Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 3

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Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
स्वामी हरिदास की जीवनी लिखें।
उत्तर:
‘भक्त चरितामृत’ के अनुसार हरिदास जी का जन्म 1537 में जन्माष्टमी में हुआ था जो सार-स्वत ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम आशुधीर तथा माता का नाम गंगा देवी था। दोनों धार्मिक स्वभाव के और साधु सन्तों के बड़े भक्त थे। स्वामी हरिदास में बाल्य काल से ही ईश्वर भक्ति की भावना जागृत हुई। उन्होंने 25 वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया। कुछ समय बाद वे वृन्दावन चले गए और ‘निधिवन निकुंज’ में कुटिया बनाकर रहने लगे। जीवन की कम-से-कम आवश्यकताओं की पूर्ति उन्हें अधिकतम संतोष देती। वे ईश्वर की आराधना और संगीत साधना में लगे रहते।

स्वामी हरिदास के जीवन के विषय में बहुत कम सामग्री प्राप्त होती है। कारण यह है कि उन दिनों कोई साहित्यकार व संगीतज्ञ अपने विषय में कुछ लिखना पसंद नहीं करते थे। स्वामीजी की जन्म तिथि और जन्मस्थान के बारे में बहुत मतभेद है। एक मत के अनुसार उनका जन्म पंजाब के मुलतान अथवा होशियारपुर अथवा हरियाणा के किसी गाँव में हुआ था। कुछ लोगों के अनुसार, उनके पूर्वज पंजाब के अवश्य थे लेकिन उनका जन्म उत्तर-प्रदेश के अलीगढ़ जिले में खेरे-स्वर महादेव के समीप हुआ था। स्वामी हरिदास अपनी कुटिया छोड़कर कहीं नहीं जाते थे। अकबर, तानसेन के द्वारा रोज उनकी प्रशंसा सुना करता था।

अतः उनके मन में हरिदास जी का गायन सुनने की इच्छा हुई। वे तानसेन के साथ वृन्दावन गए और स्वामीजी की झोपड़ी के निकट एक झाड़ी में छिपकर बैठ गए। तब तानसेन ने स्वामीजी के सामने जानबुझकर एक ध्रुपद को अशुद्ध गाना प्रारंभ किया तो स्वामीजी ने आश्चर्य में आकर तानसेन को डांटा और उसका शुद्ध रूप उनको सुनाया। ‘बाहर छिपे बादशाह अकबर आत्म-विभोर हो गया। अपने गायन के पश्चात् स्वामीजी ने तानसेन । से कहा कि तुमने छल से मेरा गायन सम्राट अकबर को सुनाया है, यह अच्छा नहीं किया। खैर, . अब जाओ और बादशाह को अन्दर बुला लाओ। कहते हैं कि अकबर, उनके गायन में ऐसा आत्म अमृत था कि उसने आकर स्वामीजी के चरण पकड़ लिया। स्वामीजी गायन के अतिरिक्त वादन और नृत्य में भी पारंगत थे। उत्तर भारत में जो कुछ भी संगीत आज हमें मिलता है, वह सब किसी न किसी रूप में स्वामीजी से सम्बन्ध है।

कहा जाता है कि स्वामी हरिदासजी के शिष्य तानसेन, बिरजू बाबरे, रामदास, दिवाकर तथा राजा सौरसेन थे, किन्तु तत्कालीन किसी भी साहित्य में तानसेन और बिरजू बावरे (बैजू बावरा) को स्वामीजी का शिष्य नहीं माना जाता है। तानसेन की रचनाओं में कहीं भी हरिदास जी की भक्ति भावना का दर्शन नहीं होता। स्वामीजी हरिदास जी का जन्म ऐसे काल में हुआ था कि जब भारतीय संगीत अस्तप्राय हो चुका था, किन्तु स्वामीजी ने ही उसमें पुनः प्राण प्रतिष्ठा दी। कहते हैं कि उन्होंने धमार, लिवर और चतुरंग की भी रचना की।

प्रश्न 2.
विष्णु दिगम्बर पलुस्कर की जीवनी लिखें।
उत्तर:
ग्वालियर घराने के प्रसिद्ध संगीतज्ञ स्व० पं० विष्णु दिगम्बर पलुस्कर का जन्म 1872 के 18 अगस्त, श्रावण पूर्णिया के कुरूदवाड़ रियासत के बेलगाँव नामक स्थान में अच्छे कीर्तनकार थे। उन्होंने पंडित जी को एक अच्छे स्कूल में भेजना शुरू किया, किन्तु अभाग्यवश, दीपावली के दिन आतिशबाजी से उनकी आँखे खराब हो गयी जिसके परिणामस्वरूप उनका अध्ययन बन्द कर देना पड़ा। आँख के बिना कोई उचित धन्धा न मिलने के कारण उनके पिता संगीत सिखाना शुरू किया। उन्हें मिरज के पंडित बाल कृष्ण बुआ इचलकरंजीकर के पास संगीत शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज दिया। वहाँ मिरज रियासत के तत्कालीन महाराज ने उन्हें राजाश्रय दिया और उनके लिए प्रत्येक प्रकार की व्यवस्था करा दी।

