्णता द्वारा निर्वाण को उपलब्ध कर अपने को जन्म-मरण से परे बना लिया हो उसे अरहत कहते हैं। अरहित् की प्राप्ति के पूर्व कोई साध क या योगावचर श्रोतापति, साकृदागामे, अनागामि के ध्यानाभ्यास में दस संयोजनों का पूर्णत: प्रहाण कर चुका होता है। अतः अरहत प्राप्त व्यक्ति समस्त दुःखों की जननी तृष्णा का विनाश कर भवचक्र के बंधनों को तोड़ डालता है और वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। अरहत प्राप्त व्यक्ति सांसारिक कामभोगों तथा विषय वासनाओं के साम्राज्य में पुनः उलझता नहीं। वह लोभ, दोष तथा मोह आदि अकुशल कर्मों से सहित हो निन्दा प्रशंसा में सदा अविचलित रहता है, अपनत्व और परत्व की कुटिसत भावना से ऊपर उठा होता है। विश्व-कल्याण वसुधैव-कुटुम्बकम, भावना से ओत-प्रोत हो वह सभी प्राणियों की प्रति दया, करुणा, सहानुभूति, मैत्री आदि भाव रखते हुए सत्य अहिन्सा, त्याग, गुण, प्रेम इत्यादि गुणों का सर्वत्र संचार करता है।
प्रश्न 24.
बोध गया का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
वर्तमान बोधगया, गया जिला मुख्यालय से आठ-दस मील दक्षिण निरंजना नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान का यह मौलिक नाम नहीं है। बोधिसत्व के रूप में भगवान बुद्ध उरूवेला के जंगलों में निरंजना नदी के तट पर साधनारत हो जब बुद्धत्व या बोधि प्राप्त किया था तब से इस स्थान का नाम बोधगया हो गया है। पहले इसका नाम उरुवेला ही था। बुद्ध के ज्ञान-स्थली होने के कारण आज यह स्थान बौद्धों का महातीर्थ स्थलों में एक माना जाता है। ‘महापरिनिब्बान सुत्त’ में चर्चा है कि कुशीनारा में अब महापरिनिब्बान से पूर्व भगवान बुद्ध ने आनन्द से बौद्धों के लिए चार दार्शनिक स्थानों की घोषणा की थी।
वे चार दार्शनीय स्थान- तथागत के जन्म स्थली, लुम्बिनी, ज्ञान प्राप्ति स्थान बोधगया, प्रथम धम्मचक्कपवत्तनं स्थान सारनाथ और भरावरिनिब्बान स्थान कुशीनारा। इसी तरह बौद्धों के चार दर्शनीय स्थलों में बोध-गया का दूसरा स्थान है। बोध गया में जिस पीपल वृक्ष के निचे सिद्धार्थ ने बुद्धत्व की प्राप्ति की थी वह पीपल वृक्ष आज बोधिवृक्ष के नाम से जाना जाता है। बोध-गया का प्राचीन नाम उरूवेला था। आज भी उरूवेला नामक कस्बा या वस्ती वर्तमान है जो अपनी प्राचीन नाम की गरीमा को संयोगे परम दर्शनीय है।
प्रश्न 25.
