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Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 4
प्रश्न 1.
निम्न पर टिप्पणियाँ लिखें :
1. सम्वादी
2. ठुमरी
3. ख्याल
4. आश्रय राग
5. वर्ण
6. गीत
7. टप्पा
8. लक्षणगीत
9. झाला
10. ताल
11. सम
12. लय
13. मात्रा
14. अलंकार या पलटा
15. श्रुति
16. नाद
17. ध्रुपद या ध्रुवपद
18. धमार या होरी।
उत्तर:
1. सम्वादी (Samwadi) – राग में लगने वाले सभी स्वरों में वादी स्वर को छोड़ एक अन्य उपयुक्त स्वर होता है जिसे संवादी स्वर कहते हैं। यह वादी स्वर का अनुपूरक होता है।
2. ठुमरी (Thumari) – यह एक भाव प्रधान गायन शैली है जो शृंगार रस पर आधारित है। इसमें रागों की शुद्धता पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है। यह चंचल प्रकृति की गायन-शैली है जो खमाज, देश, काफी भैरवी, तिलक-कामोद, नोगिया, पीलू, तिलंग, खमावती आदि चंचल प्रकृति के रागों में गायी जाती है। इसे दीपचंदी अथवा जत ताल में गाने की परंपरा है जिसका अन्त कहरवा में किया जाता है। इसके बोल बहुत कम शब्दों की रचनाओं के अन्तर्गत रहते हैं। उन शब्दों के भाव विभिन्न स्वर-समूहों द्वारा दर्शाए जाते हैं। इसके अतिम चरण में गायक जब दीपचन्दी अथवा जत ताल को बदलकर कहरवा में आता है तो यह बड़ा रोचक बन जाता है।
ठुमरी ठप्पा गायकी की राग-रागिनी में ही रची जाती है। इसकी उत्पत्ति उत्तर-प्रदेश में हुई है। इसको जन्म देने का श्रेय लखनऊ के अंतिम नवाब ताजिद अली शाह, अख्तर पिया को है।
3. ख्याल (Khayal) – ‘ख्याल’ शब्द सामान्यतः विचार के अर्थ में गृहीत होता है। यह सर्वमान्य है कि संगीत का विचार से गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि विचार के अभाव में संगीत संबंधी सृजनात्मक कार्य कतई संभव नहीं है। वस्तुतः ख्याल गायन की एक शैली है। संगीत की अन्य गायन शैलियों की तरह ख्याल नाम की गायन-शैली में भी विचार कल्पना आदि का पूरा ध्यान रखा जाता है। इस शैली में शृंगार प्रधान होता है। इसमें संगीत के नियमों का पालन करते हुए स्वच्छंदता के साथ विस्तृति दी जाती है। इस क्रम में कल्पना का पूरा आश्रय ग्रहण करना पड़ता है।
ख्याल को बड़ा ख्याल तथा छोटा ख्याल दो भागों में बांटा जाता है। इन दोनों में सबसे बड़ा अन्तर तानों के कारण होता है। एक में जहाँ बड़ी तान ली जाती है वहाँ छोटा ख्याल में छोटी ताने ली जाती है।
4. आश्रय राग (Ashray rag) – आश्रय राग वह राग कहलाता है जिसके नाम का आश्रय किसी थाट को प्राप्त हो। रागों के नाम का आश्रय प्राप्त करने के कारण ही थाट राग कहा जाने लगा। उदाहरणार्थ, बिलावल थाट को अल्हैया बिलावल राग के नाम का आश्रय प्राप्त है। इसी प्रकार, आसावरी, कल्याण आदि थाट भी है जिन्हें आसावरी, कल्याण आदि का आश्रय प्राप्त हुआ है। उत्तर भारतीय संगीत जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा जाता है उसमें दसों थाटों बिलावल, कल्याण, खमाज, काफी, भैरव, पूर्वी, अन्तर्गत ही सभी रागों को वर्गीकृत कर दिया जाता है।
5. वर्ण (Varn) – वर्ण संगीत में गायन व वादन के क्रम में सम्पन्न होने वाली क्रियाएँ हैं दर असल वर्णों का आरोह-अवरोह ही संगीत में चमत्कृत उत्पन्न करता है।
स्थायी वर्ण, आरोही वर्ण, अवरोही वर्ण एवं संचारी वर्ण ये वर्ण के ही चार प्रकार है। स्थायी वर्ण में निरंतर स्वर उच्चरित होता हुआ ऊपर नीचे होता रहता है। आरोही वर्ण में जहाँ ऊपर के स्वरों की ओर जाया जाता है वहीं अवरोही वर्ण में नीचे के स्वरों की ओर जबकि संचारी वर्ण के ऊपर के सभी वर्गों का समाहार होता है।
6. गीत (Geet) – वादक गीत का अनुकरण केवल स्वर के सहारे करते हैं जिसे गत कहा जाता है अर्थात् गीत से जुड़ा हुआ सरगम गत कहलाता है। हमारे देश में विभिन्न तन्त्र वाद्य प्राचीन काल से ही प्रचलित है। अतः उन पर प्राचीन काल में ही छन्द पर आधारित गत बजाने की परंपरा थी। तथापि प्राचीन काल से प्रचलित दो प्रकार के गत वादन जिन्हें मुगलकाल में मसीतखानी तथा . रजाखानी कहा गया आज भी प्रचलित है। मसीतखानी के अन्तर्गत विलोबत लय में गत बजाये जाते । हैं तथा रजाखानी के अन्तर्गत मध्य एवं द्रुत लयों में।