एक बार मिरज में एक सार्वजनिक सभा आयोजित हुई और रियासत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को आमंत्रित किया गया। पं० विष्णु दिगम्बर जी को राजाश्रय प्राप्त होने के कारण आमंत्रित तो किया गया लेकिन उनके गुरुजी को नहीं बुलाया गया। उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ पूछने पर उन्हें आश्चर्यजनक उत्तर मिला कि अरे ! वे तो गवैये हैं। उन्हें आमंत्रित क्यों किया जाए ! अपने गुरुजी के बारे में ऐसा कहे जाने पर उनके हृदय में घर कर गया। जो उन्हें आश्चर्य हुआ कि समाज में संगीतज्ञों की यह दशा है पं० जी ने उसी क्षण संगीतज्ञों की दयनीय दशा को सुधारने, समाज में संगीत की उच्च स्थान दिलाने तथा संगीत का प्रचार-प्रसार करने का दृढ़ निश्चय किया।

1896 में राजाश्रय के सभी सुखों को छोड़कर संगीत को उच्च स्थान दिलाने के लिए पं० जी देशाटन के लिए चल पड़े। सबसे पहले वे सतारा गए। उनका वहाँ भव्य स्वागत हुआ और उनका गायन कार्यक्रम सफल रहा। इसके बाद वे भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण किया और हर जगह अपनी संगीत से लोगों का मंत्रमुग्ध किया। उन्होंने बड़ौदा, ग्वालियर, दिल्ली, भरतपुर, आगरा, वाराणसी, जयपुर, लाहौर, इलाहाबाद आदि का भ्रमण किया।

संगीत का प्रचार और प्रसार के लिए विष्णु दिगम्बर जी ने यह अनुभव किया कि सर्वप्रथम प्रचलित गीतों से शृंगार रस के भद्दे शब्दों को निकाल कर भक्ति रस के सुन्दर शब्दों को रखा जाए। संगीत के कुछ विद्यालय को स्थापित किया जाए जहाँ बालक और बालिकाओं को संगीत की समुचित शिक्षा दी जा सके। 5 मई, 1901 को लाहौर में प्रथम संगीत विद्यालय गांधर्व महाविद्यालय की स्थापना किया। 1908 में पंडितजी ने बम्बई में गांधर्व महाविद्यालय की एक और शाखा खोली। वहाँ पर उन्हें लाहौर की तुलना में अधिक सफलता मिली। लगभग 15 वर्षों तक विद्यालय का कार्य सुचारू रूप से चलता रहा। लेकिन कुछ ही समय बाद विद्यालय बन्द हो गया। तब पं. जी का ध्यान राम-नाम की ओर आकर्षित हुआ। वे गेरूआ वस्त्र धारण कर “रघुपतिराघव राजा राम ………” की टेक ले ली। हर समय इसी में मस्त रहते। इसके बाद वे नासिक चले गए और वहाँ ‘रामना आश्रम’ की स्थापना किया।

वैदिक काल में प्रचलित आश्रम प्रणाली के आधार पर पलुस्कर जी ने लगभग सौ शिष्यों को तैयार किया। उनके साथ अधिकांश शिष्य रहने लगे, उनके खाने-पीने, रहने तथा शिक्षा का प्रबन्ध वे निःशुल्क करते। उनके शिष्यों में स्व० वी० ए० कशालकर, स्व. पं. ओमकार नाथ ठाकुर, वी० आर० देवधर, बी० एन० ठाकुर, बी० एन० पटवर्धन आदि का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने एक स्वरलिपि पद्धति की रचना की, जो विष्णु दिगम्बर स्वर लिपि पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है।

कुल मिलाकर उन्होंने लगभग 50 पुस्तकें लिखीं। उनके नाम है, संगीत बाल प्रकाश, बीस भागों में राग प्रवेश, संगीत शिक्षा-महिला संगीत आदि। कुछ समय तक ‘संगीतमृतय प्रवाह’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन करते रहे। 1930 में उन्हें लकवा मार गया, फिर भी अपनी कार्य क्षमता के अनुकूल. वे संगीत की सेवा करते रहे। अन्त में 21 अगस्त, 1931 को उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया। उनके 12 पुत्र हुए। उनके पुत्रों का मृत्यु बाल्यावस्था में ही हो गया। पंडितजी के केवल एक पुत्र दतात्रय विष्णु पलुस्कर अपने जीवन के 35 वर्षों तक संगीत की सेवा करते रहे किन्तु 1955 की विजयादशमी को उनका भी मृत्यु हो गया।