वैशाली का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
बुद्धकालीन भारत के सोलह जनपदों में एक वैशाली भी एक थी। आधुनिक वैशाली, मुजफ्फरपुर, चम्पारण और दरभंगा जिले तत्कालीन वैशाली जनपद के अंग थे। त्रिपिटक एवं अट्ठाकथाओं के अनुसार वैशाली एक वैभवशाली राज्य था। नगर के सात हजार सात सौ सात प्रसाद तथा उतनी ही संख्या में कुटागार, आराम, पुष्करणियाँ आदि इसकी समृद्धि के द्योतक थे और उस समृद्धि का श्रेय वज्जियों (लिच्छवियों) की गणतांत्रिक शासन व्यवस्था को दिया जाता था। लिच्छवियों के वस्त्राभूषण और रहन-सहन ग्रह प्रमाणित करते थे कि वे साज श्रृंगार, के बड़े प्रेमी थे। नृत्य-गीत और वाद्य से भी उनकी अच्छा लगाव था।
तभी तो अपने मनोरंजन के लिए परम सुन्दरी नृत्यांगना अम्बपालि को गाणिका (राज्य नर्तकी) के रूप में उन्होंने प्रतिष्ठित किया था। भगवान बुद्ध अपनी अन्तिम चारिका या यात्रा का अन्तिम वर्षावास वैशाली में बिताया। वैशाली गणतंत्र में सात अपरिहारणीय धर्म के पालन की प्रशंसा करते हुए तथागत ने राजगृह के गृद्धकुट पर्वत पर मगध सम्राट आजातशत्रु के महामंत्री वर्षकार से कहा था कि जब तक वज्जिओं द्वारा सात अपरिहाणीये धर्मों का पालन किया जाता रहेगा तब-तक वैशाली गणतंत्र को कोई जीत नहीं सकता। ..
प्रश्न 26.
कुशीनगर का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
सुत्तपिटक साहित्य के दीघनिकाय के ‘महापरिनिब्बान सुत्त’ के अनुसार बौद्धों के लिए चार दर्शनीय स्थलों में कुशीनगर एक है। यह स्थल भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण स्थल होने के कारण पालि त्रिपिटक और बौद्ध जगत में बड़ा ही विशिष्ट स्थान रखता है। अपनी 80 वर्ष की अवस्था में इसी कुशीनगर से जुड़वे शाल-वृक्षों की सुखद छाया में 483 ई० पू० वैशाख पूर्णिमा को भगवान बुद्ध महापरिनिब्बाण को प्राप्त किया था। बुद्ध कालीन कुशीनगर मल्लों की नगरी थी। भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद कुशीनारा के मल्लों ने पूरे राजकीय सम्मान और चक्रवर्ती सम्राट के समान अपने शास्ता की अन्येष्ठी क्रिया के लिए बैड-बाजे साथ एकत्रित हुए थे तथा अत्यधिक उमंग एवं निष्ठा के कारण पूरे छः दिनों तक उनके पार्थिक शरीर को विभिन्न फूलों, मालाओं, गन्धों और गगनभेदी नारों से पूजा अर्चना करते थे।
सातवें दिन ‘मुकुट-बन्धन नामक मल्लों के पवित्र स्थल पर बुद्ध के पार्थिव शरीर को अग्नि समर्पित किया गया था। आज भी देश-विदेश के पर्यटक इस पुण्य स्थल को देखने के लिए कुशीनारा पहुंचते हैं। ‘दिव्यादान’ के अनुसार जब मगधराज अशोक ने कुशीनगर की यात्रा की तो भगवान की इस परिनिर्वाण भूमि को देखकर भावावेश में मूर्छित हो गये थे। सन् 1861 की ऐतिहासिक खुदायी के परिणामस्वरूप कनिघम ने वर्तमान कसया (जिला गोरखपुर) और विशेषतः इसके समीप अनुरूधवा गाँव के टीले को प्राचीन कुशीनगर बताया था, जिसके सम्बंध में यद्यपि वाटर्स और स्मिथ ने संदेह प्रकट किया था, परन्तु बाद के खोजों ने इस पहचान को प्रायः निश्चित प्रमाणित कर दिया।
प्रश्न 27.
इसिपतनमिगदाय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
इसिपतनंमिगदाय वर्तमान उत्तर प्रदेश के सारनाथ के जंगल का बुद्धकालीन नाम है। घने जमलों से घिरे सुरभ्य मनोहर और प्राकृतिक सौंदर्य वाले इस उपवन में मृग या हिरण के निवास होने के कारण ही इस स्थान का नाम मिगदाय पड़ा तथा ऋषियों एवं तपस्वियों के साधना स्थल होने के कारण इसे इसिफ्तन कहा जाता था। यह ऋषियों का मिगदाय ही पहला स्थान था जहाँ भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम धर्मोपदेश दिया था। जिसे पालि साहित्य में धम्मचक्कपवत्तनं के नाम से जाना जाता है। यहीं अपने प्रथम धर्मोपदेश के अवसर पर भगवान बुद्ध ने पञ्चवर्गय भिक्षुओं को दो अतिशयों के त्याग, मध्यम मार्ग की महानता, चार आर्य सत्यों का प्रकाशन, प्रतीव्य समुत्पाद का प्रत्याख्यान और दुःख अनित्य एवं अनात्म का विशद् विवेचन प्रस्तुत किया था। ‘महापरिनिब्बान सुत्तं के अनुसार बौद्धों के चार दर्शयनीय स्थलों में यह भी एक है। इस गौरवमयी स्थल को देखने के लिए आज भी देश-विदेश के पर्यटकों में भीड़ लगा हुआ रहता है।
प्रश्न 28.