7. टप्पा (Tappa) – यह एक चंचल प्रकार की गायन शैली है जिसे मुहम्मद शाह के शासन काल में गुलाम नबी शोरी ने जन्म दिया। यह पील, देश, भैरवी, काफी, भिंझाटी, खमाज, आदि चंचल प्रकृति के रागों में गाया जाता है। इसके गीत पंजाबी भाषा में होते हैं जो शृंगार रस प्रधान होते हैं। इसे गायक फरोदस्त, सितारखानी आदि तालों में गाते हैं। इसमें छोटी-छोटी पंचेदार ताने ली जाती है जिसमें कण मुर्की, खटका आदि का प्रयोग अधिक मात्रा में किया जाता है। अन्य क्षेत्रों के अतिरिक्त बिहार में भी गया के कुछ सिद्धहस्त गायकों द्वारा सुन्दर प्रदर्शन किया जाता है। इस गायन शैली को भी हम शृंगार-रस प्रधान होने के नाते देशी संगीत की संज्ञा देते हैं जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन है।
8. लक्षणगीत (Lakshan Geet) – जिस गीत में अपने राग का पूरा लक्षण हो, लक्षणगीत कहलाता है। इसका उद्देश्य यह है कि प्रारंभिक विद्यार्थियों को गीत के सहारे राग का पूरा परिचय कन्ठस्त हो जाए। लक्षण गीत में भी ख्याल के समान दो भाग होते हैं-स्थायी और अन्तर। इसकी गायन शैली ख्याल की तरह होती है। ये अधिकतर उन्हीं तालों में होते हैं जिनमें छोटे ख्याल गाये जाते हैं। कुछ लक्षण गीत ध्रुपद अंग के भी पाये जाते हैं। लक्षण गीत केवल प्रारंभिक विद्यार्थियों के लिए होते हैं। अत: महफिल अथवा संगीत-सभा में लक्षण गीत सुनने को नहीं मिलता है। ‘संगीत राग दर्शन’ पुस्तक से खमाज राग में निबद्ध एक लक्षण गीत नीचे देखा जा सकता है-
सोहत मधुर खमाज, सुध सुर चुत दोऊ निषाद।
समय द्वितीय प्रहर रात, षाडव सम्पूर्ण जाति।।
आरोहन रिषम छुटत, सब सुर अवरोह करत।
गनी नृप मंत्री संमत, संगत सुर धम की लसत॥
9. झाला(Jhala) – यद्यपि कुछ शास्त्रकारों ने झाला को केवल सितार एवं सरोद का बाज कहा है परन्तु व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो आज यह प्रत्येक तार यन्त्र पर व्यवहत है। झाला बजाने के क्रम में वाद्य राग में लगने वाले स्वरों को क्रमशः प्रत्येक स्वर को कई बार उत्पन्न करते हुए सा सा सा, सा रे रे रे रे, ग ग ग ग इस प्रकार बढ़ते आरोहित एवं अवरोहित करते हैं। इस प्रकार यह कहा जाय कि झाला में स्थायी वर्ण का समुचित प्रयोग होता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी भले ही विभिन्न वाद्य यंत्रों पर उनके बजाने की प्रक्रिया अलग-अलग हो।
10. ताल(Taal)-गायन, वादन तथा नृत्य में समय के नापने की मात्रा कहते हैं तथा कई मात्राओं के अलग-अलग संचयन को ताल कहते हैं। जैसे-सात मात्रा के इस संचयन
11. सम(Sum) – “जिस मात्रा से कोई भी ताल आरंभ होता है उस प्रथम मात्रा को ‘सम’ कहते हैं। गायन, वादन तथा नृत्य के क्रम में जब भी ‘सम’ आता है तो कलाकार तथा श्रोता दोनों को सिर स्वभाविकतः वहाँ पर हिल जाता है। किसी भी ताल को लिपिबद्ध करने के क्रम में ‘सम’ । को भातखण्डे पद्धति में (x) तथा विष्णु दिगम्बर पद्धति में (।) चिह्न से दर्शाते हैं।
12. लय(Lay) – गायन, वादन तथा नृत्य में गति को एक समान कायम रखने या बरतने की लय कहते हैं। जैसे-यदि कोई घड़ी एक मिनट में ठीक साठ सेकेन्ड का अन्तर बताती है तथा चौबीस घंटे के बाद भी उसकी चाल हू-ब-हू वहीं बरकराबर रहती है तो हम उसे ठीक चाल वाली घड़ी मानते हैं, अन्यथा उसकी चाल में थोड़ी सी भी कमी-बेशी होने पर हम उसे स्लो (Slow) या (Fast) फास्ट की संज्ञा देते हैं। इसी तरह संगीत में समान गति बरतने को ‘लय’ कहते हैं।
लय तीन प्रकार के होते हैं-(क) विलंबित (ख) मध्य (ग) द्रुत। गायन, वादन अथवा नर्तन के क्रम में धीमी गति बरतने को ‘विलंबित लय’ सामान्य गति बरतने को मध्यम लय तथा तेज गति बरतने को द्रुत लय कहा जाता है।