प्रश्न 3.
उस्ताद बिस्मिलाह खाँ की जीवनी लिखें।
उत्तर:
उस्ताद विस्मिल्लाह खाँ का जन्म भारत के गौरवशाली प्रान्त बिहार के भोजपुर जिलान्तर्गत डुमरांव में 1908 में हुआ। इनके पिता का नाम उ० पैगाम्बर बख्श खाँ था जो इनके गुरू भी थे। इनके पूर्वज डुमरांव महाराज के दरबार में शहनाई वादन प्रस्तुत किया करते थे। बचपन से ही इन्हें पढ़ाई-लिखाई की अपेक्षा संगीत शिक्षा से लगाव रहा। अपने पिता के अलावा इन्होंने अपने मामा उ० अलिबख्श खाँ साहब से भी शहनाई वादन की शिक्षा ग्रहण की जिन्होंने इन्हें गायन की भी शिक्षा दी। उस्ताद अलिबख्श जहाँ भी जाते इनको अपने साथ ले जाते। अतः अल्पायु में ही इन्हें इनके संगीत सम्मेलनों में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त अपने ख्याल गायन की शिक्षा प्राप्त करने हेतु लखनऊ जाकर उ० मुहम्मद हुसैन साहब का शिष्यत्व ग्रहण किया।

1718 वर्ष की आयु में ही ख्याति प्राप्त कलाकार बन गए। सबसे पहले इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के संगीत समारोह में 1926 में शहनाई वादन प्रस्तुत किया, जिससे वहाँ उपस्थित संगीतविद् तथा अन्य श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो गए। इसके लिए इन्हें अनेक पदकों, पुरस्कारों तथा प्रमाण पत्रों से सम्मानित किया गया। ये शहनाई के साथ तबला के बजाय खुर्दक बजवाना अधिक पसन्द करते थे। इनका कार्यक्रम भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि देश-विदेशों में अमिट छाप छोड़ चुका है। आज भी इनका कार्यक्रम को लोग दूरदर्शन तथा आकाशवाणी पर मंत्रमुग्ध हो देखते और सुनते हैं। 86 वर्ष की उम्र होने पर भी इनकी फूंक में वह दम और कशिश था कि श्रोता आत्म-विभोर हो जाते थे। साथ ही ये अत्यंत व्यवहार कुशल एवं मृदुभाषी कलाकार थे तथा जाति-धर्म आदि की संकीर्ण बंधनों से बहुत ही ऊपर थे। इनका देहावसान सन् 2006 में हो गया।

प्रश्न 4.
नाद क्या है ? संगीत में नाद के महत्त्व पर प्रकाश डालें। या, नाद को स्पष्ट करते हुए उसके प्रकार एवं उसकी विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
‘नाद’ शब्द ‘ना’ और ‘द’ के मिलने से उत्पन्न है। ये दोनों ‘नकार’ और ‘दकार’ क्रमश: वायुवाचक और अग्निवाचक माने गये हैं। दरअसल वायु और अग्नि के संयोग से ही नाद की उत्पत्ति होती है। अग्नि द्वारा उत्पन्न नाद वायु द्वारा प्रसरित और विस्तृत होता है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संगीत रत्नाकर’ में शारंगदेव ने एक स्थल पर लिखा भी है कि,

“नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदुः। :
जातः प्राणाग्नि संयोगातेन नादोऽमिधीयते ॥

नाद के सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा है कि, ‘नाद का अर्थ है कम्प और कम्प जब लहरों में प्रवर्तित होता है तब उससे प्रकाश प्राप्त होता है।’

संगीतशास्त्र के अन्तर्गत नाद के दो प्रकार उल्लेखित हुये हैं, वे हैं-
(i) आहत नाद तथा
(ii) अनाहत नादा

(i) आहत नाद – आहत नाद उस नाद को कहा जाता है जो स्थूल कानों से सुनाई देने वाली वह सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित संगीतोपयोगी ध्वनि है जिसकी उत्पत्ति दो वस्तुओं के टकराने अथवा घर्षण से हो। इसी के अन्तर्गत समस्त संसार का श्रव्य संगीत गृहीत होता है।

(ii) अनाहत नाद – अनाहत शब्द ‘अन’ और ‘आहत’ के मिलने से उत्पन्न है। यह वह नाद है जो बिना किसी टकड़ाहट अथवा घर्षण से उत्पन्न होता है। मानव के अन्तर्हदय में तरंगित होनेवाला नाद ही अनाहत नाद कहलाता है। साधक को अपनी साधना अथवा अध्यात्म साधना के क्रम में एकाग्रता से लेकर समाधि की अवस्था तक यात्रा करनी पड़ती है तभी अन्तहंदय की ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। इस प्रकार अन्तर्हृदय की उठने वाली मधुर ध्वनियों की अनुभूति ही अनाहत नाद की संज्ञा से अभिहित होता है। हमारे पूर्वजों एवं ऋषि-महर्षियों को इस स्थिति की प्राप्ति अनवरत कठिन तपस्या के पश्चात ही होती थी। इस नाद को ही ‘नोद ब्रह्म’ के नाम से जाना जाता है।

