Bihar Board 12th Hindi निबंध लेखन Important Questions Part 2

BSEB Bihar Board 12th Hindi Important Questions निबंध लेखन Part 2 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Hindi निबंध लेखन Important Questions Part 2

1. राष्ट्रीय एकता

यह सर्वमान्य सत्य है कि किसी भी राष्ट्र की शक्ति उसकी जनसंख्या में नहीं अपितु उसकी एकता में होती है। गृह-कलह,से जैसे परिवार विभाजित होकर पतनोन्मुख हो जाता है, ठीक उसी प्रकार राष्ट्र की एकता जब खंडित होती है तो उसके पतन को रोक पाना मुश्किल हो जाता है। फिर तो गुलामी की बेड़ी में जकड़ना ही उसका एकमात्र निदान होता है।

एक समय था जब हमारा देश सभ्यता और संस्कृति के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान था। पूरे विश्व को अपनी ज्ञान-रश्मियों से आलोकित करने का श्रेय इसे ही था। वेद और उपनिषद जैसे दुर्लभ ग्रंथों की रचना यहीं के ऋषि मनीषियों ने किया था। देवलोक में जाकर देवताओं को भी असुरों के खिलाफ युद्ध में मदद पहुंचाने का काम केवल भारतीयों ने ही किया था। फिर भी चन्द फिरंगियों ने आकर इसको पददलित करते हुए सैंकड़ों वर्ष गुलाम रखा। क्या सचमुच यह देश वीर विहीन हो गया था.? कतई नहीं, परन्तु इतना सत्य है कि भाई-भाई में भेद अवश्य उत्पन्न हो गया था जिसके चलते आपसी स्नेह और सद्भाव का सर्वथा लोप हो गया था। एकता खडित हो गयी थी। गुलामी गले आ पड़ी। फिर तो विदेशियों के खूटे में बंधकर गुलामी का पशुवत जीवन जीने के सिवा कोई चारा नहीं रहा।

और जब तक हमारी यह स्थिति बनी रही, हम गुलामी का जीवन जीते रहे। जागृति आयी। आपसी स्नेह-भाव बढ़ा- कि हम एक हुए। फिर तो वे ही फिरंगी जिन्होंने सदियों तक हमें गुलाम बनाये रखा था उन्हें एकताबद्ध होकर हमने सात समुद्र पार भायने को विवस कर दिया। यही है एकता का माहात्म्य और अजेय शक्ति। अतएव कोई भी राष्ट्र जब तक संगठित और एकताबद्ध है, बल्कि वह अल्पसंख्यक ही क्यों न हो, उसको कोई विशाल राष्ट्र पददलित नहीं कर सकता। एकता का यही मूलमंत्र वह आमोध कवच है जो देश को खंडित होने से रोकता है।

स्मरण रहे, आजादी के पूर्व हमारे देश में जो एकता की भावना उभरी थी, आज उसका हास देखने में आ रहा है। आज हम पुनः प्रान्तीयता, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता और भाषाभेद पर ‘ विभाजित हो रहे हैं। सम्पूर्ण देश भारत की चिन्ता न कर पंजाब, बिहार, बंगाल, असम और गुजरात से जुड़े, अपने-अपने प्रान्त की चिन्ता लेकर ही केवल परेशान हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमारी सैन्य शक्ति घरेलू उपद्रवों के दबाने में ही विलीन होती जायेगी और एक दिन ऐसा आयेगा कि अपने-अपने स्वार्थ से जुड़कर हमारा मनोबल टूट जायेगा और सर्वत्र विद्रोह की समां बंध जायेगी। फिर भी हमारे दुश्मन जो इसी ताक में लगे हैं अपने हलके आघातों से पदमर्दित कर गुलामी से. जकड़ देंगे।

आपसी विद्वेष और गृहकलह से उत्पादन क्षमता से ह्रास का आना स्वाभाविक है। फिर उत्पादन में हास होने से अर्थागम में कमी-पड़ने लगती है। देश का आर्थिक ढाँचा बिगड़ने लगता है और विकासोन्मुखी योजनाएं ज्यों-कि-त्यों पड़ी रह जाती है। फलतः देश के सामने एक भयावह संकट उपस्थित हो जाता है और पड़ोसी या सबल देश के कर्ज से दबकर हासोन्मुख होते हुए उनके अधीन हो जाते हैं। अतएव देश की आजादी को यदि अक्षुण्ण बनाये रखना है आपसी एकता को कायम रखनी है तो हर हालत में देश को खंडित नहीं होने देने का संकल्प लेना होगा तभी हमारी . आजादी सुरक्षित रहेगी।

हमारा देश भारत एक विशाल भू-भाग में बसा हुआ है। अनेकानेक संप्रदायों और जातियों में विभाजित यहाँ के निवासी धर्मावलम्बी होते हुए भी सांस्कृतिक तौर पर एक हैं। क्षेत्रीय भाषाओं के बावजूद हिन्दी भाषा की व्यापकता सर्वत्र विद्यमान है। साम्प्रदायिक भेद-भावों के होते हुए भी हम धर्मसहिष्णु हैं और एक-दूसरे के धर्म को आदर देते हैं। वेश-भूषा और रहन-सहन में भी काफी अन्तर है। फिर भी हमारे सोचने समझने का ढंग और हमारी संस्कृति एक है। अयोध्या के राम सारे भारत के राम हैं।

गोकुल के कृष्ण सारे भारत के कृष्ण हैं। मेवाड़ के राणा पूरे भारत में गौरव के धाम हैं। गुजरात के गांधी पूरे देश के बापू हैं। पंजाब के गुरु नानक पूरे भारत में वंदनीय हैं। इस तरह सारी विविधताओं के उपरांत भी हम एक हैं। इस तरह पहले हम भारतीय हैं तब बिहारी, पंजाबी या बंगाली। जब तक इस भावना से हम नहीं जुड़ेंगे, हमारी एकता अखंडित रहेगी। भाषा-भेद, धर्म-भेद और सम्प्रदाय-भेद के बावजूद राष्ट्रीय भावनाओं में भेद-बुद्धि नहीं लानी है; कारण सांस्कृतिक तौर पर हम एक हैं। एक-से-एक बाहरी आक्रमण हमारे देश पर हुए परन्तु हमारी सांस्कृतिक एकता अखंडित रही।

एतएव राष्ट्र को मानव-शरीर के रूप में स्वीकारते हुए उसके विविध अंगोंपांगों को स्वतंत्र कार्यों से जुड़े रहने के उपरान्त भी मानसिक संतुलन के आधार पर एकजुट बनाये रखना है। जैसे सारे शरीर के अंगोंपांगों को मस्तिष्क नियंत्रित रखता है उसी भाँति सांस्कृतिक एकतारूपी मानसिकता को बनाये रखकर एकता को कायम रखना है। तभी हम सबल और सशक्त राष्ट्र के रूप में अपनी आजादी बरकरार रख सकते हैं।

2. चाँदनी रात

चाँदनी रात का तात्पर्य शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के बाद वाली रात से है जब पूरी रात राकेश अपनी अमल-धवल शीतल-सौम्य ज्योतिर्मय-दीप्ति से अल-जग को नहलाते हुए न केवल आलोकित करता है। अपितु अपनी सुशीतल किरणों से तमतोम तमिस्त्रा के भयावह और सकित स्वरूप को मोहकता प्रदान करते हुए मनोज्ञता और मनोहरता प्रदान करता है। इसकी इसी सुछवि को देखकर भाव प्रवर्ण कवियों ने अपनी कृतियों में प्राकृतिक सौन्दर्य चित्रण क्रम में इस रूप राशि की अनुपम शोभा का कलमतोड़ वर्णन सोल्लास किया है। स्व० राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्तजी के ‘पंचवटी’ खंड काव्य में ज्योत्सना की इस अनुपम शोभा का चित्रण देखते बनता है-

“चारुचन्द्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।”