13. मात्रा (Matra) – “संगीत में समय नापने का नाम मात्रा है। ‘मात्रा’ समय के नाप की ऐसी इकाई है जिससे विभिन्न तालों का निर्माण होता है। अर्थात् सोलह (16) मात्रा के संचलन से तीन ताल, तिलवाड़ा, आदि तालों का निर्माण तथा दस मात्रा के अलग-अलग ढंग से संचलन के फलस्वरूप झपताल, सुलताल आदि निर्मित है।
14. अलंकार या पलटा (Alankar or palta)-अलंकार का अर्थ है आभूषण या गहना। अर्थात् स्वरों की वह क्रमबद्ध शृंखला जिसे लगाने पर राग की सुन्दरता बढ़े, अलंकार या पलटा कहते हैं। यह तीन वर्णों अर्थात् स्थायी, आरोही तथा अवरोही वर्गों पर आधारित रहता है। जैसे-
(क) सारेग, रेगम, गमप, मपध, पधनि, धनिसां, सानिध, निधप, धमप, पमग, मगरे, गरेसा।
(ख) सारे, सारेग, रेगरेगम, गमगमप, मंपमपध, पधपधनि, धनिधनिसां, सानि, सांनिध, निधनिधप, धप धपम, पम पमग, मगमगरे, गरेगरेसा।
इस प्रकार राग के जाति भेदं से राग में लगने वाले स्वरों से विभिन्न अलंकारों का सृजन . किया जाता है जो राग को आभूषित कर सुन्दरता प्रदान करता है। साथ ही विद्यार्थियों को गायन के लिए गला तैयार करने तथा वादन के लिए हाथों की तैयारी में अलंकार का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। अलंकार को पलटा कहा जाता हैं।
15. श्रुति (Shruti) – संगीत शास्त्रों में यह उल्लिखित है ” श्रुयते इति श्रुति” अर्थात् हम जो कुछ सुनते हैं उसे श्रुति कहते हैं। श्रुति शब्द से ही श्रवण’ शब्द बना है। जिसका अर्थ है ‘सुनना’ अर्थात् हम जो कुछ सुनते हैं वह श्रुति है।
संगीत में 22 श्रुतियाँ है जो इस प्रकार है-
- तीव्रा,
- कुमुति,
- मन्दा,
- छन्दोवती,
- दयावती,
- रंजनी,
- रक्तिका,
- रौद्री,
- क्रोध,
- बजिका,
- प्रसारिणी,
- प्रीति,
- मार्जनी,
- क्षिति,
- रक्ता,
- सन्दीपनी,
- अलापिनी,
- मदन्ती,
- रोहिनी,
- रम्या,
- उग्रा तथा
- क्षोमिनी। इन्हीं
- श्रुतियों के अन्तर्गत प्रचलित गायन-वादन माना जाता है।
16. नाद. (Nad) – संगीत के काम में आने वाले सुनियोजित तथा सुव्यवस्थित कर्णप्रिय ध्वनि को नाद कहा जाता है। नाद दो प्रकार का होता है-
(a) आहत नाद – दो वस्तुओं के टकराहट या घर्षण के फलस्वरूप उत्पन्न सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित संगीतपयोगी ध्वनि, जो इन स्थूल कानों से सुनाई देती है, को ‘आहत नाद’ कहते हैं।
(b) अनाहत नाद – संगीत साधना अथवा अध्यात्मक साधना के द्वारा चित्त को एकाग्र कर ध्यान और समाधि की अवस्था में पहुंचने पर अन्तहृदय में हर क्षण उठाने वाली मधुर ध्वनियों की अनुभूति को “अनाहत नाद” कहते हैं।
17. ध्रुपद या ध्रुवपद (Dhrupad or Durv-pad) – जिस गायन के द्वारा हमारे पूर्वज ध्रुवपद, अमर पद या मोक्ष प्राप्त करते थे उसे ध्रुवपद कहा जाता था, जो रूपान्तरित होकर आज ध्रुपद कहलाता है।
आधुनिक ग्रन्थकारों का मत है कि यह प्राचीन शैली है परन्तु कुछेक ने इसका जन्म 13वीं से 15वीं सदी बताया है। इसे मध्यकालीन शैली कहना गलत नहीं होगा। इसकी रचनाएँ हिन्दी तथा ब्रजभाषा में है, जिसका अवतरण मध्यकाल में हुआ अधिकांश शास्त्रकारों ने इस शैली का जन्मदाता 15वीं सदी में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर को बताया है। यह शैली मुगल शासन काल में पूर्ण रूप से विकसित थी तथा स्वामी हरिदास, बैजू बाबरा, तानसेन, गोपाल नायक आदि इसके उच्च कोटि के गायक थे। यहाँ तक कि ख्याल गायन के सर्वाधिक रचनाकार सदारंग एवं अदारंगग भी ध्रुवपद-गायन का ही प्रदर्शन किया करते थे क्योंकि शृंगार-रस प्रधान रचनाओं के आधिपत्य के कारण लोग ख्याल गायन को नीची निगाह से देखते थे।
ध्रुवपद गायन-शैली गंभीर प्रकृति है। इसकी अधिकांश रचनाएँ ब्रज भाषा तथा हिन्दी में है। ध्रुपद के चार भाग होते हैं, स्थायी, अन्तरा, संचारी एवं आभांग। यह चार ताल, ब्रह्म ताल, सूल ताल, मत्त ताल, शिखर ताल आदि। पखाबाज के तालों में गाया जाता है।