संगीतशास्त्र के अन्तर्गत नाद की जिन तीन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है, वे हैं-
(i) नाद का छोटा अथवा बड़ा होना,
(ii) नाद की ऊँचाई अथवा निचाई तथा
(iii) नाद की जाति अथवा गण

(i) नाद का छोटा अथवा बड़ा होना – जिस नाद को धीरे-धीरे उत्पन्न किया जाय अथवा उच्चरित किया जाय या जो कम दूरी तक सुनायी दे वह छोटा नाद कहलाता है।

(ii) नाद की ऊंचाई अथवा निचार्ड-जब गाने-बजाने के क्रम में स्वर को ऊंचा अथवा नीचे लाया जाय तब इस क्रम में बढ़ने-घटने की स्थिति को ही नाद की ऊंचाई-निचाई कहा जाता है।

(iii) नाद की जाति अथवा गण-विभिन्न वाद्ययंत्रों की आवाज में भिन्नता होती है जिन्हें हम सुनते ही पहचान लेते हैं और इसी को नाद की जाति अथवा गुण कहा जाता है।

नि:संदेह नाद संगीत का एक भौतिक आधार है जिसकी उत्पत्ति मानव कंठ अथवा वाद्ययन्त्रों की सहायता से ही संभव है पर इसमें भौतिक उपकरण नाम का ही होता है। संगीत में नाद का नियम कुछ निश्चित सिद्धांतों के आधार पर होता है। कोई भी संगीतकार अपने मानस में स्थित भावों की अभिव्यक्ति नाद की सहायता से करता है जिसका प्रभाव सभ्य मनुष्य से लेकर वन्य-पशुओं तक पर पड़ता है।

निष्कर्षत: संगीत के अन्तर्गत नाद का विशेष महत्व है क्योंकि इसी की सहायता से ही संगीतकार अपने संगीत से हमारी आत्मा को प्रभावित करता है और संगीत का उद्देश्य भी हमारी आत्मा को प्रभावित करना है। अतः संगीत में नाद के महत्व से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
स्वर और ताल पर एक लेख लिखें।
उत्तर:
संगीत के अन्तर्गत स्वर उस मधुर ध्वनि को कहा जाता है जिसकी उत्पत्ति नियमित और आवर्त कम्पन्नों के संयोग से होती है। ‘संगीत रत्नाकर’ में शारंगदेव द्वारा स्वर की परिभाषा इस प्रकार की गयी है-

“श्रुत्यन्तर भावी यः स्निग्धोऽनुरणनात्मकः।
स्वतो रंजयतिश्रोतृक्तिं स स्वर उच्यते ॥

अर्थात् जो बराबर स्थिर रहे तथा जिनकी झंकार श्रोता के चित्त का रंजन करे वे मधुर ध्वनियाँ स्वर कहलाती हैं।
संगीतान्तर्गत एक सप्तक के अन्तर्गत स्थित ध्वनि के उन सात खंडों को स्वर कहा जाता है जिन्हें षडज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद कहा गया है। इन्हें ही संक्षेप में सप्त स्वर सा रे ग म प ध नि कहा गया हैं। ये स्वर अग्नि और वायु के संयोग से उत्पन्न होते हैं। अग्नि के द्वारा वायु नाभि से उठकर हृदय, कंठ, शीर्ष आदि से टकराती है जिससे अग्नि उत्पन्न होती है और तब स्वर उत्पन्न होते हैं।
स्वरों के तीन प्रकार बताये गये हैं जो निम्नलिखित हैं-
(i) प्राकृत अथवा शुद्ध स्वर
(ii) अचल स्वर
(iii) चल अथवा विकृत स्वर’

(i) प्राकृत अथवा शद्ध स्वर-अपने निश्चित श्रुतियों पर स्थित रहने वाले सात स्वर को प्राकृत अथवा शुद्ध स्वर कहा जाता है।

(ii) अचल स्वर-अपने निश्चित स्थान से ऊपर नीचे नहीं खिसकने वाले स्वर अचल स्वर होते हैं, यथा-‘सा’ और ‘प’। इनका कोई विकृत स्वर नहीं है।

(iii) चल अथवा विकत स्वर-वैसे स्वर जो निश्चित स्थान से ऊपर-नीचे खिसक कर विकृत या उपस्वर के नाम से जाना जाने लगे, उन्हें चल अथवा विकृत स्वर कहते हैं, यथा रे ग ध और नि स्वर अपने निश्चित स्थान से नीचे खिसक कर कोमल स्वरों के नाम से व्यवहृत होते हैं तथा म ऊपर खिसककर तीव्र ‘म’ के रूप में व्यवहृत होता है।

रागों में व्यवहार की दृष्टि से स्वर पाँच तरह से प्रयोग होते हैं जिन्हें क्रमश: वादी, संवादी, अनुवादी, विवादी तथा वर्जित स्वर कहते हैं। यहाँ इन पाँचों स्वरों का विवेचन प्रस्तुत है-