इस तरह रात यदि घनघोर घटाटोप तमतोम तमिस्त्रा का प्रतीक है तो चाँदनी इस तमतोम तमिस्त्रा को लीलनेवाली ज्योतिप्रभा का मूर्तरूप। सचमुच चाँदनी रात बड़ी ही सुहावनी, सुहासिनी और मनभावन होती है। मनुष्य ही नहीं अपितु संसार के सारे प्राणी चाँदनी रात की प्रकाश-गंगा में स्नान कर अमल-धवल हो जाते हैं। उनके हत्तन्त्री के तार इस आलोक-धन्वा से झंकृत हो उठते हैं। मन-मयूर सस्पन्दित होकर थिरकने लगता है। संवेदनशील कवि भावोल्लसित होते हुए कविता कामिनी के सुस्पर्श के लिए आन्दोलित हो उठते हैं। प्रेमी युगल का चित्त चंचल हो उठता है।

रातों भर उनका हृदय चंद्रिका चर्चित राका रजनी में डूबता उतरता रहता है। समग्र प्राकृतिक परिवेश अनुरागरंजित होकर अस्थिर हो उठता है। स्थिर सरोवर मध्य राकेश की प्रतिच्छवि की अनुपम शोभा देखते ही बनती है। वन-प्रांतर और पर्वत-प्रदेश की शोभा अलौकिक हो उठती है। जगत के सारे प्राणी इस मधुराका की रजत रश्मियों में निहाल हो उठते हैं। एकटक राका-रजनी की इस सुरम्य मुखाकृति को देखने के लिये नेत्र लोलुप हो उठते हैं। काश! पूर्णमासी की यह मोहकता सदा-सर्वदा बरकरार रहती परन्तु ऐसा संभव नहीं है। कारण पूरे वर्ष मात्र बारहों महीनों की अंतिम तिथि को ही पूर्णमासी होती है। इस तरह साल में बारह बार ही इसका शुभागमन होता है।

अतएव इसकी निरन्तरता तो असंभव है। तब इतनी बात अवश्य है कि वर्ष के चाहे जिस ऋतु में इसका शुभागमन हो हर ऋतु में यह अपनी मनोज्ञता और मनोहरता को बरकरार रखती है। यह बात और है कि वसंत ऋतु में जहाँ इसकी उपस्थिति पूरे परिवेश को मदनोन्मत्त कर देती है वहाँ ग्रीष्म के दारूण दाघ निदाघ से निवारण कराती हुई शीलता और सौम्यता प्रदान करती है। फिर पावस में अपनी सुरम्यता और मुग्धता से चिताकर्षकता प्रदान करती हुई शिशिर के सिहरन को सुस्थिर शोभा अर्पित करती है।

पुनश्च यह चाँदनी रात चोर, लम्पट और दस्युओं को फूटी आँखों भी नहीं सुहाती है जैसाकि तुलसीदासजी ने “चोरहि चाँदनी रात न भावा” कहते हुए इसको चरितार्थ भी किया है। हालांकि आजकल खूखार दस्यु और डकैत तो दिन के उजाले में ही हर तरह के आपराधिक कृत्यों को अंजाम दे रहे हैं, फिर भी इस तथ्य में तो सच्चाई है ही कि प्रायः रात्रि के अंधेरे में ही दुष्कर्मी गलत काम किया करते हैं। कारण दिन के उजाले में आपराधिक कृत्यों को करने में उनकी आत्मा स्वयं दुर्बलता प्राप्त करती हुई सशंकित रहती है कि कहीं अत्यधिक लोगों का समूह एकत्रित होकर हमला न बोल दे या फिर पुलिस बल के द्वारा आघातित न हो जायें। इसलिए ऐसे लोग सचमुच राका-रजनी से अधिक अंधेरी रात में ही अपने दुष्कार्यों को सम्पादित करने हेतु सचेष्ट रहते हैं।
तथापि ज्योत्सना की सुशीलता, सुरम्यता और मनोहरता निर्विवादतः लोगों के लिए चित्ताकर्षक है।

3. जाड़े की रात

वर्षा ऋतु के उपरान्त जाड़ा का शुभागमन होता है। हिन्दी महीनों के अनुसार कार्तिक, अगहन, पूस और माघ जाड़े की ऋतु का महीना है। यों तो प्राकृतिक दृष्टि से हर ऋतु का अपना विशिष्ट महत्त्व होता है। वर्षा में धान की फसलें जमीन में जड़ें जमाती हैं परन्तु उसमें चावल के पुष्ट दाने तब तक नहीं पड़ सकते जब तक सघन जाड़े में चूने वाले शीत का पान वे नहीं करते। फिर दलहन, तेलहन और गेहूँ की उपज के लिए भी जाड़े का विशेष महत्त्व है। इस तरह से प्राणियों के पोषण. एवं उदर पालन के लिए वर्षा ऋतु का होना जितना महत्त्वपूर्ण है जाड़े का रहना उससे कतई कम नहीं।

फिर भी न जाने क्यों जाड़े को लोग कष्टकर मानते हैं और जाड़े की रात के विषय में तो कहना ही क्या ? संध्या हुई नहीं कि हाट, बाजार और गली सन्नाटे के आलम में डूब जाते हैं। सर्वत्र श्मशान-सी सन्नाटा और सूनापन व्याप्त रहता है। असह्य ठंड और जाड़े के चलते लोग घरों में दुबके पड़े, रजाई में छिपे या पुआल के बीच घुसे रहते हैं। प्रायः ऐसा लोग कहा करते हैं कि जाड़ा-अमीरों के लिए है और गर्मी गरीबों के लिए है। वास्तव में जाड़ा आते ही अमीर लोग शाल, दुशाले और ऊनी के गर्म कपड़े से शरीर को ढक सैर-सपाटे और चहल कदमी किया करते हैं परन्तु गरीबों के लिए, जिनको तन ढकने के लिए सूती वस्त्र भी नहीं जुट पाते, वे तो सूखी लकड़ियों और उपले बटोर कर आग जलाते हुए चारों ओर उसको घेरे रहकर ही शरीर में गर्मी लाते हैं।

जाड़े की रातों में इन गरीबों के लिए सैर-सपाटे और चहलकदमी करने की बात ही नामुमकिन है। वे तो अपने जीर्ण-शीर्ण छोटे अंगोछे और चादर के भीतर घुटनों को सीने से सटाये ऐसा गोलमटोल गठरी बने दुबके रहते हैं कि जाड़े को भी पाला मार जाता है। परन्तु अमीरों का क्या कहना? वे तो हॉफ-फूल स्वेटरों के ऊपर कोट ताने ऊपर से शाल से ढके सर्वत्र घूमते-फिरते हैं। उनके लिए जलते उपलों में हाथ सेंकना मर्यादा के विपरीत बात है। उनके लिए तो घर बाहर गर्म कपड़ों का तह-पर-तह और घर के भीतर रजाई-लिहाफ और कीमती कम्बलों का ढे। इससे भी ज्यादा जाड़ा अनुभव हुआ तो फिर हीटर का तप्त ताप उनको उतप्त करने के लिए है ही।

अतएव मानना होगा अमीरों के लिए जाड़े की रात सन्ताप कारक नहीं। अपितु सुखकर होता है। अमीर-उमराँव, सेठ-साहुकार, जाड़े की रातों में शराब-कवाब और दूध-मलाई से युक्त-पुष्टकर भोजन कर सुख की नींद लिहाफ तानकर सोया करते हैं और उनके घर के घेरे के . भीतर ही उनके सेवक, नौकर उन्हीं के परित्यक्त फटे-पुराने रजाई में लिपटे, गठरी के ढेर बने पड़े रहते हैं। फिर उनके घर के घेरे के बाहर के गरीबों में बहुतों को खाली पेट ही पड़े रहने की नौबत है। कुछ का यदि पेट भरा है तो ढकने को वस्त्र नहीं है, कहीं कुछ लोग पुआल के ढेर में ढके पड़े हैं तो दो-चार जनें एक दूसरे से चिपके जुड़े हैं। जाड़े में रूईए या दुईए की कहानी जो चरितार्थ है। गर्मी में एक-दूसरे के शरीर का स्पर्श बर्दास्त नहीं होता परन्तु जाड़े में एक-दूसरे के साथ सटकर सोने से काफी राहत और आनन्द की उपलब्धि होती है। इसी से जाड़े में प्रायः तंग छोटी कोठरी के भीतर बहुत सारे लोग पुआल बिछाकर फटे-पुराने कपड़े ओढ़कर समय काट लेते हैं।