18. धमार या होरी (Dhamar or Hori)-ध्रुवपद के समान ही ‘धमार’ गायन शैली मध्यकाल की देन है जबकि ब्रज में हिन्दी साहित्य तथा लोकभाषा के रूप में ब्रजभाष प्रचलित हुई। ‘धमार’ गायन शैली भक्ति प्रधान शृंगार रस से ओतप्रोत है। इसके अन्तर्गत ब्रज में राधी, कृष्ण, गोप-गोपिकाओं द्वारा रचाये गए रास तथा होली का वर्णन रहता है। इसमें रंग, अबीर, गुलाल आदि का भी वर्णन रहता है। ध्रुवपद के समान ही धमार के पदों के चार अवयव होते हैं जिन्हें स्थायी, अन्तरा, संचारी तथा आभोग कहते हैं। ‘धमार’ का गायन ‘धमार’ ताल में ही होता है जो 14 मात्रे का होता है।
ध्रुवपद के समान ही धमार में तारन नहीं लिया जाता है अपितु इसमें भी पद रचना के बोलों को विभिन्न स्वरों से बोल बनाया जाता है जिसे बोलबनाव कहते हैं। इसमें अधिकांश गायक पखावज या तबले के साथ लड़न्त करते हैं।
होरी-यद्यपि ‘धमार’ को अधिकांश लोग होरी की संज्ञा देते हैं। परन्तु उत्तर-प्रदेश, दिल्ली, बिहार आदि उत्तर-भारत के अनेक भागों में क्षेत्रीय लोक भाषाओं में अलग-अलग शैलियों में लोकगीत के अन्तर्गत ‘होरी’ सुनने को मिलती है। जो दीपचन्दी, जत कहरवा आदि तालों में गायी जाती है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित रागों में से एक बड़ा ख्याल तथा छोटा ख्याल, तराना, ध्रुपद, धमार, तान, दुगुन लिखें।
(i) राग विहाग
(ii) राग कल्याण (यमन)
(iii) राग अल्हैया विलाबल
(iv) राग भीमपलासी
(v) राग बागेश्वरी बागेश्री
(vi) राग हमीर
(vii) राग कामोद
(viii) राग तिलक कामोद
(ix) राग पूर्वी।
उत्तर:
(i) राग विहाग (Raga Vihag)-
समय – रात्रि का प्रथम प्रहर
वादी – ग, सम्वादी – नी
थाट – विलावल
आरोह – नि सा ग म प नि सां
अवरोह – सां नी ध प म गरे सा
पकड़ – नि सा ग म ग, म प ग म ग इत्यादि।
राग का परिचय विलावल थाट से उत्पन्न वह राग औडव-सम्पूर्ण जाति का जिसमें आरोह में रे ध स्वर वर्जित है। यद्यपि इस राग में सभी शुद्ध स्वर लगते हैं। जिससे इसे विलावल थाट के अन्तर्गत माना जाता है। आज कल अधिकांश मुनिजन इसमें तीव्र मध्यम का प्रयोग करते हुये। इस प्रकार प म ग मं म, में प ग म ग पंचम के संयोग से विवादी स्वर के रूप में लेते हैं। अतः इसमें कल्याण अंग का अभास मिलता है। यह गंभीर प्रकृति का राग है। जिसमें करूण रस का समावेश है। आयुर्वेद की दृष्टि से वह राग बातजन्य होने से कफ जन्य रोगों का शमन करता है।
आलाप
सा ………. नि सा ग म ग …………. रे सा ……………. म म सा ………..: मप ……. निं ………….. ध …………. म ……………. म प नि नि सां …………… नि …………… ध प :….. ……. प मे म ………….. म प:………….. रे सा, नि सा ग मे म ……….. ।
रचना (विलवित) एकताल
स्थाई – सतगुरु दीन दयाल पूरणबह्म कूपाला।
अन्तरा – ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर त्रिगुण विषय के सार।
रचना (मध्यलय) तीनंताल 16 मात्रा
स्थाई – गुरु चरणन का ध्यान करो मन। अवसर बीती जात है। प्रतिक्षण।।
अन्तरा – दारा, सुत, धन-बन्धन कारण। भव-बन्धन काटे गुरु चरणन।।
(ii) राग कल्याण (यमन) (Raga Kalyan Yaman)-
सामय रात्रि का प्रथम प्रहर
थाट – कल्याण
वादी – ग
सम्वादी – नी
जाति – सम्पूर्ण-सम्पूर्ण
आरोह – नि रे ग म प ध नी सां
अवरोह – सां नी ध प म ग रे सा।
पकड़ – नि रे गं, नि रे सा, प म ग रे सा इत्यादि।
राग का परिचय – यह कल्याण थाट का आश्रय राग है। इसका नाम मुगल काल में बदलकर यमन या इमन कर दिया गया जो यमन शब्द का अपभ्रंश है। इसमें मध्यम तीव्र तथा सभी स्वर शुद्ध लगते हैं। इसका आरोह नि रे ग के रूप में दर्शाया जाता है। यह करुण रस का राग है। आयुविज्ञान की दृष्टि से यह राग बात जन्य होने के कारण कफ जन्य रागों का शमन करता है।
आलाप
सा ……… नि रे ग …….. रे सा ………. नि रे ग मे प ……… मे प ……….. मे रेग ……. रे सां ……. मे प ध नि ………..धं ……….. प ………. मे प ध नि सां …………. नि रे सां ………. नि-ध-प ……… मे प मे रे ग ……….. रे सा, नि ध नि रे ग …………. ।