(i) वादी स्वर-किसी राग में जिस स्वर का प्रयोग सबसे अधिक हो वह वादी स्वर कहलाता है, यथा-राग कल्याण में ‘ग’ वादी स्वर है। वादी स्वर को राग रूपी राज्य का राजा कहा गया है।

(ii) संवादी स्वर-किसी राग में वादी स्वर को छोड़कर दूसरा महत्वपूर्ण हो जाने वाला उपमुख्य स्वर संवादी स्वर कहलाता है, यथा-राग कल्याण में ‘नि’ संवादी स्वर है। संवादी स्वर को राग रूपी राज्य के. राजा का मंत्री कहा गया है।

(iii) अनुवादी स्वर-किसी राग में वादी तथा संवादी स्वरों को छोड़कर लगने वाले अन्य सभी स्वर अनुवादी स्वर कहलाते हैं, यथा-राग भूपाली में सा, रे, ग, प और ध कुल पाँच स्वर लगते हैं। इनमें वादी स्वर ग और संवादी स्वर ध के अतिरिक्त अन्य तीन स्वर सा, रे और प इस राग के अनुवादी स्वर हैं। इन्हें अनुचर भी कहते हैं।

(iv) विवादी स्वर – किसी राग में वे स्वर विवादी स्वर होते हैं जो उस राग में प्रयोग नहीं होते हैं, यथा राग भूपाली में प्रयुक्त कुल पाँच स्वरों सा, रे, ग, प, ध के अतिरिक्त शेष शुद्ध और विकृत कुल सातों स्वर उस राग के विवादी स्वर होंगे जिसको राग रूपी राज्य का शत्रु कहा गया है। जबकि पं० विष्णु ना. भातखंडे ने राग की रंजकता बढ़ाने के उद्देश्य से विवादी स्वरों के प्रयोग को क्षम्य बताया है।

(v) वर्जित स्वर – किसी राग में जिन स्वरों के प्रयोग से परहेज रखा जाय उन्हें वर्जित स्वर कहते हैं, यथा-राग भूपाली में मध्यम ‘म’ और निषाद ‘नि’ ये दोनों वर्ण्य अथवा वर्जित स्वर हैं।

ताल, गायन, वादन एवं नर्तन में उन मात्राओं के अलग-अलग संचयन को कहते हैं जो मात्राएँ समय की माप की इकाइयाँ होती हैं। इन्हीं इकाइयों से ही तालों का निर्माण होता है, यथा-सोलह मात्रा के संचयन से. तीन ताल, तिलवाड़ा. आदि तालो का निर्माण।

प्रश्न 6.
उस्ताद बिलायत खाँ की जीवनी लिखें।
उत्तर:
वर्तमान सितार वादकों में उ० बिलायत खाँ का नाम सर्वश्रेष्ठ वादकों में से एक है।  इनका जन्म 1926 में गौरीपुर के निवासी सुप्रसिद्ध सितार वादक स्व. इनायत खाँ साहब के घर में पुत्र के रूप में हुआ। घर में वंश-परंपरागत सितार वादन के कारण इनके संस्कार में संगीत समाहित था। इनके पिता से संगीत शिक्षा प्राप्त कर मात्र 12 वर्ष की आयु में प्रयाग संगीत सम्मेलन में भाग लेकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। पुनः उसी शहर में एक वर्ष बाद प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित संगीत सम्मेलन में आकर्षक कार्यक्रम प्रस्तुत करने के कारण काफी प्रशंसित एवं चर्चित हुए। 1930 में इनके पिता के देहांत के बाद इनकी माता इनको साथ लेकर कलकता से दिल्ली चले गए। इनकी माता भी सिद्धस्थ गायिका थी। अत: वे अपने मार्गदर्शन में इनसे प्रतिदिन 1012 घंटे सितार का अभ्यास कराती। यहीं पर अपने नाना बन्दे हसन खां साहब से गायन तथा सुर-बहार की भी शिक्षा प्राप्त की।

1914 में बम्बई में कांग्रेस की ओर से एक संगीत सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें बड़े-बड़े उस्ताद गुलाम अली खाँ, फैयाज खां, अहमद जान घिरकवा, बुन्दु खाँ आदि जैसे देश के चोटी के कलाकारों के साथ ये भी आमंत्रित किए गए। इस सम्मेलन में इन्होंने अपने सितार वादन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया तथा उनके आग्रह पर इन्हें सितार-वादन के लिए पांच बार मंच , पर आना पडा। यह इनके लिए जीवन का स्वर्णिम प्रभात था। ये गतकारी अंग से सुर-बह बड़ी कुशलता से रागों का आलाप, जोड़, झाला आदि के बाद मसीतखानी तथा रजाखानी गतों की पांडित्यपूर्ण प्रस्तुति करते हैं।