शहरों में तो नहीं परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में जाड़े की रात के प्रारंभ होते ही घर के बैठका या दालान के आगे लोग लकड़ी जलाकर आग तापते हुए गाँव घर की चर्चाओं में मस्त रहते हैं। फिर सुबह होते ही घर से बाहर खुली धूप का सेवन करने को निकल जाते हैं। घर के छत पर खुली धूप का सेवन प्रायः शहरों में भी लोग किया करते हैं, फिर भी जाड़े में मानव-मानव के बीच भेद भावना स्पष्ट दिखाई पड़ती है। वेश-भूषा से उनकी अमीरी-गरीबी छिपाये नहीं छिपती। इस लिहाजे जाड़े की रात या जाड़े की ऋतु समता-बोधक नहीं है। इस ऋतु में भेद-भावना और असमानता का नंगा नृत्य सर्वत्र . देखने को मिलता है परन्तु गर्मी में नहीं के बराबर। खासकर घर के बाहर तो एकदम नहीं। घर के भीतर जहाँ बिजली व्यवस्था है, वहीं भले इसका बोध होता है, अन्यथा ग्रामीण क्षेत्रों में तो कतई नहीं। छोटे-बड़े सभी लोग गर्मी की लू-लपट से परेशान रात्रि में खुले आकाश के नीचे नंग-धडंग पड़े रहते हैं, बल्कि तोसक-गद्दा और कष्टकर प्रतीत होता है। बिना बिछावन के खाली चौकी पर सोना गर्मी में ज्यादा सुखकर होता है।

अतएव देश से जब तक गरीबी का सर्वथा लोप नहीं हो जाता तब तक जाड़े की रात हम भारतीयों के लिए असमानता-सूचक और पीड़ादायक बनी रहेगी। यह निर्विवाद है।

4. देशरत डॉ० राजेन्द्र

प्रसाद राजेन्द्र प्रसाद का जन्म सन् 1884 ई० में 3 दिसम्बर को सारण जिला के जीरादेह ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम मुन्शी महादेव सहाय था। ये 1893 ई० में छपरा जिला स्कूल में भर्ती हुए। ये बहुत मेधावी छात्र थे। इनकी तीक्ष्ण बुद्धि से प्रसन्न होकर उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने उनको डबल प्रोमोशन दिया था। 1902 ई० में कोलकाता विश्वविद्यालय की इण्ट्रेस परीक्षा में सर्वप्रथम हुए तथा कोलकाता विश्वविद्यालय से आई० ए०, बी० ए० और एम० ए० की परीक्षाओं में इनको सर्वोच्च स्थान मिलता गया। इनका विवाह राजवंशी देवी के साथ उसी समय हो गया था जब ये छपरा में पढ़ते थे।

ये 1901 ई० में बी० एल० परीक्षा पास कर कोलकाता हाईकोर्ट में ही वकालत करने लगे। 1916 ई० में पटना हाईकोर्ट की स्थापना हुई, तब यहाँ आकर वकालत करने लगे। थोड़े दिनों में ही इनकी गणना देश के प्रमुख वकीलों में होने लगी। राजेन्द्र प्रसाद छात्रावस्था. से ही देश की घटनाओं के साथ दिलचस्पी रखने लगे थे। इन्होंने कॉलेज जीवन में ही ‘बिहार छात्र काँग्रेस’ की स्थापना की थी।

जब महात्मा गांधी ने 1920 ई० में असहयोग-आन्दोलन का शंख फूंका तब इन्होंने वकालत को ठुकराकर महात्मा गाँधी का साथ दिया। राजेन्द्र प्रसाद 1921 ई० में चम्पारण के ‘नील-खेतिहर-आन्दोलन’ के समय महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये। ये बहुत बार जेल गये। महात्मा गाँधी ने इनकी देशभक्ति के साथ-साथ जन-सेवा से प्रसन्न होकर इनको देशरत्न की उपाधि प्रदान की। ये 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के परामर्शदाता थे। इन्होंने स्वतन्त्र भारत के सर्वप्रथम राष्ट्रपति पद को 1950 ई० में विभूषित किया। ये इस पद को 1962 ई० तक सुशोभित करते रहे।

देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एक उच्चकोटि के विद्वान तथा लेखक भी थे। ये अपनी सादगी, क्षमाशीलता, देशभक्ति, जनसेवा और उदारता के कारण ‘बिहार के गांधी’ के नाम से विश्रुत हुए। इनका देहावसान 1963 ई० में 28 फरवरी को हुआ।

5. समाचारपत्र

समाचारपत्र Newspaper या अखबार का पर्यायवाची शब्द माना जाता है। सचमुच हमारी दुनिया हमारा परिवार है और जिस प्रकार हम अपने दूरस्थ परिवार के समाचार के लिए लालायित रहते हैं उसी प्रकार हम संसार का समाचार जानना चाहते हैं।

समाचारपत्र के कई प्रकारान्तर हैं-दैनिक समाचारपत्र, साप्ताहिक समाचारपत्र, मासिक समाचार पत्र। ये विभिन्न प्रकार के यथानाम तथा गुणवाले हैं। दैनिक समाचारपत्र उसे कहते हैं जिसका प्रकाशन प्रतिदिन होता है। दैनिक समाचारपत्र सारी दुनिया की एक दिन की खबरें देता है। अगर आप दैनिक समाचारपत्र किसी कारण से न देख सकें तो साप्ताहिक समाचारपत्र द्वारा आपको प्रमुख घटनाओं की जानकारी मिल जायगी और पैसा भी कम लगेगा। मासिक पत्र-पत्रिका एक मास की सूचनाएं देती है।

बिहार की राजधानी पटना से हिन्दुस्तान, आज, दैनिक जागरण आदि अच्छे-अच्छे दैनिक समाचारपत्र प्रकाशित होते हैं।
आजकल समाचारपत्र राजनीतिक कार्यक्रमों से लेकर बलकारक लड्डू और विवाहकर्ता के प्रचार का एकमात्र सस्ता साधन है। स्कूल-कॉलेज की, धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं की भी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। सभी अपने-अपने हितों की प्राप्ति हेतु सक्रिय रहते हैं। स्वार्थ-साधन के लिए भी जनता को पथभ्रष्ट करने का कार्य समाचारपत्र द्वारा भलीभांति किया जाता है।

अतएव पाठकों को समाचारपत्र पढ़ते समय अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिए, अन्यथा लेने के देने पड़ते हैं।
समाचारपत्र हमारे जीवन में जागृति पैदा करता है। इसमें राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और अन्य तरह की चीजें पढ़ते हैं। खेल-जगत का तो एक अलग पृष्ठ ही होता है।

6. गंगा नदी

गंगा नदी भारत की बड़ी नदी है। यह उत्तर भारत में एक बहुत बड़े भू-भाग से होकर बहती है। यह नदी हिमालय पहाड़ से निकली है और ‘बंगाल की खाड़ी’ (समुद्र) में गिरती है। यह भारत की एक भौगोलिक नदी मात्र नहीं हैं, बल्कि इसके साथ भारत का तमाम इतिहास, धर्म, समाज, संस्कृति जुड़ी हुई है। इसी नदी के किनारे जाने कितने साम्राज्य बने और बिगड़े। इस नदी ने भारत के सम्पूर्ण इतिहास को देखा है। इसने महाराज भगीरथ, दशरथ और राम को देखा है-राम जिन्हें भारत की तमाम हिन्दू जनता भगवान का अवतार मानती है। गंगा का वर्णन हमारे तमाम पौराणिक, ऐतिहासिक, धार्मिक ग्रंथों में हुआ है।