रचना (विलवित) एकताल
स्थाई – हे नारायण तुम करुणामय दीन दयाला।
अन्तरा – दया करों तुक्ष पर हे प्रभु तुम परम कृपाल ।।
रचना (मध्यलय) तीनताल 16 मात्रा
स्थाई – दीनबन्धु करुणा निधान तुम
सव विधा के हो सुजान तुम
अन्तरा – सुर नर मुनि कोई पार न पायी
तब संतन के सुरति धाम तुम
(iii) राग अल्हैया विलाबल(Raga Alhaiya Blawal)-
समय दिन का दुसरा प्रहर
वादी – प
सम्वादीम
थाट विलावल
जाति-पाडव-सम्पूर्ण
वर्जित स्वर आरोह में “म”
आरोह सा रे ग प ध, ध नी ध प, म ग म रे सा
अवरोहम रे ग प, म ग म रे, म प ध नी ध प इत्यादि।
राग का परिचय-यह राग विलावल थाट से उत्पन्न माना गया है। इसके आरोह में मध्यम वर्जित है। तथा अवरोह में धैवत के संयोग से कोमल निषाद का प्रयोग इस प्रकार सां नि ध, प, ध, नी ध , “प” होता है। जिससे यह राग विलावल से स्पष्ट रूप में अलग हो जाता है। मग म रे की स्वर–संगति विलावल अंग को प्रदर्शित करती है। यह अर्ध गम्भीर प्रकृति का राग है। यह राग आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से पित्त बातजन्य होने के कारण कफ प्रधान रोगों का शमन करता है।
आलाप
सा ………. सा रे ग म प ग …………. म रे सा ………… ग प ध नि ध ………. प . …….. म प ध नि सां ……… सां नि ध …….. प ……… म प ध नी ध ……… प ……… … म प म ग ………….. म रे सा …………. ग प ध नि सां ……….. ।
रचना (विलवित) एकताल
स्थाई – हे करतार, जग के पालनहार तुम हो।
अन्तरा- दीनदयाल दयामय तुम जग के आधार।।
रचना (मध्यलय) तीनताल 16 मात्रा
स्थाई – हे करतार जगत आधार
सकल जगत के पालनहार
अन्तरा – तु ही ब्रह्मा विष्णु – महेश्वर
तु मेरी नैया खेवनहार
ध्रुवपद (चार ताल)
स्थाई – गुरु सम दाता न कोई।
ध्यावत ही द्रवित होई।।
अन्तरा – चरण कमल ध्यावत जो।
सकल सिद्धि पावे सोई।।
(iv) राग भीमपलासी (Raga Bhimpalasi)-
समय – दिन का चौथा प्रहर
वादी – म
थाट- काफी
सम्वादी – सा
जाति – औडव-सम्पूर्ण
वर्जित स्वर- आरोह में रे, ध
आरोह – नि सा ग म प नि सां
अवरोह – सां नी ध प म प ग म ग रे सा
पकड़ – सा रे नि सा म, ग म प नी ध, प म इत्यादि।
राग का परिचय यह राग काफी थाट से उत्पन्न माना जाता है। इसके आरोह में रे ध स्वर वर्जित होने के कारण इसकी जाति औडव-सम्पूर्ण है।
इसके समीप का एक राग धनाश्री है। जिसके आरोह-अवरोह के सभी स्वर समान है। परन्तु इसका वादी स्वर पंचम है। कुछ लोग भीमपलासी गाने-बजाने के क्रम में पंचम को प्रधान कर देते हैं। जिससे भीमपलासी के बजाय धनाश्री का रूप खड़ा हो जाता है। अत: मुणिजन नि साम, सा रे नि सा म आदि स्वर संगितयों के द्वारा भीमपलासी को स्पष्ट रूप में धनाश्री से पृथक कर देते हैं। साथ ही भीमपलासी गम्भीर प्रकृति का राग है। जबकि धनाश्री चंचल प्रकृति का यह राग कफ जन्य होने से पित्त सम्बन्धी रोगों का शमन करता है।
आलाप
सा ……… सा रे नि सा प …….. ग रे सा ……. नि सा म ……. ग मप नि ध …….. प …….. म प नि नि सां ……. नि ध ……. प ……… मप ग ……. रे सा, ………. सा रे नि सा म।
रचना (विलवित ) एकताल
स्थाई हे धनश्याम तुम बिन जीवन सुना मेरा।
अन्तरा-मुरलीधर जग में नहि कोई, आस है तेरा।।
छोटा ख्याल (मध्यलय ) तीनताल
स्थाई – मुरली बजावत कृष्ण कन्हाई सुधुबुध तज सव सखियाँ आई ।।
अन्तरा – वृन्दावन की कुंज गलिन में सब सखियन संग रास रचाई ।।
(v) राग बागेश्वरी बागेश्री (Raga Bagheshree)-
समय – रात्रि का द्वितीय प्रहर
वादी – म
सम्वादी – सा
जाति – औडव – सम्पूर्ण
वर्जित स्वर-आरोह में रे, प
आरोह – सा नि ध नि सा म ग म ध नि सां
अवरोह – सां नि ध म ग म ग रे सा इत्यादि।
पकड़ – ध नि सा म म ध नि ध ग रे सा इत्यादि।
थाट – काफी
राग का परिचय – यह काफी थाट से उत्पन्न इस राग में कोमल ग, नि लगता है। अधिकांश लोग इसे औडव-सम्पूर्ण जाति का राग मानते हैं जबकि कुछ लोग इसे षाडव-सम्पूर्ण तथा कुछ सम्पूर्ण-सम्पूर्ण। इस राग में पंचम का प्रयोग “नि ध म प ध ग या म प ध म प ग रे सा इस प्रकार वक्र रूप से करते हैं। यह गंभीर प्रकृति का राग है। जिसमें विलम्बित तथा मध्यलय रचना बड़ा ख्याल छोटा ख्याल ध्रुपद, तराना गाया जाता है। पित्तज रोगों को शान्त करता है।