इन्होंने अपने देश में बड़े-से-बड़े संगीत सम्मेलनों में कार्यक्रम प्रस्तुत करने के अतिरिक्त अनेक यूरोपीय देश, अमेरिका, अफ्रीका आदि महादेशों के अन्तर्गत विभिन्न देशों में अपना मनोहारी कार्यक्रम प्रस्तुत कर विश्व में ख्याति प्राप्त की।

इनके पूर्वज हिन्दू-धर्मावलम्बी संत मलुकदास के वंशज राजपुत थे जिसके पश्चात् वंश के अन्य लोगों को अकबर के शासन काल में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेना पड़ा।

प्रश्न 7.
स्वरलिपि पद्धतियाँ क्या है ?
अथवा, भातखण्डे पद्धति या विष्णु दिगम्बर पद्धति में अन्तर बताएं।
उत्तर:
भातखण्डे पद्धति – विष्णु दिगंबर पद्धति
स्वर चिह्न
शुद्ध स्वर – रे ग म प – रे ग म (कोई चिह्न नहीं)
(चिह्न रहित)
कोमल स्वर रे ग – रे ग
तीन स्वर में – म (अथवा उलटाहलंत)
सप्तक चिह्न –
मध्य सप्तक ग म प – ग म प (कोई चिह्न नहीं)
मन्द्र सप्तक नि ध प – नीं धं पं
तार सप्तक गं मं पं – गे मै पे
स्वर मान
एक मात्रा-रे ग – रे ग
11/2 मात्रा-सा-रे अर्थात् – सा रे
सा = 1 और रे = 1/2
दो की मात्रा-रे-ग – रे ग

अर्द्ध विराम सा, रे ग – सा, रे ग
अर्थात् सा = 1/2 और रे, ग
क्रमशः 1/4 मात्रा
ताललिपि-
सम – × 1
खाली  – 0 +
विभाग 1 विभाग नहीं होता
ताली-ताली-संख्या जैसे – मात्रा संख्या जैसे
2,3,4 – 1,5, 11
स्वर सौन्दर्ण –
मीड-प ग – प ग
कण-ध – ध
‘प – प
खटका (प) = प ध में प – (प)
गीत उच्चारण-श्या ऽ ऽ म – श्या 0 0 म

प्रश्न 8.
सप्तक किसे कहते हैं ? उनके प्रकारों के स्वरों को भातखण्डे तथा विष्णु दिगंबर स्वर लिपि में लिखें।
उत्तर:
क्रमानुसार सात शुद्ध स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं। सातों स्वरों के नाम क्रमशः सा रे ग, म, प ध और नि है। इस प्रकार सा से नि तक का एक सप्तक होता है।

सप्तक के तीनों प्रकारों मंद्र, मध्य और तार के स्वरों की दोनों स्वरलिपियों में लिखा जा रहा है-
भातखण्डे स्वर लिपि में-
मन्द्र सप्तक-सा, रे, रे, ग मे’, प, ध ध, नि, नि
मध्य सप्तक-सा, रे, रे, ग, ग, म, मे, प, ध, ध नि, नि
तार सप्तक-सां, र, रे, गं, गं, मं, मे, पं धं, धं, नि, निं
विष्णु दिगंबर स्वर लिपि में
मन्द्र स्पतक-सां, रे, रे, गं, गं, मं, मे, पं, धू, नि, नि
मध्य सप्तक-सा, रे, रे, ग, ग, म, म्, प, ध्, ध नि, नि
तार सप्तक-सो, रे’, गू, मे, मे, मे पे, धे’ नि, नि। .

प्रश्न 9.
आपके पाठ्यक्रम के कौन-कौन राग किन-किन थाटों से उत्पन्न माने गए हैं ? बताएँ।
उत्तर:
थाटों की संख्या दस मानी गई।

थाट राग
कल्याण थाट से कल्याण, बिहाग, भूपाली राग।
खमाज थाट से खमाज, देश, तिलंग, तिलक कामोद राग।
काफी थाट से वृन्दावनी सारंग, भीमपलासी, बागेश्री राग।
भैरव थाट से भैरव, कालिंगड़ा राग।
बिलावल थाट से अल्हैया बिलाव राग।
आसावरी थाट से आसावरी, जौनपुरी राग।
भैरवी थाट से  भैरवी रागा।

इन थाटों के अतिरिक्त पूर्वी, मारवा और तोड़ी ये तीन थाट ऐसे बच जाते हैं जिनके कोई । राग हमारे पाठ्यक्रम में नहीं है।

प्रश्न 10.
निम्न गीत के प्रकारों की तुलना करें :
(क) ध्रुपद-ख्याल,
(ख) ख्याल-तराना,
(ग) ध्रुपद-धमार
उत्तर:
(क) ध्रुपद-ख्याल की तुलना ,
समता- इन दोनों रागों में निम्न समानता है-
(i) ये दोनों गायन-शैलियाँ अथवा गीत के प्रकार है जो उत्तर भारत में प्रचलित है।
(ii) आधुनिक काल में प्रचलित ध्रुपद और ख्याल के दो खण्ड पाए जाते हैं, स्थायी और अन्तरा।