जातक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
जातक ‘खुदकनिकाय’ का 10वाँ प्रसिद्ध ग्रंथ है और सुत्तपिटक इसका अपना विशिष्ट स्थल है। जातक शब्द का अर्थ जन्म संबंधी है। जातक में भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म सम्बन्धी कथाएँ हैं। बुद्धत्व प्राप्ति कर लेने की अवस्था से पूर्व भगवान बुद्ध बोधिसत्व के रूप में जाने जाते हैं और दान, शील, मैत्री, सत्य इत्यादि पारमिताओं अथवा परिपूर्णताओं का अभ्यास करते हैं। जातक कथाओं में वे प्रधान पात्र के रूप में उल्लिखित हैं। कहीं-कहीं उनका स्थान . गौनपात्र के रूप में होता है और कहीं-कहीं दर्शक के रूप में भी चित्रित किये गये हैं।
जातक में भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म के 547 कथाएँ संग्रहित है, जो 22 निपातों में विभक्त है। इसका विभाजन ठीक उसी प्रकार किया गया है, जिस प्रकार थेर एवं थेरीगाथाओं का।: जातक केवल साहित्य दृष्टिकोण से ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि प्राचीन भारतीय संस्कृति के इतिहास के लिए प्रजोत है। शिल्पकला के क्षेत्र में भी जातक का गहरा छाप है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण भरभूत एवं साँची के पत्थरों पर उत्कीर्ण बौद्ध शिल्प कला को देखने से मिलता है।
इसी प्रकार दक्षिण भारत के अमरावती के भाष्कर और उसके उत्तरकाल में विश्वविख्यात अजन्ता एवं एलोरा का जो चित्रण है सभी जातक पर आधारित हैं, तत्कालीन सामाजिक जीवन का जितना अच्छा चित्र जातक से प्राप्त होता है, उतना अन्य भारतीय ग्रंथों से नहीं। इस प्रकार तत्कालीन लोगों के रहन-सहन शिक्षा पद्धति राजनैतिक अवस्था आदि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जातक एक महत्वपूर्ण श्रोत है।
प्रश्न 29.
धम्मपद पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
धम्मपद् सुत्तपिटक के ‘खुदृकनिकाय’ का दूसरा महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसे बौद्ध साहित्य का संभवतः सबसे लोकप्रिय ग्रंथ माना जाता है। इस प्रकार इसे बौद्धों का गीता भी कहा जाता है। धम्मपद शब्द का अर्थ है धर्म सम्बंधी पद या शब्द। ‘पद’ का शाब्दिक अर्थ · . वाक्य या गाथा की पंक्ति भी होता है। अतः धम्मपद का अर्थ धर्म सम्बन्धी वाक्य या गाथा भी है। धम्मपद में कुल 423 गाथाएं हैं, जो 26 वर्गों में विभक्त है। धम्मपद की विषय वस्तु को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि उसमें नीति के वे सभी आदर्श संग्रहित हैं जो भारतीय संस्कृति और समाज की सामान्य सम्पत्ति है। संक्षेपतः इस ग्रन्थ के बारे में कहा जा सकता है कि नैतिक दृष्टि से जितना गम्भीर है, उतना ही वह प्रसादगुणपूर्ण भी है।
पूज्य भदन्त आनन्द कौसल्यायन जी का यह कथन बिलकुल ठीक है कि “एक पुस्तक को और केवल एक एक पुस्तक को जीवन भर साक्षी बनाने की यदि कभी आपकी इच्छा हुई तो विश्व के पुस्तकालय में अपने ‘धमपदं”” से बढ़कर दूसरा पुस्तक मिलना कठिन है बुद्धोपदेश का धम्मपद से अच्छा संग्रह पालि साहित्य में नहीं है। इसकी गाथाएं सरल और मर्मर पार्थिनी है। इन गाथाओं में शील, समाधि, प्रज्ञा, निर्वाण आदि का बड़ी सुन्दरता के साथ वर्णन है जिन्हें पढ़ते हुए अद्भूत संवेग, धर्मरस शान्ति और संसार निर्वेद का अनुभव होता है। अतः आज विश्व में मानव के समक्ष मुँह वाये खड़ी विभिन्न चुनौतियों और विषम परिस्थितियों में धम्मपद के प्रचार की बहुत बड़ी आवश्यकता है। जितना ही इसका प्रचार होगा, उतना ही मानव जनता का कल्याण होगा।
प्रश्न 30.