गंगा कवि-कलाकारों के लिये भी प्रेरणा की विषयवस्तु रही है। आदि-महाकवि वाल्मीकि से लेकर विद्यापति, तुलसीदास, षद्माकर, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर ‘प्रसाद’, सुमित्रानंदन पंत आदि-आदि न जाने कितने कवियों ने गंगा पर अपनी काव्य-रचना की है। इसी भाँति कलाकारों ने न जाने कितने चित्र बनाये हैं। गंगा काव्य-कलापों के लिये एक मुख्य विषय-वस्तु रही है और आगे भी रहेगी।

इतना ही नहीं, यह एक धार्मिक नदी भी है। तमाम हिन्दू धर्मावलंबी इसे बहुत पवित्र दृष्टि से देखते हैं। गंगा में उनकी अटूट धार्मिक आस्था है, श्रद्धा है। कितने ही पर्व-त्योहारों के अवसर पर गंगा स्नान करना अनिवार्य समझा जाता है। वैसे भी, गंगा-स्नान को पुण्य का काम माना जाता है। भारत की किसी भी नदी को इतना धार्मिक महत्त्व प्राप्त नहीं है। हिन्दुओं के यहाँ कई सामाजिक, धार्मिक उत्सवों के अवसर पर ‘गंगा-पूजा’ की प्रथा है। औरतें गंगा-पूजन के लिये गीत गाती हुई सोल्लास गंगा-तट पर जाती हैं। बिहार का बहुत बड़ा पर्व ‘छंठ’ गंगा-तट पर अत्यंत धार्मिक महत्त्व का समझा जाता है। इतना ही नहीं, गंगा स्वर्गदायिनी समझी जाती है। इसलिये हिन्दू-लोग मरणासन्न व्यक्ति के मुंह में गंगाजल डालते हैं। कितने ही पूजा-त्योहारों के अवसर पर पूजन के समय गंगाजल का व्यवहार किया जाता है जिसे अत्यंत उत्तम माना जाता है। गंगा के.. किनारे हिन्दुओं के कई तीर्थस्थल हैं, जैसे हरिद्वार, अयोध्या, काशी इत्यादि।

गंगा पहले एक बहुत बड़ी व्यापारिक नदी भी थी। गंगा नदी के ही सहारे लोग एक जगह से दूसरी जगह व्यापार को आते-जाते थे। अब रेल, सड़क, ट्रक, विमान आदि अन्यान्य साधनों और कारणों से गंगा का व्यापारिक महत्त्व कुछ कम गया है मगर फिर भी छोटे-छोटे व्यापारों में गंगा नदी की उपयोगिता बनी हुई है। लोग नावों, स्टीमरों आदि से अपने माल का व्यापार करते हैं।

गंगा हमारे राज्य के भी एक बहुत बड़े भू-भाग से बहती है और इसके किनारे हमारे राज्य के कई महत्त्वपूर्ण शहर है, जैसे-पटना, बाढ़ भागलपुर वगैरह। राजधानी पटना से बहने वाली गंगा ने भारत के इतिहास की कई महत्त्वपूर्ण घटनाएं अपनी आँखों देखीं हैं-नंद वंश का विनाश, चाणक्य के निर्देशों पर चलकर चंद्रगुप्त मौर्य की साम्राज्य-स्थापना, गुप्त राजवंश का उदय और आधुनिक काल में आजादी के आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदाना डॉ. दीनानाथ ‘शरण’ ने गंगा की महिमा के संबंध में ठीक ही लिखा है-“गंगा नदी ही नहीं, इतिहास है, संस्कृति है, भारत का पर्व-त्योहार, रस्म-रिवाज, धर्म, सब-कुछ है।”

7. ग्रीष्म ऋतु

ऋतुओं का रंगमंच है हमारा देश भारत ! कभी वसंत, कभी हेमंत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद्-कितनी ऋतुएँ आकर अपना-अपना प्रभाव दिखाती हैं। परन्तु, प्रधानता की दृष्टि से प्रधान है ग्रीष्म। जैसे इंगलैंड में नौ-दस महीने जाड़ा ही रहता है, उसी तरह हमारे यहाँ साल में आठ-नौ महीने गर्मी का मौसम रहता है। वर्षा ऋतु में ऊमस कम नहीं रहती। एक लेखक के अनुसार “हम भारतवासियों में आज भी ऊष्मा है, जवानी की गर्मी है। पौरुष की दाहकता है तथा अनाचारों को जला देनेवाली अग्नि-शिखा है, इसलिए ईश्वर ने हमारे देश को ग्रीष्म प्रधान बनाया है।”

ग्रीष्म ऋतु न हो, धरती न तपे तो फिर कहाँ रानी (वर्षा रानी) और कहाँ राजा (वसंत ऋतुराज)? अतः अब समय आ गया है कि हम दूसरे के श्रम पर पलने वाले एवं मान-सम्मान कमाने वालों का पर्दाफाश करें। उन्हें उनका वास्तविक मूल्य बता दें एवं श्रमिकों को समुचित प्रतिष्ठा दें। वसंत के मीत हम बहुत गा चुके, अब ग्रीष्म के गौरव का गान करना है।

ग्रीष्म मानव-जीवन के लिए एक तथ्य का संकेत है। जीवन में सदैव उल्लास का वसंत नहीं रहता, सदैव सुख के फूल ही नहीं खिले रहते, सदा आशा की किरणें ही नाचती नहीं रहतीं। जीवन उत्थान-पतन से होकर चलनेवाली गति है। यहाँ हेमंत का शीत भी है, ग्रीष्म का ताप भी, शिशिर का मादक स्पर्श भी है, पतझड़ के शुष्क पत्ते भी। उतार-चढ़ाव की टेढ़ी मेढ़ी रेखाओं से ही जीवन की गति बनती है। आशा के शृंग और निराशा की तलहटी दोनों जीवन के सत्य हैं और मानव को चाहिए कि वह दोनों से सम्बन्ध बनाये रखे। ग्रीष्म हमारे सामने यही बात प्रस्तुत करता है।

ग्रीष्म के ताप से कौन परेशान नहीं होता? लू से आदमी मरने लगते हैं, वृक्ष-लताएँ झुलसने लगती हैं, नदियों-तालाबों में पानी सूख जाता है। छाँह भी छाँह खोजने लगती है। पशु-पक्षी गर्मी से परेशान होकर भटकने लगते हैं। गर्मी के दिन महादेव के समान प्रलयंकर प्रतीत होते हैं। जी चाहता है लेटे रहने का-कहीं शयनागार में-स्नानागार में!