विभिन्नता – इन दोनों रागों में निम्न विभिन्नता देखी जाती है-

  1. ध्रुपद गायन-शैली ख्याल की तुलना में अधिक प्राचीन है। तानसेन, स्वामी हरिदास, बैजू बावरा आदि ध्रुपद गाते थे, ख्याल नहीं गाते थे।
  2. ध्रुपद के साथ पखाबाज और ख्याल के साथ तबला, संगति के लिए उपयुक्त माने जाते हैं।
  3. ध्रुपद गायक कलावन्त और ख्याल गायक ख्यालिए लिए कहलाते हैं।
  4. प्राचीन ध्रुपदों के चार अवयव ख्याली, अंतरा, सचारी और आभोग पाए जाते हैं, किन्तु ख्याल के दोही अवयव होते हैं-स्थायी और अंतरा।
  5. ध्रुपद गायन में गीत के पूर्व नोक्र-तोक्र का विस्तृत आलाप किया जाता है किन्तु ख्याल में आकार का संक्षिप्त आलाप किया जाता है।
  6. ध्रुपद में मींड, गमक और लयकारी प्रधान होते हैं और ख्याल में मोंड, कण-मटका, मुर्की और स्वरकारी प्रधान होती है।
  7. ख्याल के दो प्रकार है-बड़ा और छोटा ख्याल जिसे क्रमशः बिलंबित और ध्रुत ख्याल कहते हैं, किन्तु ध्रुपद के प्रकार नहीं होते हैं।
  8. चारताल, शूलताल, तेवरा या तीव्रा तालों में ध्रुपद गाये जाते हैं और एक ताल, तिलवाड़ा, तीनताल, झपताल आदि तालों में ख्याल गाए जाते हैं।
  9. ख्याल में ताने लगाई जाती है, किन्तु ध्रुपद में तानें नहीं लगायी जाती है।
  10. ध्रुपद का आविष्कार ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने और बड़े ख्याल की रचना जौनपुर के सुलतान हुसैन शर्की ने और द्रुत ख्याल की रचना अमीर खुसरो ने किया था।

(ख) ख्याल तराने की तुलनासमता –
इन दोनों रागों में निम्न समानता है-

  1. दोनों आधुनिक कालीन गायन शैलियाँ है।
  2. दोनों के अवयव पाये जाते हैं-स्थायी और अन्तरा।
  3. दोनों के गायन-शैली लगभग एक ही है।
  4. छोटे ख्याल और तराने दोनों एकताल, तीन ताल, झपताल आदि तालों में गाए जाते हैं।
  5. दोनों में द्रुत ताने ली जाती है।
  6. महफिलों में ख्याल और तराने दोनों सुनायी पड़ते हैं।
  7. तवले का प्रयोग दोनों गायन शैलियों के साथ होता है।

विभिन्नता – इन दोनों तालों में निम्न विभिन्नता पाई जाती है-

  1. ख्याल के शब्द सार्थक और और तराना के शब्द निरर्थक होते हैं। अर्थात् ख्याल में साहित्य होता है और तराना में नोभ, तोम, तन देरे ना आदि शब्द होते हैं।
  2. तराना की गति धीरे-धीरे बढ़ाई जाती है और अधिकतम लय में पहुँचने के बाद उसे समाप्त करते हैं।

(ग) ध्रुपद-धमार की तुलना – इन दोनों रागों में निम्न समातना देखी जाती है-

  1. दोनों प्राचीन गायन शैलियाँ है।
  2. दोनों की गायन शैली लयकारी प्रधान है।
  3. दोनों की संगति पखावज से की जाती है।
  4. दोनों में नोभ-तोभ का विस्तृत आलाप किया जाता है।
  5. दोनों में ताने तथा द्रुत स्वर-समूह वयं है।

विभिन्नता – इन दोनों रागों में निम्न विभिन्नता देखी जाती है-

  1. धमार नामक गीत केवल धमार ताल में होता है, किन्तु ध्रुपद चारताल, शूलताल, आदि कई तालों में होता है।
  2. विद्यार्थियो में धमार की अपेक्षा ध्रुपद अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि ध्रुपद धमार की अपेक्षा सरल है।

प्रश्न 11.
निम्न से किन तालों की तुलना मिलती है ? उनका परिचय और ठेका लिखिए। इन्हें कब प्रयोग किया जाता है ?
Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 3 2
उत्तर:
(क) से दादरा ताल, (ख) से झपताल, (ग) से एकताल, (घ) से चारताल के शूलताल का बोध होता है।

(क) से दादरा ताल का बोध होने का कारण यह है कि दादरा ताल में खाली विभाग के पहले ना आता है और खाली विभाग में तीन मात्राएँ होती है व धा तूना का बोल होता है। दादरा ताल में 6 मात्राएँ व 2 विभाग होते हैं। पहली मात्रा पर ताली और चौथी मात्रा पर खाली पड़ती है। इस ताल का प्रयोग भजन, गीत और चलती फिरती चीजों के साथ होता है। इसलिए ढोलक,. नगाड़ा, खजरी आदि वाद्यों का मुख्य ताल दादरा है।