आलाप
सा ………….. नी ध नी साम …….. म प ध ……… म …….. ग म ग ………. रे सा ……… ग म ध नी सां ……. नि ध म ……… प ध ग ……… रे सा ……. नि ध नि साम ……………….।
बड़ा ख्याल (विलंबित) एकताल
स्थाई– जग जननी जय माता तुम हो जीवन दायनी।
अन्तरा-तुम हो सब के रक्षक सब के पालन हार ।।
छोटा ख्याल (मध्यलय) तीनताल
स्थाई – माँ बागेश्वरी विद्यादायिनी
सकल जगत की तुम विनासिनी
ध्रुवपद (चार ताल)
स्थाई – मातु पिता गुरु सम नाहि
शुभ चिन्तक कोई
अन्तरा – सेवारत रहत वाकी
सकल सिद्धि पावे सोई
(v) राग बागेश्वरी बागेश्री (Raga Bagheshree)-
समय – रात्रि का द्वितीय प्रहर
वादी – म
सम्वादी – सा
जाति – औडव-सम्पूर्ण
वर्जित स्वर – आरोह में रे, प
आरोह – सा नि ध नि सा म ग म ध नि सां
अवरोह – सां नि ध म ग म ग रे सा इत्यादि।
पकड़ – ध नि सा म म ध नि ध ग रे सा इत्यादि।
थाट – काफी
राग का परिचय-यह काफी थाट से उत्पन्न इस राग में कोमल ग, नि लगता है। अधिकांश लोग इसे औडव-सम्पूर्ण जाति का राग मानते हैं जबकि कुछ लोग इसे षाडव-सम्पूर्ण तथा कुछ सम्पूर्ण-सम्पूर्ण। इस राग में पंचम का प्रयोग “नि ध म प ध ग या म प ध म प ग रे सा इस प्रकार वक्र रूप से करते हैं। यह गंभीर प्रकृति का राग है। जिसमें विलम्बित तथा मध्यलय रचना बड़ा ख्याल छोटा ख्याल ध्रुपद, तराना गाया जाता है। पित्तज रोगों को शान्त करता है।
आलाप
सा …………… नी ध नी साम ……… म प ध …….. म ………. ग म ग ……….. रे सा ……… गं म ध नी सां ……. नि ध म ……. प ध ग ……… रे सा ……. नि ध नि साम …………..।
बड़ा ख्याल (विलंबित) एकताल
स्थाई – जग जननी जय माता तुम हो जीवन दायनी।
अन्तरा – तुम हो सब के रक्षक सब के पालन हार ।।
छोटा ख्याल (मध्यलय) तीनताल
स्थाई – माँ बागेश्वरी विद्यादायिनी
सकल जगत की तुम विनासिनी
अन्तरा – तेरी कृपा बिनु ज्ञान न आवै
ज्योतिरुप घट-घट निवासिनी
(vi) राग हमीर (Raga Hamir)-
समय – रात्रि का प्रथम प्रहर
थाट – कल्याण
सम्वादी – म
वादी – ध
आरोह – सा रे सा, ग म नि नध, नि ध सां
अवरोह – सां नि ध प, मे प ध प, ग म रे सा
पकड़ – सा रे सा, ग म नि ध, मे प म ग म नि ध इत्यादि।
राग का परिचय – यह राग कल्याण थाट से उत्पन्न माना गया है। इनमें दोनों मध्यम का प्रयोग होता है। कोई इसे षाडव-सम्पूर्ण तथा कुछ गुणिजन इसे सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति का राग मानते हैं। इसके आरोह में पंचम का लंधन करके गम निध या पप ग म नि ध इस प्रकार राग का रूप दर्शाया जाता है। इसी तरह निषाद का वक्र प्रयोग कर नि ध नि ध सां इस प्रकार से तार षञ्ज पर जाते हैं।
परन्तु कुछ लोग सपाट रूप से ध नि सां का भी प्रयोग करते हैं। जिससे सौन्दर्य वर्धन के साथ ही तान लेने में भी सुविधा जनक हो जाती है। अवरोह में गन्धार वक्र रूप से “गमरेसा” के रूप में ही प्रयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त इस राग में दोनों माध्यम के प्रयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त इस राग में दोनों मध्यम के प्रयुक्त होने के कारण कोमल निषाद का प्रयोग धैवत के संयोग से “धनिधप” इस प्रकार किया जाता है। यद्यपि इस राग का वादी स्वर धैवत है। अतः इसे उत्तरकालिक होना चाहिये था परन्तु वह अपवाद के रूप में पूर्वकाल अर्थात् रात्रि के प्रथम प्रहर में गाया बजाया जाता है। आयुविज्ञान की दृष्टि से यह राग पित्त-बातजन्य होने से कफ सम्बन्धी रोगों का शमन करता है।
आलाप
सा ……… रे सा …….. ग म नि ध ……. प ………. ग म रेसा ……. मे प ग म नि ध ………….. नि ध सां ……….. नि ध प ……… मे प ग ………. म नि ध ………..म … …….. ग म रे सा ………… मे प ग म नि ध ………. ।
बड़ा ख्याल (विलंबित ) एकताल
स्थाई-मेरे घर आओ श्याम बिहारी गिरिधारि।
अन्तरा-रैन भई अब हूँ नहीं आये मैं हारी।।