मगर गर्मी गर्मी है-देह-बदन को तोड़कर रख देती है। आदमी को काम करने का जी नहीं चाहता। परन्तु, गरीबों को आराम कहाँ? वसन्त विलासियों के लिए है, जाड़ा अमीरों के लिए, मगर गर्मी गरीबों के लिए है। कहाँ है सुख-साधन, कहाँ है सुविधाएँ कि गरीब विलास करें-वसन्त मनाएँ, जाड़े में मौज करें ? हम गरीबों को खटना है, चाहे कितनी भी गर्मी क्यों न हो, चाहे फैक्ट्री के मजदूर हों या खेतों के मजदूर हों अथवा कलम के ही मजदूर क्यों न हों-गर्मी की दोपहरी में भी उन्हें खटना ही पड़ता है।

कौन कहता है कि ग्रीष्म ऋतु बुरी है ? यह लाती है कितने मीठे-मीठे फल-लीची, जामुन, ककरी, खीरा, तरबूजा और फलों का राजा आम। हमारा राज्य तो इनमें बहुत अच्छा है-यहाँ के आम और लीची को विदेशी होंठ भी सराहते हैं। बड़े मौज के दिन होते हैं-ये गर्मी के ! अमराइयों में कोयल कूकती है और मन की अमराइयों में प्रेमिका ! यही मौसम है जब बिहार में शादियों के सिलसिले होते हैं-ब्याहों के बाजे बजते हैं तो कैसे न सराहें हम इस ग्रीष्म ऋतु को।

8. महात्मा गाँधी

महात्मा गाँधी को भला कौन नहीं जानता? ये विश्व के महान पुरुषों में गिने जाते हैं। हमारे देश में उनका नाम अवतारी पुरुषों में आता है। राम, कृष्ण और बुद्ध की तरह लोग उनकी पूजा करते हैं। इस देश के लिए इन्होंने जो कुछ किया, वह इतिहास के पन्ने पर सोने के अक्षरों में लिखा है। उनका त्याग-बलिदान और सत्य-अहिंसा के प्रति अटूट विश्वास, उनके गौरव का परिचायक है। इस देश का एक-एक बच्चा उन्हें राष्ट्रपिता बापू के रूप में जानता है।

महात्मा गाँधी का जन्म गुजरात के पोरबन्दर में 2 अक्टूबर, 1869 ई० को हुआ था। इनके पिता का नाम करमचन्द गाँधी था। वे राजकोट रियासत के दीवान थे। इनकी माता बहुत ही नेकदिल तथा धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। बालक गाँधी पर इनके स्वभाव का पूरा असर पड़ा। गांधीजी के बचपन का नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। आगे चलकर लोग इन्हें केवल ‘गांधी’ कहकर पुकारने तथा जानने लगे। गाँधीजी बचपन से ही शान्त और गम्भीर स्वभाव के थे।

गांधी की प्रारम्भिक शिक्षा गांव के ही एक स्कूल में शुरू हुई। वहाँ की शिक्षा समाप्त कर ये क्रमशः मिडिल तथा हाई स्कूल में पढ़ते रहे। वे बचपन में झेंपू स्वभाव के थे और पढ़ने-लिखने में तेज नहीं, थे। उन्होंने 1887 ई० में इण्ट्रेस की परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिए इंगलैंड गये। वहाँ से उन्होंने 1891 ई० में बैरिस्टरी पास की और वकालत शुरू की, लेकिन इनकी वकालत चली नहीं।

इसी क्रम में एक मुकदमे के सिलसिले में ये दक्षिण अफ्रीका गये। वहाँ बसे भारतवासियों को उन्होंमें बड़ी दुर्दशा तथा दुर्गति में देखा। वहां की गोरी सरकार उनपर काफी जुल्म ढा रही थी।”

गाँधीजी उनकी स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयत्न करने लगे। यहीं से उनका राजनीतिक जीवन और संघर्ष शुरू हुआ। उन्होंने उन लोगों के लिए ‘सत्याग्रह’ शुरू किया और उन्हें इस कार्य में काफी सहायता मिली।

1914 ई० में गांधीजी भारत लौटे। गुलाम भारत की दयनीय अवस्था, गरीबी, दुर्दशा तथा दुर्भाग्य देखकर उनके मन में कुछ करने की प्रेरणा जगी। उन्होंने देश में घूम-घूम कर उनकी स्थिति और दशा की जानकारी ली। उसी क्रम में बिहार भी आये। चम्पारण क्षेत्र में नील की खेती करनेवाले किसानों पर अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार का खुला विरोध करना उन्होंने शुरू कर दिया। वे किसानों के नेता बनकर लोगों को जगाने लगे। अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ सत्याग्रह शुरू किया जिसमें उन्हें सफलता मिलती चली गयी। धीरे-धीरे गाँधीजी का. कार्य-क्षेत्र बढ़ता गया और उनकी ख्याति भी बढ़ने लगी। देश के कोने-कोने में उन्होंने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध असहयोग तथा सत्याग्रह का शान्तिपूर्ण आन्दोलन चलाना प्रारम्भ कर दिया। उनके साथ देश के बड़े-बड़े नेता थे। उन्हें व्यापक जन समर्थन मिलता चला गया। स्वतंत्रता आन्दोलन के वे जनप्रिय नेता बन गये।

1942 ई० की अगस्त क्रान्ति काफी जोरदार रही। देश के बड़े-बड़े नेताओं के साथ गाँधीजी को भी जेल में बन्द कर दिया गया। उस क्रांति का प्रभाव पड़ा। 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत आजाद हुआ, परन्तु हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बँटवारे से गाँधीजी काफी दुःखी हुए।

30 जनवरी, 1948 की शाम को दिल्ली की प्रार्थना सभा में नाथूराम गोड्से नामक एक व्यक्ति ने पिस्तौल की गोली से उन्हें मार डाला। सत्य और अहिंसा का वह पुजारी मरकर भी अमर है। उनकी पावन स्मृति हमें सदा-सर्वदा देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देती रहेगी।

9. ईद

ईद सम्पूर्ण संसार के इस्लाम धर्म कबूल करने वालों का पाक त्योहार है। उस दिन लोग आपसी मिल्लत का परिचय देते हुए एक-दूसरे से गले मिलते हैं। आपस में सेवइयाँ बाँटते हैं। खुशियों का अम्बार लुटाते हुए आता है यह त्योहार। यह त्योहार रमजान के बाद आता है। रमजान के बाद ही यह सेवइयों का स्वाद लेकर उपस्थित हो जाता है। रमजान में लोग रोजा रखते हैं। रोजा खोलते समय आपस में मिलकर खाना खाते हैं।

रमजान के अगले महीने को शब्बाल कहा जाता है और इसी शब्बाल की पहली तारीख को ईद मनायी जाती है। ईद में लोग नये-नये कपड़े पहनते हैं। उस दिन दोपहर के पहले सामूहिक नमाज अदा की जाती है। गांव-शहर सभी जगहों पर मस्जिद अथवा खुले ईदगाहों में लोग एक जगह जमा होते हैं। सभी का लिबास सादा होता है। उनके सिर पर सादी टोपी होती है। सभी लोग एक साथ नमाज अदा करते हैं। बच्चे, बूढ़े, जवान, अमीर-गरीब सब एक साथ नमाज अदा कर आपस में लोग गले मिलते हैं। लाखों सिर एक साथ झुकते और उठते हैं। नमाज के बाद इमाम खुतबा पढ़ता है। इस खुतबे में दान की महिमा बतायी जाती है।

सच कहा जाय तो.यह त्योहार आपसी मिल्लत का त्योहार है। ईदगाह अथवा मस्जिद में जिस समय लोग नमाज अदा करते हैं उस समय आपसी भाईचारे का माहौल उपस्थित हो जाता है। लोग इस तरह साथ-साथ बैठते हैं मानों वहाँ जाति, धन, पद आदि का भेद-भाव समाप्त हो गया हो। उस समय गरीब-अमीर, पदवाले या साधारण गबई-सबके सब एक साथ मिलकर नमाज अदा तो करते ही हैं साथ-ही-साथ गले मिलते हैं। सच कहा जाय तो यह ईद मिल्लत का पाठ पढ़ाती है। अगर हम ईद की उस झलक को अपने में उतार लें तो सारा भेद-भाव समाप्त हो जाय।

ईद के दिन लोग एक-दूसरे के घर जाकर सेवइयाँ खाते हैं, गले मिलते हैं और ईद-मुबारक का संदेश देते हैं। यह त्योहार इतना पाक है कि लोग आपसी भेद-भाव भूलकर एक दूसरे के यहाँ जाते हैं, उनके साथ जलपान करते हैं और कुशल समाचार पूछते हैं। यह मेल-मिलाप और इन्सानी मुहब्बत का रूहानी त्योहार है।

इस तरह ईद मुसलमानों का पाक त्योहार है जिसमें इन्सान अपना मिल्लत और मुहब्बत के साथ एक-दूसरे से मिलते-जुलते तथा मुबारकवाद बाँटते दिखाई पड़ते हैं। मेल-मुहब्बत का यह रूहानी त्योहार है।