उदान से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
‘उदान’ सुत्तपिटक साहित्य के ‘खुदक’ निकाय का तीसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। ‘उदान’ भगवान बुद्ध के मुख्य से समय-समय पर निकले हुए प्रीति-वाक्यों का संग्रह है। भावातिरेक से सन्तों के मुख से जो प्रीति वाक्य निकला करते हैं, उन्हें उदान कहते हैं। ‘उदान’ : में भगवान बुद्ध के ऐसे गम्भीर और उनकी समाधि-अवस्था के सूचक शब्द संगृहीत हैं, जो उन्होंने विशेष अवसरों पर उच्चरित किये।
‘उदान’ में आठ वग्ग हैं और प्रत्येक बग्ग में 10 सुत्त हैं, केवल 7वें वग्ग में 9 सुत्त हैं। आठ वग्गों, के नाम इस प्रकार हैं-
- वोधिवग्ग,
- मुचलिन्द वग्ग,
- नन्द-वग्ग,
- मेथिय वग्ग,
- सोणत्थेरस वग्ग,
- जज्चन्ध-वग्ग,
- चुलवग्ग,
- पाटलिगामिय वग्गो प्रत्येक वग्ग के प्रत्येक सुत्त में भगवान बुद्ध का गाथावृद्ध उदान है।
शैली सरल है और सब जगह प्रायः एक सी है। उदान की सबसे बड़ी विशेषता है बौद्ध-जीवन दर्शन का उसके अन्दर स्पष्टतम प्रस्फुटित स्वरूप। बुद्ध-जीवन के अनेक प्रसंगों के अतिरिक्त चित्त की परम शान्ति निर्वाण, पुनर्जन्म, कर्म और आचार-तत्व सम्बंधी गंभीर उपदेश उदान में निहित है।
प्रश्न 31.
अपदान से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
अपदान खुद्दकनिकाय का क्रमबद्ध 13वाँ ग्रंथ है। इसमें 547 बौद्ध भिक्षुओं और 40 भिक्षुणियों के पूर्व जन्मों के महान कृत्यों का वर्णन है। जातक के समान ही इसकी कहानी के दो भाग हैं-एक अतीत जन्म सम्बन्धी और दूसरा वर्तमान जन्म सम्बंधी। अपदान दो भागों में विभक्त: है और अपदान और थेरी अपदान में 55 वर्ग हैं और थेरी अपदान में 41 थेर 10 अपदान (केवल 24वें वर्ग में 7 अपदान) थेरीगाथा में 10 अपदान जो साहित्य या इतिहास की दृष्टि से इस ग्रन्थ का कोई विशेष महत्व नहीं है। हाँ लोकधर्म के रूप बौद्ध धर्म का एक चित्र यहाँ अवश्य मिलता है, इसी ग्रन्थ की शैली पर संस्कृत बौद्ध साहित्य का अपदान साहित्य अधिकाशंतः विकसित हुआ है, यह भी इसका महत्व कहा जा सकता है। अपदान में ‘चीनरट्ठ’ (चीनराष्ट्र) का उल्लेख है।
प्रश्न 32.