छोटा ख्याल (तीन ताल)
स्थाई – हे प्रभु मेरे दयानिधान।।
सबके प्रतिपालक भगवान।
अन्तरा – ज्ञान की ज्योति जला दो घट में।
हम सब है तेरी संतान।
तराना (द्रुतलय) तीन ताल
स्थाई – तनाना तदारेदानि दीन्त नाना देरे दीना देरे तदियनरे तदारे।।
अन्तरा – ओंदानी ओदानी देरे तनाना तनाना देरे। तदियनरे तनादेरेना देरेमा दरे।।
(vii) राग कामोद(Raga Kamod)-
समय – रात्रि का प्रथम प्रहर
थाट – कल्याण
वादी – प
सम्वादी – रे
जाति – वक्र सम्पूर्ण
गन्धार – का वक्र प्रयोग
आरोह – सा म रे प, मे प ध प, नि ध सां
अवरोह – सां नी ध प, मे प ध प, ग म प ग म रे सा
पकड़ – म रे, प, मे प ध प, ग म प ग म रे सा
राग का परिचय – यह राग कल्याण थाट से उत्पन्न माना गया है। यद्यपि वह पूर्वकालिक राग है। तथापि इस राग का वादी स्वर “पंचम” उत्तरार्द्ध है। अतः राग हमीर के समान ही इसे अपवाद माना जाता है। इसमें मध्यम का कण लेकर रिषम के पश्चात पंचम “म रे प” की स्वर संगति राग-वाचक है। इसके विपरीत “प-रे-” की स्वर संगति लेने पर राग छायानट की अवतरित. करती है। अत: “परे” की स्वर संगति कामोद में मूलकर भी नहीं लेनी चाहिये। इस राग में छायानट, केदार तथा हमीर रागों के समान ही नियमत दोनों माध्यमों के प्रयोग के फलस्वरूप कोमल निषाद इस प्रकार “सां ध नि प” का कवचित प्रयोग होता है। साथ ही इसका गंधार स्वर बराबर वक्र रूप में “ग म रे सा” “ग म प ग म रे सा” इस प्रकार प्रयुक्त होता है। वह अर्ध गम्भीर प्रकृति का राग है। हमीर के जैसे इस राग में भी गुणिजन संपाट रूप में “ध नि सां” का भी प्रयोग करते हैं। वह राग कपा-वित्तजम्व होने से त्रिदीषज रोगों को शान्त करता है।
आलाप
सा ……… म रे ……….. प ……….. मे प ध प ………… ग म प ………… ग म रे सा . . ……… सा नि ध प ………. नि ध सां ………… म रे प ……….. मे प ध प ………… नि ध सां …………… सां नि ध प ……….. मे प ध प …………. ग म प ………. ग म रे सा ……………. म रे प …………… ग म रे सा।
बड़ा ख्याल (विलंबित) एकताल
स्थाई – मेरे मन भावन आयो, प्रभु निज दरस दिखाओ।
अन्तरा – आरति बंदन करू, मैं अरचन-चित्र हर्षायो।।
छोटा ख्याल (मध्यलय) तीन ताल
स्थाई – हे शिव शंकर दया निधान
आदि गुरु विद्या के खान
अन्तरा – जो ध्यावत सो होत सुजान
सब का प्रभु कर दो कल्याण
तराना (द्रुतलय) तीनताल
स्थाई – तननन देरे देरे तीभ देरे तीभ देरे।
तनदेरे ननदेरे तननन तीभ देरे।।
अन्तरा – दिरदिर तन नीतादानी तदारेता दिरदिर दानी।
देरे देरे नीतादानी तनादरे तीभदेरे।।
ध्रुवपद (चारताल)
स्थाई – हे माँ सुन तू पुकार।
विनति करत गया हार।।
अन्तरा – मैं कपूत अधम दीन
तुम दया के भंडार
(viii) राग केदार (Raga Kedar)-
समय – रात्रि का दूसरा प्रहर
थाट – कल्याण
वादी – म
सम्वादी – सा
जाति – औड़व-षाड़व
वर्जित स्वर – आरोह मे रे ग तथा अवरोह मे ग
आरोह – साम, मेप धम, निधसां
अवरोह – सांनीधप, मेपधपम, रेसा।
पकड़ – साम, म, ग धि, मे प ध प म इत्यादि।
राग का परिचय- यह राग कल्याण थाट से उत्पन्न माना गया है। इसके आरोह में रिषम तथा गंधार दोनों स्वर वर्जित है। तथा अवरोह में गंधार वर्जित है। यद्यपि इसके आरोह-अवरोह में गंधार स्वर वर्जित माना गया है। इसके आरोह में कण के रूप में इसका प्रयोग “स म ग पर इस प्रकार अति अल्प किया जाता है। जिससे राग का सौन्दर्य बढ़ जाता है। साथ ही छायानट तथा कामोद रागों की भाति इसमें भी कोमल निषाद का प्रयोग “ध नि ध प, मे पध””म” इस प्रकार किया जाता है। यद्यपि इसके आरोह में रिषम सवर वर्जित है। तथापित इसमें “सा रे सा” “म” के रूप में प्रयुक्त होता है। इस रागों की आत्मा “मे प ध” “म सा रे सा” स्वर समुदायी में निहित है। यह गंभीर प्रकृति का राग है। यह राग कफजन्य होने से पित्तज रोगी का शमन करता है।
आलाप
सा ………….. म ………. ग प ……….. मे प ……… ध ……….. प म ………. सा .. …… रे ……… सा ………. म ……. ग प …… मे प ध……. प नि ध सां ……… सां नि ध प ……… मे प ध नि ध प ………. मे प ध ………. प म ………… सा रे …………. मे प ध …………. प मा।