10. मुहर्रम

अगर ईद आनन्द और खुशी का त्योहार है तो मुहर्रम मातम का। मातमी घटनाओं की याद रखना भी इन्सान का काम है। मुहर्रम जैसे मातमी त्योहार के पीछे एक सूरमा खलीफा की शहादत की कहानी है। हम उस सूरमा को याद करते हैं, उनके नाम पर मातम मनाते हैं।

मुहर्रम के पीछे एक घटना है जिसमें हजरत हुसैन की शदाहत बोलती है। हजरत हुसैन हजरत मुहम्मद के नाती थे। वे मुसलमानों के चौथे खलीफा हजरत अली के बेटे थे। उसी समय एक अत्याचारी शासक यजीद ने हजरत अली को खलीफा मानने से इनकार कर दिया और स्वयं को खलीफा घोषित किया। कूफा में यजीद के सिपहसालार उम्र-बिन-साद का शासन था। उसने एक बार यह पैगाम भेजा कि यदि आप हमारे यहाँ पधारें तो हम आपको खलीफा मान लेंगे। बुनियादी तौर पर आला इन्सान हजरत हुसैन अपने चालीस साथियों के साथ वहाँ चल पड़े। उनके साथ स्त्रियाँ और मासूम बच्चे भी थे। लेकिन मजीद के सिपहसालार ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। तब वे वहीं कर्बला के मैदान में अपना खेमा डाल दिये। जिन लोगों ने कूफा बुलाया था वे लोग भी गद्दार निकले, उनका साथ नहीं दिया। हजरत हुसैन घिर गए।

यजीद ने सब ओर से हजरत हुसैन को लाचार कर दिया। रेगिस्तानी इलाके में उन्हें तरह-तरह की तकलीफें दी जाने लगी। जहाँ वे ठहरे थे बगल में नहर का पानी उपलब्ध था। लेकिन किसी को भी पानी पीने की इजाजत नहीं थी। बच्चे, स्त्रियाँ पानी के कतरा तक के लिए तरसने लगे और प्यास के मारे वे अपना दम भी तोड़ने लगे। हजरत हुसैन साहब ने लड़ाइयों लड़ीं। लेकिन अन्ततोगत्वा उन्हें अपनी शहादत देनी पड़ी। शहीद होने के बाद यजीद ने उनके सिर को नेजा (भाला) पर टांग दिया। मुहर्रम इसी शहादत की याद में मनाया जाता है।

मुहर्रम वह त्योहार है जिसे इस्लामी इतिहास में सबसे अधिक दुःखदायी घटना की याद में मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग वीर-बाना धारण कर युद्ध की याद करते हैं। सिपर (ढाल), . दुलदुल (घोड़ा), परचम (पताका) के साथ ताजिए की जुलूस निकाली जाती है। ये सभी आपस में लाठी, भाला, तलवार, गदका का खेल रचाते हुसैन-हुसैन’ करते डंका बजाते आगे बढ़ते हैं। इसका काफिला कर्बला तक जाता है। कर्बला वह जगह होता है जहाँ ताजिए का अंतिम मुकाम माना जाता है। कर्बला के मैदान में ही हजरत हुसैन साहब की शहादत हुई थी। अतः लोग अपने इलाके में एक कर्बला का मैदान कायम कर लेते हैं।

मुहर्रम इन्सान को यह याद दिलाता है कि वह हमेशा अन्यायियों के साथ लड़ता रहे। अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़कर अपनी शहादत देना ही इन्सान की पहचान है।

11. दुर्गापूजा / विजयादशमी / दशहरा

दुर्गापूजा एक महान धार्मिक-सांस्कृतिक भावों से जुड़ा त्योहार है। इस पूजा को शक्ति की . पूजा कहा जाय तो यही सार्थक नाम होगा। वैसे यह विजयादशमी अथवा दशहरा के नाम से जाना जाता है। इसमें महाशक्ति दुर्गा की आराधना की जाती है; अन्य त्योहारों की तरह इसका भी सम्बन्ध महान घटना से जुड़ा है। पौराणिक कथाओं में इसकी चर्चा विस्तार से की गई है।

कहा जाता है कि महिषासुर के आंतक से त्रस्त देवताओं ने शक्ति की देवी दुर्गा की आराधना की। तब दुर्गा ने उस दानव का संहार कर शांति की स्थापना की। इसी घटना की याद में लोग दुर्गापूजा का त्योहार मनाते हैं।

दुर्गापूजा के सम्बन्ध में दूसरी कथा यह कही जाती है कि भगवान राम ने दुर्गा की आराधना कर उनकी सहायता से आश्विन शुक्लपक्ष दशमी को रावण का संहार किया। इसीलिए इस त्योहार का नाम दशहरा पड़ा।

कथायें चाहे जो हों, लेकिन इतना मानना चाहिए कि दुर्गापूजा का त्योहार शक्ति की आराधना का त्योहार है। इसे मनाने के पीछे अजस्त्र शक्ति प्राप्त करने का उद्देश्य होता है। दुर्गापूजा का पाक त्योहार दस दिनों तक मनाया जाता है अर्थात् दुर्गा की आराधना दस दिनों तक होती है। आश्विन की पहली तिथि को कलश स्थापित किया जाता है। इसी दिन से दुर्गा-पाठ शुरू होता है। सप्तमी को दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है और नवमी तक धूमधाम से पूजा होती है। दशमी के दिन समारोह के साथ दुर्गा-देवी की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।

दुर्गा देवी की प्रतिमा के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं और महिषासुर की भी प्रतिमायें होती हैं। उन प्रतिमाओं को देखने से युद्ध का संकेत मिलता है। सभी प्रतिमायें युद्धरत दिखाई पड़ती हैं।

दुर्गापूजा के अवसर पर भिन्न-भिन्न जगहों पर सांस्कृतिक समारोह का आयोजन किया जाता है। इन समारोहों में लोग आनन्द और उत्साह के साथ भाग लेते हैं। खासकर विसर्जन के दिन तो शोभा यात्रा निकलती है। इसमें लोग बड़े उत्साह एवं भक्ति-भाव से भाग लेते हैं। प्रतिमा विसर्जन के स्थान पर मेला का आयोजन होता है। विजयादशमी के दिन लोग मिष्टान्न भोजन बनाते हैं और एक-दूसरे के साथ मिल-बैठकर खाते हैं।

वास्तव में दुर्गापूजा वीर भावना का त्योहार है। इस त्योहार से हमारे भीतर दानव पर विजय पाने का उत्साह भरता है। हमें चाहिए कि इस त्योहार में मिल-जुलकर आपसी सम्बन्ध बढ़ायें। इससे आपसी एकता और मिल्लत का भाव जागेगा। शक्ति की देवी दुर्गा की आराधना तो आदमी के भीतर ओज और उत्साह भरती है।

12. समाज सेवा

व्यक्तिगत लाभों को त्याग कर, आसक्ति-रहित होकर जो जन-सेवा की जाती है, उसे समाज-सेवा कहते हैं। समाज में रहने वाले प्राणियों की सुख-सुविधा और उन्नति के लिए किया गया प्रयास ही समाज-सेवा है। समाज सेवा मानव के लिए दिव्य वरदान है। यह मानवता की सही पहचान है। मनुष्य की सम्पूर्ण विकास-कथा, समाज की सुनहली पट-भूमि पर ही विनिर्मित हुई है।

मनुष्य समाज की इकाई मात्र है। पर वह समाज का अभिन्न-अविच्छिन्न अंग है। समाज से अलग उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। वह समाज में जन्म ग्रहण करता है। समाज के अन्तर्गत ही उसका लालन-पालन होता है। समाज के प्रांगण में ही वह चलना-फिरना, खेलना-कूदना, उछलना-बोलना और पढ़ना-लिखना सीखता है। समाज में रहने के कारण ही मानव को विधाता की सारी सर्जनाओं का मुकुटमणि माना जाता है। अतः जिस समाज ने मानव को मानव कहलाने का औचित्य प्रदान किया, उस समाज के प्रति भी व्यक्ति का कुछ कर्त्तव्य होता है और उसका दायित्व गुरुतर होता है। उसे समाज की सेवा में सतत् सचेष्ट, संलग्न और सजग रहना है।