बोधिसत्त से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
बोधिसत्व दो शब्दों के योग से बना है-बोधि और सत्व। बोधि का अर्थ ज्ञान, बोध का विवेक होता है और सत्य का अर्थ प्राणी। इस तरह दोनों शब्दों के मिलने से जो अर्थ प्रकट होता है वह है. ज्ञान के लिए प्राणी। दूसरे शब्दों में सम्यक् सम्बोधि (ज्ञान) की प्राप्ति के लिए सत्यकर्मकर्ता पुरुष को बोधिसत्व कहा जाता है ये बुद्ध पद के अभ्यर्थी होते हैं। भगवान बुद्ध अपने बुद्धत्वलाभ के पूर्व अनेक जन्मों तक बोधिसत्व के रूप में कुशल कर्मों के सम्पादन करते हैं, यानि बुद्धत्व प्राप्ति के पूर्व जन्मों में भगवान बुद्ध बोधिसत्व के नाम से जाने जाते हैं। बोधिसत्व के रूप में उनकी कहानियाँ जातक ग्रंथ में देखने को मिलता है।
लगभग 550 जातक कथाओं में भगवान बुद्ध बोधिसत्व के रूप में सदैव 10 पारमिताओं यथा-दान पारमिता, शीलपारमिता, नैव्कम्यपारमिता, पतापारमिता, वीर्यपारमिता, शान्तिपारमिता, सत्यपारमिता, अधिष्ठान-पारमिता, मैत्रीपारसिता तथा उपेक्षापारमिता का पालन किये हैं। बोधिसत्व आदर्श सेवा एवं शुद्धता का जीवन है। बोधिसत्व केवल बौद्ध ही नहीं होते, बल्कि अन्य धर्मावलम्बी भी होते हैं। बोधिसत्व तीन प्रकार के होते हैं। प्रज्ञा प्रधान, सद्धप्रधान और वीर्य प्रधान। प्रज्ञा प्रधान का यह अर्थ कदापि नहीं कि उनमें श्रद्धा तथा वीर्य का अभाव रहता है। श्रद्धा एवं वीर्य की अपेक्षा प्रज्ञा की प्रबलता के कारण, प्रज्ञा प्रधान कहा जाता है। इसी तरह अन्य दो के सम्बंध में भी ऐसा ही समझना चाहिए। भगवान बुद्ध को प्रज्ञा प्रधान बोधिसत्व माना गया है।
प्रश्न 33.
सारिपुत्त का संक्षिप्त परिचय दें
उत्तर:
सारिपुत्त भगवान बुद्ध की प्रमुख शिष्यों में से एक थे। सारिपुत्त में तत्कालीन साम्राज्य के नालन्दा क्षेत्र के निवासी माना जाता है। सारिपुत्त को उपतिस्स के नाम से भी जाना जाता है। मोग्गलान सारिपुत्त के मित्र थे। दोनों मित्र बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध के एक साथ पाब्बजा तथा उपसम्पदा पायी थी। दोनों मित्र बौद्धधर्म में दीक्षित होने के पूर्व राजगृह स्थित संजय परिब्राजक के शिष्य थे। भगवान बुद्ध के आदेश पर सारिपुत्त ने ही राहुल कुमार (भगवान बुद्ध के पुत्र) को बौद्ध धर्म में प्रव्रजित किया था। सारिपुत्त बड़ा ही तेज बुद्ध के भिक्षु थे। इन्हें अभिधर्म के ज्ञाता माना जाता था। बुद्ध के उपदेशों में उनके शिष्यों के उपदेश होने के बावजूद भी उसे बुद्ध वचन माना जाता है, क्योंकि ऐसे उपदेशों का बुद्ध द्वारा अनुमोदन प्राप्त है। मज्झिम निकाय का सम्मादिट्ठि-सुत्त करिपुत्र द्वारा भाषित है तथापि यह बुद्ध वचन है, क्योंकि इस सुत्त के उपदेश का बुद्ध द्वारा अनुमोदन प्राप्त है। बुद्ध के जीवन काल में ही बुद्धधर्म था उपदेश को जन-जन तक पहुँचाने में सारिपुत्त का अद्वितीय योगदान को कभी भूलाया नहीं जा सकता।
प्रश्न 34.