बड़ा ख्याल (विलंबित) एकेताल
स्थाई – हे मेरे राम करूणा निधान पूरण काम।।
अन्तरा – निसदिन तुम को ध्यावत आन मिली घनश्याम।
छोटा ख्याल (तीनताल)
स्थाई – जय जय मातु भवानी जननी।
सव दुःख नासिनी मंगल करनी।।
अन्तरा – तुम प्रति पालक जग के माता
बंधन काटी मैं तेरी शरणी।
राग केदार का धमार
स्थाई – क्यों तुम करत भी संग रार।
रंग दियों सकल वस्त्र हमार।।
अन्तरा – प्रेम का रंग भी पर डार
राधा रमण कृष्ण मुरार।।
(ix) राग तिलक कामोद (Raga Tilak Kadar)-
समय – रात्रि का द्वितीय प्रहर
थाट – खमाज
वादी – रे
सम्वादी – प
जाति – औड़व-षाड़व
वर्जित स्वर – आरोह में ग, ध तथा अवरोध में रे
आरोह – सा रे ग सा, रे म प ध म प सां
अवरोह – सां प, ध म ग सां, रे म सा, नि
राग का परिचय – यद्यपि यह राग खमाज थाट से उत्पन्न माना गया है। जिसमें दोनों निषाद का प्रयोग दिखलाया गया है। व्यवहार में अधिकांश गुणिजन केवल शुद्ध निषाद का ही प्रयोग करते हैं। कोई-कोई कलाकार अवरोह में कोमल निषाद का प्रयोग सांप, नि ध प, ध म ग सा इस प्रकार करते हैं। कुछ विद्वान इसका वादी सम्वादी “रे प” है। तथा कुछ ध, सा मानते हैं। यह शृंगार रस प्रधान, चंचल प्रकृति का रांग है। अतः इसमें विलम्वित रचना या बड़ा ख्याल नहीं गाया जाता है। अपितु इसमें ठुमरी, दादरा तथा कजरी गायी जाती है। इसमें “रेप” की स्वर संगति सौन्दर्यवर्धक है। यह मल्हार अंग के रागों के समान वर्षाकालीन राग भी माना गया है। आयुविज्ञान की दृष्टि से यह राग पित्तकफ जन्य है। अतः त्रिदोषज रोगों का शमन करता है।
आलाप
सा ………. सा रे ग सा नि ……… प नि सा रे ग सा ……… रे म प ………….. प …. म ग ……….. सा रे ग सा नि …….. प नि सां रें गं सा ………. रे म प ध म प सा ….. .. म नि सां रें-गं सां ……… सां …….. मं …….. ध प ग- सा – रे ग सा नि ……….. प नि सा रे ग सा ……..।
(मध्यलय) तीन ताल
स्थाई – नटखट मदन गोपाल यशोदा तेरा।
आया संग लिये “बाल-बाल” घर मेरो।।
अन्तरा – सींको से उतार दो मटके को सब फोड़ डारयो।
माखन चुरायी नंदलाल दुलारों तेरो।।
(x) राग पूर्वी (Raga Puravi)-
समय – दिन का चौथा प्रहर
थाट- पूर्वी
वादी – ग
सम्वादी – नी
जाति – सम्पूर्ण-सम्पूर्ण
आरोह – सारेगा, मेपनि सां
अवरोह – सानि ध प, मे ग, मग रेसा।
राग का परिचय-यह पूर्वी थाट का आश्रय राग है। इसके आरोह-अवरोह में कोमल रिषभ तथा धैवत प्रयुक्त होता है। साथ ही इस राग में दोनों माध्यम का प्रयोग “में प मेग, मगरे सा” या प, मेगमे ग रे मग रेसा” इस प्रकार होता है जो राग वाचक है। एक अन्य राग पूरिया धनाश्री इसके बहुत निकट है परन्तु उसमें शुद्ध माध्यम कदापि प्रयुक्त नहीं। साथ ही पूरिया धनाश्री का वादी-सम्वादी क्रमशः पंचम तथा ष्डज है। इसके अतिरिक्त पूरियाधानश्री का स्वर विस्तार “नि रे ग, रे मे ग, मेप, “या” नि रे गमेप, मेधप” इस प्रकार पंचम पर न्यास किया जाता है जिससे दोनों राग स्पष्ट रूप से भिन्न हो जाते हैं।
आलाप
सा ………… रेनिसा रेग …….. मेगरेसा ……… रेमेग ……….. रेमग ……. मेग-मेग रेसा-रग …….. सा रेमेग …………. मेपमेधुप ……… मेग-मग रसा-निसारग ………. मेपध निसा ……. रेनिरेंसा ……. निधुप ……… मेप मेग – मगरेसा ………. रेनि – सा रेग……. रेसासा ………..।
बड़ा ख्याल (विलम्वित) एकताल
स्थाई – सांध्या आई, श्याम न आये, व्याकुल मन मेरा।
अन्तरा – कित विलमोय, अबहुन आये, ध्यान लगा तेरा॥
छोटा ख्याल (मध्यलय) तीनताल
स्थाई – मन मोहन धन श्याम मुरारी।
नंद के लाल मुकुन्द बिहारी।।
अन्तरा – भक्ति सहित ध्याऊ में निसदिन।
आप दरस दो मोहे बनवारी।।
ध्रुवपद (चरताल)
(निम्नांकित ध्रुवपद-रचना मुगलकालीन सुविख्यात गायक तानसेन की है।)
स्थायी – मोर मुकुट पीत बसंत
सोहत मोहत नवल छैल
नंदलाल यमुना के तट-तट
नट ज्यों नाचत गावत तान रसाल।।
अन्तरा – तन-मन-धन नोछावर करई
बारू मोतिन बाल
“तानसेन” प्रभु तुम्हारे दरस को
सुदंर रूप गोपाल।।