वस्तुत: वही मानव आज सच्चा मानव कहलाने का अधिकारी है जिसके प्राणों में समाज-सेवा का दिव्य संगीत अहर्निश गूंजता रहता है, जिसकी नस-नस में मंगलवाद्य बजते रहते हैं। धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान और भौतिक सुख की लालसा से समाज सेवा करना कतई उचित नहीं है। समाज-सेवा में वृत्ति जितनी निरहंकार रहेगी उतनी ही सेवा की कीमत बढ़ेगी। अत: वैयक्तिक सुख-दुख और लाभ को ध्यान से हटाकर की गयी सेवा ही श्रेयस्कर है।

समाज-सेवा एक महान व्रत है। सेवा-व्रतधारी अपने को परमार्थ की बलिवेदी पर न्योछावर कर देता है। यदि हमारे मन-प्राणों से यह अनुगूंज हर क्षण निकलती रहे तो क्या कहना !
“जब लगे तब हाथ परहित में लगे
है जनमता जीव जगहित के लिए।”
आधुनिक युग में मानव-समूह के लिए समाज-सेवा एक महान वरदान सिद्ध हुआ है। यह सुख-शान्ति से जीवन-यापन करने का प्रशस्त और पुण्य-पथ है। यह सामाजिक समस्याओं का सबसे सुलभ समाधान है। इसके लिए हर किसी को अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करना है। परस्पर सहयोग की भावना को प्रशस्त कर आपसी वैर-भाव को भूल कर, प्रेम-पूर्वक रहना और दूसरे को रहने का सुअवसर प्रदान करना है।

आज हमारे देश में अनेकानेक समस्याएं पनप रही हैं। देश में भयंकर गरीबी और भुखमरी छायी हुई है। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर चढ़ गया है। महँगी विकराल व्याल की तरह मुँह बाये खड़ी हमें निगल जाने को तत्पर है। नित्य-निरन्तर हत्याएं हो रही हैं। आगजनी और लूट-पाट की घटनाएँ नित-निरन्तर बढ़ रही हैं। दहेज-प्रथा और जाति-प्रथा हमारे समाज का कोढ़ बन चुकी है। आज हमें इन समस्याओं का निदान खोजना है। इनका सही समाधान निकालना है। यह तभी हो सकता है जब मानव एक-दूसरे को सही मानव समझे। अपने कर्तव्य और दायित्व का भली भाँति पहचान करे।

एक सच्चा समाज-सेवी इंसान अहर्निश अपने समाज के दुःख-दैन्य, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, घुसखोरी आदि को दूर करने का भरसक प्रयास करता है। वह सदा इस धरती पर ही स्वर्ग उतार लाना चाहता है। आज ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है जो अपने समाज की सेवा कर उसे प्रगति पर अग्रसर होने का सुअवसर सुलभ करें।

समाज-सेवा के द्वारा ही व्यक्ति महान बनता है। परन्तु समाज-सेवा का मार्ग गुलाबों की सेज नहीं, यह काँटों का ताज है। यह मार्ग कंटकाकीर्ण है। इस पर विरला ही चलता है। जो चलता है, वह सदा-सदा के लिए अमर हो जाता है। भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, महात्मा गांधी, तिलक आदि समाज-सेवा करके ही आज अमर हो गये हैं। ‘समाज-सेवा’ देश-सेवा का ही दूसरा रूप है। जो समाज-सेवा करता है वह सच्चे अर्थों में देश-सेवा करता है। आज हमें समाज-सेवा का व्रत लेकर अखण्ड देश सेवा करनी है।

13. “पराधीन सपनेहु सुख नाही”

महाकवि तुलसीदासजी की उपर्युक्त कथन अक्षरशः ठीक है। पराधीनता में स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता। जीव ईश्वर का अंश होने के कारण स्वाभाविक रूप से सभी बन्धनों से परे हैं। मनीषियों के कथनानुसार प्राणिमात्र के जीवन का परम लक्ष्य ही बन्धनों से मुक्ति पाकर परमानन्द की प्राप्ति करना है। फिर पराधीनता में सख कहाँ है? पराधीनता शब्द का निर्माण “पर + अधीनता” शब्दों से हुआ है। ‘पर’ का शाब्दिक अर्थ दूसरा तथा ‘अधीनता’ का किसी के अधिकार में रहना है अर्थात् एक की इच्छा पर, आदेश पर, दूसरे का अपनी इच्छा के प्रतिकूल काम करना ही पराधीनता है। जहाँ हमें दूसरे के आदेश एवं संकेत पर तन-मन से कार्य में संलग्न होना पड़ता है, जहाँ हमें अपनी स्वतंत्र इच्छाओं तथा स्वतंत्र विचारों का दमन करना पड़े, वहाँ ही पराधीनता का श्री गणेश होता है। पराधीन व्यक्ति को दूसरे शब्दों में दास, गुलाम आदि नामों से सम्बोधित कर सकते हैं।

संसार कर्म क्षेत्र है। मनुष्य एक प्रगतिशील प्राणी है। पराधीनता उसकी उन्नति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। मनुष्य स्वभाव से ही स्वतंत्रता एवं स्वच्छन्दता का उपासक है। स्वतंत्रतावस्था में ही उसकी आत्मा के उत्तरोत्तर विकास की संभावना है। पराधीनता में उसकी आत्मा का विकास संभव नहीं। अफ्रीका के क्रीत दासों की अवस्था से पूर्ण स्पष्ट है कि पराधीनता में एक व्यक्ति की सभी मानसिक, शारीरिक तथा आत्मिक शक्तियों का हनन हो जाता है। उसके शरीर, उसके । विचारों पर उसके स्वामी का अधिकार होता है। उसकी सभी क्रियाएँ स्वामी के कोड़े से नियंत्रित रहती है। फलतः उसकी बुद्धि मन्द हो जाती है। उसके जीवन और पशु के जीवन में कोई अन्तर नहीं रह जाता है।

पराधीन का पतन हो जाता है। स्वाभिमान के अभाव में नीति, धर्म आदि उसके चरित्र में कोई स्थान नहीं रखते हैं। पराधीनता के नियंत्रित वातावरण में पराधीन व्यक्ति के ज्ञान तन्तु नष्ट हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में राष्ट्र-कल्याण तथा अपने कल्याण के लिए वह कुछ नहीं कर सकता है। आत्मशक्ति के ह्रास से उसके बौद्धिक विकास में बाधा पड़ जाती है। फलतः उसका जीवन भार हो जाता है। विधाता की अपार सृष्टि में उसे कोई वस्तु आनन्द प्राप्त नहीं करा सकती है। उसका जीवन नीरस हो जाता है। वसंत आता है किन्तु उसे पीड़ित जीवन का स्मरण कराने के लिए। वर्षा आती है, नन्हीं-नन्हीं बूंदे सारी सृष्टि में नवीन उल्लास भरती है, किन्तु पराधीनता व्यक्ति के जीवन में यह सुहावनी पावस ऋतु अश्रुओं की वर्षा करती है। आकाश में इस छोर से उस छोर तक फैला हुआ सतरंगी इन्द्रधनुष दिखाई देता है, किन्तु पराधीन व्यक्ति को अधिकाधिक चिन्तित एवं पीड़ित करने के लिए ही। कहने का तात्पर्य यह है कि पराधीन व्यक्ति के लिए सारी चीजें संतोषदायक हैं।