आनन्द का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
आनन्द भगवान बुद्ध के अग्रगण्य शिष्यों में एक था। भगवान के सबसे निकट और साथ रहने का सौभाग्य आनन्द को ही प्राप्त था। आनन्द के आग्रह पर भगवान बुद्ध अनेक बार लोगों को उपदेश दिये थे। आनन्द के आग्रह पर ही बुद्ध ने बौद्ध संघ में महिलाओं के प्रवेश तथा भिक्षुणी संघ का निर्माण किया था। भगवान पब्वज्या सुत्त का उपदेश भी आनन्द के आग्रह पर ही दिया था। इस प्रकार भगवान बुद्ध बहुतों बार आनन्द को सम्बोधित कर भिक्षुओं को उपदेश दिया है।
भगवान बुद्ध के अन्तिम वचन सुनने तथा उनकी अन्त्येष्ठि क्रिया में भाग लेने का सौभाग्य आनन्द को प्राप्त था। बुद्ध महापरिनिर्वाण के. बाद महाकास्सप के अध्यक्षता में जो प्रथम बौद्ध संगीति हुई थी उसमें आनन्द नेही महाकास्सप द्वारा पूछे गये ध म विषयक प्रश्नों का सविस्तार उत्तर दिया था। अगर इस संगीति में आनन्द सम्मलित न होता तो शायद त्रिपिटक का बुद्धवचन के रूप में संगायन करना आसान न होता। इस संगीति में बुद्ध महापरिनिर्वाण के समय अपने द्वारा किये गये कुल भूलों की जिम्मेवारी आनन्द स्वीकार करते हुए. समस्त सभासदों के आगे प्राचित भी किया था। संक्षेपतः कहा जा सकता है कि आनन्द बौद्ध धर्म ज्ञाताओं में एक थे, तभी तो धर्मधर कहा जाता है।
प्रश्न 35.
सुजाता का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
सुजाता बुद्धकालीन उरूवेला (वर्तमान बोध गया) के सेनानी कस्वे में एक बड़े कृषक के घर जन्म ग्रहण की थी। तरूणी होने पर उसे वट वृक्ष (पीपल वृक्ष) से यह मनौती.. की थी कि समान जाति के कुल जो पहले ही-गर्भ में यदि मैं पुत्र प्राप्त करूँगी तो प्रतिवर्ष एक लाख के खर्च में वृक्ष देव का पूजन करूंगी। उसकी यह मनोकामना पूरी हुई। अतः एक वैशाख पूर्णिमा को अपने मनौती को पूर्ण करने की इच्छा से हजार गायों को मधुवन में चरवा, उनके दूध को पाँच सौ गायें को पिलवा इसी क्रम से उसने आठ गायों को तैयार करवा उनके दूध से खीर पकायो। तदन्तर सुजाता ने अपनी दासी पूर्णा को वृक्ष के निकट जा देवस्थान को साफ करने की अनुमति दी।
छः वर्षों की दुष्कर तपश्चर्या को पूर्णकर बोधिसत्व की उसी रात्रि में पाँच महास्वप्नों को देख, अपनी बुद्धत्वकाल की समीप समक्ष प्रातःकाल उसी वृक्ष के नीचे अपनी प्रतिभा से सारे वृक्ष को प्रभावित कर बैठे हुये थे। पूर्णिमा ने आकर वृक्ष के निचे बोधिसत्व को देखा। . देखकर सोची की उसकी स्वामिनी की भक्ति से प्रसन्न हो वृक्षदेव स्वयं साक्षात् हो मनौती लेने की निमित बैठे हैं। इसलिए उसने शीघ्र ही आकर सुजाता से यह बात कही। सुजाता ने भी शीघ्र ही चलकर क्टवृक्ष के नीचे स्नेह सूर्य-अर्थात् बोधिसत्व (सिद्धार्थ) को बैठा देख अपना . . कुल देवता समझ लिया और स्वर्ण थाल में ओजपूर्ण खीर सिद्धार्थ के कर कमलों में रख दिया। सिद्धार्थ ने उसे ग्रहण किया और आश्चर्य है उसी रात में उन्हें सम्बोधि अर्थात् बुद्धत्व का साक्षात्कार हुआ। तब से यह घटना पालि साहित्य में ‘सुजाता पायसदानं’ के नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 36.