दादरा ताल-त्रा 6
Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 3 3

(ख) से झपताल का बोध होता है कि इस ताल के दूसरे विभाग में तीन मात्राएं धी धी ना के बोल तथा धी पर दूसरी ताली पड़ती है। इसका प्रयोग ख्याल के साथ होता है।

(ग) से एक ताल का बोध होता है क्योंकि चौथी ताली धी पर पड़ता है जो दो मात्राओं का विभाग है।

विलंबित एक ताल बड़े ख्याल के साथ और द्रुत एकताल छोटे ख्याल के साथ बजाया जाता – है। इसका ठेका इस प्रकार है-एक ताल-मात्रा 12
विभाग 6, ताली 1, 5, 9, 11 पर और खाली 3, 7 पर
Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 3 4

(घ) से शूलताल और चारताल दोनों का बोध होता है, क्योंकि प्रारंभिक 6 मात्राएं और बोल दोनों में समानता है। शूल ताल में दो-दो मात्राएँ के 5 विभाग और चारताल में 2-2 मात्राओं के 6 विभाग होते हैं। शूलताल में 1,5,7 पर ताली पड़ती है। धा धा । दिता से दोनों की शुरूआत होती है और दोनों में प्रथम धा पर सम पड़ती है और दिं पर खाली पड़ती है। शूलताल और चारताल दोनों तालों का प्रयोग ध्रुपद के साथ किया जाता है।

प्रश्न 12.
रूपक-तेवरा, एकताल-झपताल तथा शूलताल-चारताल की तुलना कीजिए।
उत्तर:
रूपक-तेवरा की तुलना :
समानता-
(i) दोनों में सात मात्राएँ होती है।
(ii) दोनों में तीन विभाग होते हैं।
(iii) दोनों में प्रथम विभाग तीन मात्राएँ का और शेष दो विभाग दो-दो मात्रा के होते हैं।

विभिन्नता-
(i) रूपक की प्रथम मात्रा पर कुछ लोग खाली मानते हैं, किन्तु तेवरा की प्रथम मात्रा पर सभी विद्वान सम मानते हैं।।
(ii) जो विद्वान प्रथम मात्रा पर खाली मानते हैं, उनके लिए रूपक ताल में एक खाली और दो ताली होती है। किन्तु सभी विद्वान तेवरा में तीनों विभाग ताली का मानते हैं।
(iii) रूपक ताल ख्याल शैली और तेवरा ताल ध्रुपद शैली के लिए निर्मित हुआ है।
(iv) रूपक तवले का और तेवरा पखावज की ताल है।
(v) तेराव अथवा तीव्रा ताल का ठेका इस प्रकार है-
Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 3 5
रूपक ताल का ठेका इस प्रकार है-
रूपक ताल मात्रा – 7
विभाग 3. ताली 1.4 और 6 पर
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एक ताल और झपताल की तुलना :
इन दोनों रागों में निम्न समानता है-
(i) दोनों तबले के ताल है।
(ii) दोनों में द्रुत और विलंबित ख्याल गाए जाते हैं।
(iii) दोनों के तबला–तालों में कायदा पलटा, रेला, टुकड़ा आदि बजाए जाते हैं।

विभिन्नता – इन दोनों रागों में निम्न विभिन्नता पाई जाती है-

  1. एक ताल में बारह और झपताल में दस मात्राएँ होती है।
  2. एकताल में 6 और झपताल में 4 विभाग होता है।
  3. एक ताल में दो खाली 3 और 7 पर तथा झपताल में केवल एक खाली 6 पर मानी ‘जाती है।
  4. एकताल में चार ताली 1.5.9.11 पर और झपताल में तीन ताली 1, 3,8 पर मानी जाती है।
  5. दोनों के बोल बिल्कुल अलग है। झपताल के बोल और एकताल के बोल निम्न प्रकार से है-

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विभिन्नता – इन दोनों रागों में निम्न विभिन्नता देखी जाती है-

  1. दोनों तालों का ठेका अलग-अलग है।
  2. चाल ताल के बोल खुले हुए और एक ताल के बन्द है, अत: चारताल पखावज की और एक ताल वबले की ताल है।
  3. चार ताल में पटन् टुकड़े आदि बजाये जाते हैं और ताल में कायदा, पलटे, रेला आदि बजाये जाते हैं।
  4. चार ताल ध्रुपद के साथ और एक ताल ख्याल के साथ बजाया जाने वाला ताल है।
  5. चार ताल का ठेका इस प्रकार है-

चारताल मात्रा – 12
विभाग 6, ताली 1, 5, 9 और 11 पर तथा खाली 3 और 7 पर।
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एक ताल का ठेका इस प्रकार है-
एक ताल-मात्रा 12
विभाग 6, ताली 1, 5, 9, 11 पर और खाली 3,7 पर
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