पशु-पक्षी आदि भी स्वतंत्रता से प्रेम करते हैं। स्वतंत्रता से उन्हें एक विशेष अनुराग होता है। वन-विहारिणी हरिणी की गति में जो आकर्षण, सौन्दर्य तथा माधुर्य होता है, वह किसी राज-प्रासाद में सुख से पली हुई हरिणी की गति में नहीं। नृत्य करते हुए मंजुल मोर, गुंजार करते हुए भौरे, फूंकती हुई कोकिल, सीटी देती हुई श्यामा चिड़िया, गुटरगूं-गुटरगूं करते हुए कबूतर-जैसा किसी वनखंड में प्रिय लगते हैं, वैसे लखनऊ के चिड़ियाघर में नहीं।

तात्पर्य यह है कि पराधीनता में पशु, पक्षी, मनुष्य आदि कोई भी प्राणी सुखी नहीं रह सकता। स्वतंत्रता मानव का जन्म-सिद्ध अधिकार है। किसी की स्वतंत्रता का अपहरण करना नैतिक दृष्टि से, राजनीतिक दृष्टि से अक्षम्य अपराध है। विश्व के सभी धर्मों ने यह स्वीकार किया है कि अहिंसा परम धर्म है। यदि गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो स्वतंत्रता-अपहरण ही सबसे बड़ी हिंसा है। यदि आज प्रत्येक मानव यह प्रतिज्ञा करे कि किसी की स्वतंत्रता में बाधा नहीं डालेगा तो एक नये सुखी एवं शांत संसार का निर्माण हो सकता है।

14. “पर-उपदेश कुशल बहुतेरे”

यह संसार परस्पर-विरोधी आश्चर्यजनक विषमताओं एवं विचित्रताओं से भरा पड़ा है। एक ओर शरीर को झुलसा देनेवाले बड़े-बड़े रेगिस्तान हैं, तो दूसरी ओर शरीर के रोयें-रोयें को ठिठुरा देनेवाले बर्फ से भरपूर पर्वत-समूह। एक ओर हृदय-कालिका को विकसित कर देनेवाली पिक की पुकार है, तो दूसरी ओर कानों को पथरा देनेवाला गर्दभ-स्वर। एक ओर मानव हृदय को । मादकता से भर देनेवाला वसन्त का विलास है तो दूसरी ओर प्रकृति के समस्त सौन्दर्य को नष्ट कर डालने वाला पतझड़। प्रात:काल से उठकर सायंकाल तक चुपचाप अपने काम में जुटे रहनेवाले एवं संसार की बुराई एवं भलाई से दूर रहनेवाले व्यक्ति भी यहाँ हैं और स्वयं कुछ न करनेवाले तथा दूसरों की भलाई के स्वयंभू ठेकेदार, पर-उपदेश-कुशल जन्तु भी इस चिड़ियाघर में विद्यमान हैं।

वास्तविक बात तो यह है कि इस संसार में अधिकता इसी प्रकार के व्यक्तियों की ही है। ये व्यक्ति दिन-रात दूसरों पर अपनी ज्ञान-राशि को उड़ेलते रहते हैं, लोगों को तरह-तरह से ऊँच-नीचा समझाते हैं, परन्तु स्वयं किसी भी सिद्धान्त पर अमल नहीं करते। दूसरों को समझाने वाली हृदय की यह उदारता अपने प्रति न जाने क्यों कुण्ठित हो जाती है ? इसका एकमात्र कारण यही है कि मुँह से कुछ कह देना बहुत आसान है पर, उसपर आचरण करना कठिन।

जैसा हमने अभी कहा है कि कहना आसान है और करना कठिन है, जो कुछ हम ठीक समझते हैं उसका पालन करना और उसे अपने जीवन में चरितार्थ करना तलवार की धार पर चलना है। इस प्रकार के व्यक्ति का जीवन एक साधना है। उसके जीवन में पग-पग पर प्रलोभन आते हैं, प्रमाद और आलस्य नवीन मनमोहक रूप धारण करके सामने उपस्थित होते हैं, भावनाएँ नवीन रंगीनियाँ लेकर मस्तिष्क पर विजय प्राप्त करना चाहती है और व्यावहारिकता आदर्श को अभिभूत करने की चेष्य करती है। साधारण प्राणी इन विघ्न बाधाओं से घबड़ाकर आसान मार्ग को स्वीकार कर लेते हैं और, वे दूसरों को उपदेश देकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।

परन्तु सच्चे साधक दूसरे व्यक्तियों की अपेक्षा अपने जीवन को अधिक क्रियात्मक बनाने की चेष्टा करते हैं। वास्तविक बात यह है कि जब तक मनुष्य स्वयं किन्हीं सिद्धान्तों को अपने जीवन में चरितार्थ नहीं करता तब तक उसके कहने का प्रभाव या तो एकदम नहीं होता या अस्थायी होता है। केवल कह देने से हम किसी बात को दूसरों के हृदय में नहीं बैठा सकते। यदि ऐसा होता तो पुस्तकों के ज्ञान द्वारा ही संसार का कल्याण हो जाता और पर-उपदेश-कुशल व्यक्तियों की आवश्यकता ही न होती। किसी सिद्धान्त का चिरस्थायी प्रभाव वक्ता द्वारा क्रियात्मक उदाहरण देने पर ही संभव है।

जो व्यक्ति, स्वयं किसी कार्य को करने में असमर्थ हैं, उसको दूसरों को उपदेश देते देखकर समझदार लोगों को हंसी आये बिना नहीं रहती। चूर्ण और ‘गोलियों’ के आधार पर अपनी जीवन-चर्या चलानेवाले व्यक्तियों को स्वास्थ्य के नियमों पर व्याख्यान देते देखकर, दुबले-पतले व्यक्ति को पहलवानी की चर्चा करते देखकर, डरपोक व्यक्ति को साहस और वीरता पर बोलते देखकर और कंजूस व्यक्ति को दानशीलता की महिमा समझाते देखकर विचित्र-सा लगता है और कुछ झुंझलाहट-सी मालूम होती है।

अनधिकारी के मुंह से अधिकार की चर्चा सचमुच ही उपहासास्पद है। इसीलिए हमारे शाकारों ने चरित्र को ऊंचा उठानेवाले नियमों का क्रियात्मक रूप से पालन करने पर इतना अधिक बल दिया है। जो व्यक्ति अपने सिद्धान्तों का स्वयं पालन करता है, उसे अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए उतना प्रयत्न नहीं करना होता है। उसके निकट सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति उसके जीवन से प्रभावित होकर स्वतः ही उसके अनुयायी हो जाते हैं। इसी प्रकार के उच्चाशय या महापुरुषों के कारण सत् सिद्धान्त आज भी थोड़ी-बहुत मात्रा में टिके हुए हैं। पर, इतना होते हुए भी बहुत-से व्यक्ति दूसरों को समझाने में ही अपनी सारी शक्ति व्यय कर देते हैं। बहुत-से व्यक्तियों का तो यह स्वभाव ही हो जाता है।

उन्हें ऐसा किये बिना खाना हजम नहीं होता। इन व्यक्तियों को और चाहे जिन बातों में आलस्य आता हो, पर दूसरों को समझाने का अवसर सामने आने पर इनका आलस्य कोसों दूर भाग जाता है। कर्मण्यता जाग उठती है और सोयी हुई सहानुभूति सजग हो उठती है। इस प्रकार के व्यक्ति अपनी चिन्ताओं से कम, परन्तु संसार की चिंताओं से अधिक व्याकुल रहते हैं। आजकल तो इन पर-उपदेश-कुशल व्यक्तियों की पृथक् श्रेणी ही हो गई है, जो समय के अनुरूप धार्मिक आन्दोलनों और राजनीतिक हलचलों में अगुआ बनने की सफल और कभी-कभी असफल चेष्टा किया करते हैं। यदि दूसरों के अन्देशे से परेशान रहनेवाले ये पर-उपदेश-कुशल व्यक्ति न होते तो संसार की आधी अशांति स्वतः ही समाप्त हो जाती।