विशाखा मिगारमाता का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
विशाखा एक कुशल बौद्ध उपासिका थी, जिसने एक प्राचीन भारतीय नारी त्याग और बलिदान की पवित्र भावना का परिचय दिया था। विशाखा, अंग राज्य के भट्ठिया नगर के सुप्रसिद्ध रईश धनञ्जय की पुत्री थी। बाल्यकाल से ही उसे बुद्ध के प्रति अपार श्रद्धा थी। बड़ा होने पर उसका विवाह श्रावस्ती के निवासी मिगार पुत्र प्राज्ञवर्द्धन से कर दिया गया था। विवाहोपरान्त जब वह श्रावस्ती में रह रही थी उसी समय भगवान बुद्ध एक बार श्रावस्ती में अनाथपिण्डिका के जेतवनाराम में विहार कर रहे थे। विशाखा वहाँ जाकर, भिक्षु संघ सहित भगवान बुद्ध को अपने यहाँ भोजनो पर आमंत्रित की थी। भोजनोपरान्त तथागत के उपदेश-श्रमण से ही मिगार का चित्र आश्रव विमुक्त हो गया था। इसका श्रेय विशाखा की ही था। अतः उसके नाम के बाद मिगार शब्द जोर दिया गया। पुनः उसका पति प्रज्ञावर्द्धन ने उसे माता कहकर सम्बोधित किया, जिसके कारण तभी से वह विशाखा मिगारमाता के नाम से प्रसिद्ध हुई।
विशाखा मिगारमाता के आठ वरदान पालि साहित्य में चिर स्मरणीय है. जिसकी स्वीकति उसे भगवान से मिली थी उसने आठ वरदानों से जीवन भर भिक्षु संघ को सेवा करते रहने की प्रतिज्ञा की थी। वे प्रतिक्रिया हैं-वस्सिकं साटिक, आगन्तुकभत्तं, गिलान भत्रं, गिलानुपट्ठाकभत्तं, गिलानभेससञ्ज, धुबयागु और उदसाटिक। विशाखा के उपर्युक्त आठों अनुदानों उसका एक . ऐसा त्याग चित्त उपस्थित करता है, जिसके आधार पर हमें उसे समस्थ भारतीय नारी जगत के या नारी आकाश के चाँद कह सकते हैं।
प्रश्न 37.
मोग्गल्लान का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
मोग्गलान भगवान बुद्ध के अत्राश्रावक थे। पालि साहित्य में कोलित के नाम से भी जाना जाता है। सारिपुत्र मोग्गलान के मित्र थे दोनों मित्र एक साथ बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए थे। दोनों मित्र पहले राजगृह स्थित संजय परिव्राजक के शिष्य थे। संजय इन दोनों सहित 250 परिब्राजको का गुरू था। दोनों मित्र अश्वजित नामक बौद्ध भिक्षु के दर्शन के बाद अपने 250 परिव्राजक शिष्यों के साथ राजगृह के वेणुवन, में भगवान बुद्ध के बौद्ध धर्म की प्रव्रज्या तथा उपसम्पदा पायी थी। मोग्गलान सारीपुत्र के भांति ही बौद्ध-संघ का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति था। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार और बौद्ध संघ को सुदृढता प्रदान करने में मोग्गलान के योगदान को कभी भूलाया नहीं जा सकता। बौद्ध धर्म के उत्थान में अपनी अद्भूत सेवा के कारण ही तो बुद्ध के प्रधान शिष्यों में अपना बनाया था।